#कक्षा 12 #class 12 #intermediate #hindi #sahityik hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
#कक्षा 12 #class 12 #intermediate #hindi #sahityik hindi लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

10- पंचशील सिद्धांता: कक्षा 12

पंचशील

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


पञ्चशीलमिति शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः। महात्मा गौतमबुद्धः एतान् पञ्चापि सिद्धान्तान् पञ्चशीलमिति नाम्ना

स्वशिष्यान शास्ति स्म। अत एवायं शब्द: अधुनापि तथैव स्वीक़तः। इमे सिद्धान्ताः क्रमेण एवं सन्ति-

अहिंसा 2. सत्यम् 3. अस्तेयम् 4. अप्रमादः 5. ब्रह्मचर्यम् इति।

शब्दार्थ शिष्टाचारविषयका:-शिष्टाचार सम्बन्धी; एतान्-इनको नाम्ना-नाम से; शास्ति स्म-उपदेश देते थे; अधुनापि-अब भी;

तथैव-उस ही प्रकारा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत के ‘पञ्चशील सिद्धान्ताः’ पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद पंचशील शिष्टाचार से सम्बन्धित सिद्धान्त हैं। महात्मा गौतम बुद्ध पंचशील नामक इन पाँचों सिद्धान्तों का अपने शिष्यों को

उपदेश देते थे, इसलिए यह शब्द आज भी उसी रूप में स्वीकारा गया है। ये सिद्धान्त क्रमशः निम्न प्रकार हैं-


अहिंसा 2. सत्य 3 . चोरी न करना 4. प्रमाद न करना 5. ब्रह्मचर्य


बौद्धयुगे इमे सिद्धान्ता: वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ता आसन्। परमद्य इमे सिद्धान्ताः राष्ट्राणां

परस्परमैत्रीसहयोगकारणानि, विश्वबन्धुत्वस्य, विश्वशान्तेश्च साधनानि सन्ति। राष्ट्रनायकस्य श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशीलसिद्धान्तानधिकृत्य एवाभवत्। यतो हि उभावपि देशौ बौद्धधमें निष्ठावन्तौ। आधुनिके जगति पञ्चशीलसिद्धान्ता: नवीनं राजनैतिकं स्वरूपं गृहीतवन्तः। एवं च व्यवस्थिता:-


1 किमपि राष्ट्रं कस्यचनान्यस्य राष्ट्रस्य आन्तरिकेषु विषयेषु कीदृशमपि व्याघातं न करिष्यति।


2 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं प्रभुसत्तां प्रादेशिकीमखण्डताञ्च सम्मानयिष्यति।


3 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं समानतां व्यवहरिष्यति।


4 किमपि राष्ट्रमपरेण नाक्रस्यते।


5 सर्वाण्यपि राष्ट्राणि मिथ: स्वां स्वां प्रभुसत्तां शान्त्या रक्षिष्यन्ति।

विश्वस्य यानि राष्ट्राणि शान्तिमिच्छन्ति तानि इमान् नियमानङ्गीकृत्य परराष्ट्रैस्सार्द्ध स्वमैत्रीभावं दृढीकुर्वन्ति।


शब्दार्थ इमे-ये; वैयक्तिकजीवनस्य-व्यक्तिगत जीवन के आसन्-थे; परमद्य-किन्तु आज; विश्वशान्तेश्च-और विश्वशान्ति के;

साधनानि-साधन; अधिकृत्य-अधिकार करके या आधार पर; यतो हि-क्योंकि, निष्ठावन्तौ-आस्था रखने वाले, जगति-संसार में;

गृहीतवन्तः-धारण कर लिया है; कस्यचनान्यस्य-अन्य किसी के राष्ट्रस्य-राष्ट्र की; व्याघात-हस्तक्षेपः प्रादेशिकीमखण्डताञ्च-और

प्रादेशिक अखण्डता का; सर्वाण्यपि-सभी; मिथ:-परस्पर; परराष्ट्रैस्सार्द्धम-दूसरे राष्ट्रों के साथ; स्वमैत्रीभावं-अपने मैत्री भावों ।

को; दृढीकुर्वन्ति-दृढ़ करते हैं (मजबूत करते हैं।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद बौद्धकाल में ये सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के उत्थान के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, किन्तु आज ये सिद्धान्त राष्ट्रों की परस्पर मैत्री एवं सहयोग के कारण हिता तथा विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के साधन हैं। राष्ट्र के नायक श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के प्रधानमन्त्रित्व काल में पंचशील के सिद्धान्तों को

स्वीकार करके ही चीन देश के साथ भारत की मित्रता हुई थी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्र बौद्ध धर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। आधुनिक जगत् में पंचशील के सिद्धान्तों ने नव नीतिक स्वरूप धारण कर लिया है तथा वे इस प्रकार निश्चित किए गए है- ।


1 कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक विषयों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।


2 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर प्रभुसत्ता तथा प्रादेशिक अखण्डता का

सम्मान करेगा।

3 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर समानता का व्यवहार करेगा।


4 कोई भी राष्ट्र दूसरे (राष्ट्र) से आक्रान्त नहीं होगा।


5 सभी राष्ट्र अपनी-अपनी प्रभुसत्ता की शान्तिपूर्वक रक्षा

करेंगे। विश्य के जो भी राष्ट्र शान्ति की इच्छा रखते हैं, वे

इन नियमों को अंगीकार (स्वीकार) करके दूसरे राष्ट्रों के

साथ अपने मैत्री-भाव को दृढ़ करते हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित है।


1 पञ्चशीलं कीदृशाः सिद्धान्ताः सन्ति?

उत्तर पञ्चशीलं शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः सन्ति।

2 गौतमबुद्धः कान् सिद्धान्तान् शिक्षयत्?

उत्तर गौतमबुद्धः पञ्चशीलमिति नाम्नां सिद्धान्तान स्वशिष्यान शिक्षयत्।

3 महात्मनः गौतमबुद्धस्य पञ्चशीलसिद्धान्ता: के सन्ति? |

अथवा गौतमबुद्धस्य सिद्धान्ताः के आसन्?

अथवा पञ्चशील सिद्धान्ताः के आसन्? उत्तर अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति पञ्चशीलसिद्धान्ताः सन्ति ।

4 क्रमेण के पञ्चशीलसिद्धान्ताः भवन्ति।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः क्रमेण अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति भवन्ति।

5 गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् केषु सिद्धान्तेषु अशिक्षय?

उत्तर गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् अहिंसा, सत्यम, अस्तेयम्, अप्रमादः, बह्मचर्यं च ऐषु सिद्धान्तेषु अशिक्षयत्।

6 पञ्चशीलसिद्धान्ताः कस्मिन् युगे प्रयुक्ताः आसन्? ।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः बौद्धयुगे प्रयुक्ताः आसन्।

7 बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः कस्य हेतोः प्रयुक्ताः आसन्?

उत्तर बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय

प्रयुक्ताः आसन्।

8 के सिद्धान्ता: वैयक्तिक जीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः

आसन्?

उत्तर पञ्चशील-सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः आसन्।

9 वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं केषु निहितः अस्ति?

उत्तर वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं पञ्चशील-सिद्धान्तेषु निहितः ।

अस्ति ।

10 चीन भारतयोमैत्री कदा सम्भूता?

उत्तर चीन भारतयोमैत्री श्री जवाहरलाल महोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले सम्भूता।

11 चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री कान् सिद्धान्तानधिकृत्य

अभवत्?

उत्तर चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशील सिद्धान्तानिधकृत्य

अभवत्।

12 कौ देशौ बौद्धधर्मे निष्ठावन्तौ?

उत्तर चीनभारतदेशौ बौद्धधर्मे

7- महर्षि दयानन्दः (महर्षि दयानन्द) कक्षा 12

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे श्रीकर्षणतिवारीनाम्नो धनाढ्यस्य औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपत्नी शिवस्य पार्वतीव भाद्रपदमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक्रमाब्दे पुत्ररत्नमजनयत्।। जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्। त्रयोदशवर्ष प्राप्तवतेऽस्मै मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्। पितुराज्ञानुसारं मूलशङ्करः

सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्रौ शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि

मूषिकमेकमितस्तत: विचरन्तं दृष्ट्वा शङ्कितमानस: सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्कर्तुं हृदि निश्चितवान्। ततः

प्रभृत्येव शिवरात्रे: उत्सव: ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना श्रीमद्दयानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत्।।


शब्दार्थ सौराष्ट्रमान्-सौराष्ट्र प्रान्त में प्राग्रे गाँव में धनाढ्यस्म-धनिक की; औदीच्यविप्रवंशीयस्म् औदीच्य ब्राह्मण वंश के;

पार्वतीव-पार्वती की तरह; गुरुवास-गुरुवार को अजनय-जन्म दिया; जन्मत-जन्म से; दशमे दिने-दशवें दिन; इति-ऐसा;

बुद्धय-विचार कर, उपनय-यज्ञोपवीत; रात्र-रात्रि में विलोक्य-देखकर; मूषिकर-चूहा; इतस्तत-इधर-उधर; विवर-

घूमता हुआ; दृष्ट्वम्-देखकर; ह-िहृदय में ततः प्रभृत्येक-तब से लेकर ही; शिवरात्रे-शिव रात्रि का; नाम्ना-नाम से; मध्ये

बीच में।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘महर्षिर्दयानन्दः’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद सौराष्ट्र-प्रान्त के टंकारा नामक ग्राम में उत्तरी ब्राह्मणवंश के श्रीकर्षण तिवारी नामक धनसेठ की पत्नी ने, (भगवान) शिव की पत्नी पार्वती की भाँति विक्रम सम्वत् 1881 के भाद्रपद मास की नवमी तिथि, गुरुवार को मूल नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। ‘यह (भगवान) शिव को भजे’ ऐसा विचार कर पिता ने जन्म के दसवें दिन अपने पुत्र का नाम ‘मूलशंकर’ रखा तथा आठवें वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। तेरह वर्ष पूर्ण होने पर मूलशंकर को पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार मूलशंकर ने व्रत के समस्त विधान (पूर्ण) किए।

रात्रि में शिवालय में अपने पिता संग सबको सोया देख ये स्वयं जागे बैठे रहे तथा शिवलिंग पर एक चूहे को इधर-उधर घूमता देख इनका मन सशंकित हो उठा। (इन्होंने) सत्यम् शिवम्-सुन्दरम् लोक मंगलकारी (भगवान) शंकर का साक्षात्कार करने का हृदय में निश्चय किया। तभी से लेकर श्रीमान दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाजियों में शिवरात्रि का उत्सव ‘ऋषिबोधोत्सव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशेष महर्षि दयानन्द को ज्ञान प्राप्त होने को ‘ऋषिबोधोत्सव’ नाम से जाना जाता है।


2 यदा अयं षोडशवर्षदेशीयः आसीत् तदास्य कनीयसी भगिनी

विचिकया पञ्चत्वं गता। वर्षत्रयानन्तरमस्य पितृव्योऽपि दिवङ्गतः।

द्वयोरनयोः मृत्युं दृष्ट्वा आसीदस्य मनसि-कथमहं कथंवायं लोक:

मृत्युभयात् मुक्तः स्यादिति चिन्तयतः एवास्य हृदि सहसैव

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः। एकस्मिन् दिवसे अस्तङ्गते भगवति भास्वति मूलशङ्करः गृहमत्यजत्।

शब्दार्थ यदा-जब; अयं-यह षोडशवर्षदेशीयः-सोलह वर्ष के ।

आसीत्-थे; कनीयसी-छोटी; भगिनी-बहन; विचिकया-हैजे से;

द्वयोरनयो:-इन दोनों की; दृष्ट्वा -देखकर; मनसि-मन में; चिन्तयत:- सोचते हुए; हदि-हृदय में; सहसैव-अचानक ही, प्रदीप:-दीपक; प्रज्वलित:-जल उठा; एकस्मिन् दिवसे-एक दिन; भगवति भास्वति- भगवान सूर्य; गृहमत्यजत्-गृह-त्याग कर दिया। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद जब ये लगभग सोलह वर्ष के थे, (तब) इनकी छोटी बहन की मृत्यु हैजे से हो गई। तीन वर्षों के उपरान्त इनके चाचा भी स्वर्ग सिधार गए। इन दोनों की मृत्यु देख इनके मन में (प्रश्न) उठा कि मृत्यु के भय से कैसे मुझे और कैसे इस जग को मुक्ति मिल सकती है? ऐसा विचार करते हुए इनके हृदय में सहसा वैराग्य का दीपक जल उठा। एक दिन भगवान सूर्य के अस्त होने के उपरान्त

मूलशंकर ने घर त्याग दिया।


3 सप्तदशवर्षाणि यावत् अमरत्वप्राप्त्युपायं चिन्तयन् मूलशङ्करः ग्रामाद् ग्राम, नगरान्नगरं, वनाद् वनं, पर्वतात् पर्वतमभ्रमत् परं नाविन्दतातितरां तृप्तिम्। अनेकेभ्यो विद्वद्भ्यः व्याकरण-वेदान्तादीनि शास्त्राणि योगविद्याश्च अशिक्षत्। नर्मदातटे च पूर्णानन्दसरस्वतीनाम्न: संन्यासिनः सकाशात् संन्यासं गृहीतवान् ‘दयानन्दसरस्वती’ इति नाम च अङ्गीकृतवान्।

शालार्थ सप्तदशवर्षाणि-सत्रह वर्ष:यावत-तक: अमरत्व-अमरता

प्राप्त्युपायं-प्राप्ति के उपाय; चिन्तयन्-विचार करते हुए; अतितरां-

अधिक; विद्वद्भ्यः-विद्वानों से; अशिक्षत्-सीखी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद मूलशंकर सत्रह वर्ष तक अमरता प्राप्ति के उपाय पर विचार करते हुए गाँव-गाँव, शहर-शहर, वन-वन, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, किन्तु अधिक सन्तुष्टि नहीं पा सके। अनेक विद्वानों से व्याकरण, वेदान्त आदि शास्त्र तथा योग-विद्या सीखी। (इन्होंने) नर्मदा नदी के तट पर ‘पूर्णानन्द सरस्वती’ नाम के संन्यासी से

संन्यास ग्रहण कर ‘दयानन्द सरस्वती’ नाम अंगीकार किया।


4 क्रमेण च मथुरानगरादागतेभ्य: जनेभ्यः दण्डिविरजानन्दस्वामिनः पुण्यं यशः श्रावं-श्रावं सप्तदशैकोन-विंशतिशततमे वैक्रमाब्दे असौ भगवत: श्रीकृष्णस्य जन्मभुवं मथुरानगरीमगच्छत्। तत्र गुरुकल्पवृक्षं, वेदवेदाङ्गप्रवीणं, विलोचनमपि आगमलोचनं, साधुस्वभावं गुरुं विरजानन्दमभ्यगच्छत् भक्त्या प्रणम्य च विद्याध्ययनस्य औत्सुक्यं. न्यवेदयत्।

शब्दार्थ क्रमेण-क्रमशः; च-और; जनेभ्य:-मनुष्यों से; पुण्यं-पवित्र;

आवं-श्रावं-बार-बार सुनकर; जन्मभुवं-जन्मभूमि; अगच्छत्-गए;

तंत्र-वहाँ; गुरुकल्पवृक्षं-गुरुरूपी कल्पवृक्ष; विलोचनम-नेत्रहीन;

आगमलोचनम् -शास्त्र या ज्ञान रूपी नेत्रों वाले भक्त्या-भक्तिपूर्वक; प्रणम्य-प्रणाम करके, विद्याध्ययनस्य-विद्याध्ययन की; औत्सुक्यम्- उत्सुकता।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद और एक के बाद एक मथुरा नगर से आने वाले मनुष्यों से दण्डी विरजानन्द स्वामी की पावन कीर्ति को बार-बार सुनकर ये 1916 विक्रम संवत् में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी गए। वहाँ गुरुरूपी कल्पवृक्ष, वेद-वेदाङ्ग में प्रवीण आँखों से अन्धे होते हुए भी, ज्ञानरूपी आँखों वाले, साधु

स्वभाव वाले गुरु विरजानन्द के पास गए और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके विद्याध्ययन की इच्छा व्यक्त की।


5 गुरु: विरजानन्दोऽपि कुशाग्रबुद्धिमिमं दयानन्दं त्रीणि वर्षाणि यावत् पाणिनेः अष्टाध्यायीमन्यानि च शास्त्राणि अध्यापयामास। समाप्तविद्यः दयानन्दः परमया श्रद्धया गुरुमवदत्-भगवन् ! अहम् अकिञ्चनतया तनुमनोभ्यां समं केवलं लवङ्गजातमेव समानीतवानस्मि। अनुगृहणातु भवान् अङ्गीकृत्य मदीयामिमां गुरुदक्षिणाम्। ।

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिमिमं-तीव्र बुद्धिवाले; त्रीणि-तीन; वर्षाणि-वर्ष,

यावत-तक; अन्यानि च-और दूसरे; शास्त्राणि-शास्त्र; अध्यापयामास- अध्ययन कराया; श्रद्धया-श्रद्धा से; गुरुमवदत्-गुरु से कहा; । अकिञ्चनतया-धनहीन होने के कारण; तनमनोभ्यां-शरीर और मन; सम-साथ; लवङ्ग-लौग; समानीतवानस्मि-लाया हूँ: अनुग्रहणातु- अनुगृहीत करें; भवान् -आप; अङ्गीकृत्य-स्वीकार करके; मदीयाम-मेरी:

इमां-इस; गुरुदक्षिणाम्-गुरु-दक्षिणा को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु विरजानन्द ने भी इस कुशाग्रबुद्धि वाले दयानन्द को तीन वर्षों तक पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराया। विद्योपार्जन पूर्ण कर दयानन्द ने (अपने) परम श्रद्धेय गुरु से कहा, “भगवन! मैं दरिद्र होने के कारण (आपके लिए) तन-मन से मात्र कुछ लौंग लाया हूँ। आप मेरी इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत (कृतज्ञ) करें।”


6 प्रीत: गुरुस्तमभाषत-सौम्य! विदितवेदितव्योऽसि, नास्ति किमपि

अविदितं तव। अद्यत्वेऽस्माकं देश: अज्ञानान्धकारे निमग्नो वर्तते,

नार्यः अनाद्रियन्ते, शूद्राश्च तिरस्क्रियन्ते, अज्ञानिनः पाखण्डिनश्च

पूज्यन्ते। वेदसूर्योदयमन्तरा अज्ञानान्धकारं न गमिष्यति। स्वस्त्यस्तु ते, उन्नमय पतितान्, समुद्धर स्त्रीजाति, खण्डय पाखण्डम्, इत्येव

मेऽभिलाष: इयमेव च मे गुरुदक्षिणा।


शब्दार्थ प्रीत:-प्रसन्न होकर; अभाषत-कहा; अद्यत्वे-आजकल;

अस्माकं-हमारे; निमग्नो-डूबा; वर्तते-है; नार्य:-स्त्रियों का;

अनाद्रियन्ते-अपमान किया जाता है; शूद्राश्च-और शूद्रों का;

तिरस्क्रियन्ते-तिरस्कार किया जाता है; अज्ञानिन:-मूर्ख पाखण्डिनश्च- और पाखण्डी; पूज्यन्ते-पूजे जाते हैं; अन्तरा-बिना; स्वस्त्यस्तु ते-तुम्हारा कल्याण हो; उन्नमय-उठाओ; पतितान्-पतितों को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, “सौम्य! तुम जानने योग्य (सभी) बातें जान चुके हो, अब तुम्हें कुछ भी अज्ञात नहीं। इन दिनों हमारा राष्ट्र अज्ञानरूपी अन्धकार में डूबा हुआ है, (आज यहाँ) नारियों का अनादर किया जाता है, शूद्र तिरस्कृत किए जाते हैं और अज्ञानी व पाखण्डी पूजे जाते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार बिना वेदरूपी सूर्य के उदित हुए दूर नहीं होगा। तुम्हारा कल्याण हो, पतितों को (ऊँचा) उठाओ, स्त्री-जाति का उद्धार करो, पाखण्ड का खण्डन (नाश) करो, यह मेरी अभिलाषा है और यही मेरी गुरुदक्षिणा है।” ।


7 .गुरुणा एवम् आज्ञप्त: महर्षिर्दयानन्दः एतद्देशवासिनो जनान्

उद्धर्तुं कर्मक्षेत्रेऽवतरत्। सर्वप्रथमं हरिद्वारे कुम्भपर्वणि

भागीरथीतटे पाखण्डखण्डिनीं पताकामस्थापयत्। ततश्च

हिमाद्रिं गत्वा त्रीणि वर्षाणि तप: अतप्यत्। तदनन्तरमयं

प्रतिपादितवान्- ऋग्यजुसामाथर्वाणो वेदाः नित्या ईश्वर

कृर्तृकाश्च, ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य-शूद्राणां गुण-कर्मस्वभावैः

विभागः न तु जन्मना, चत्वारः एव आश्रमाः, ईश्वरः एकः एव,

ब्रह्म-पितृ-देवातिथि-बलि-वैश्वदेवाः पञ्च महायज्ञा नित्यं

करणीयाः। ‘स्त्रीशूद्रौ वेदं नाधीयाताम्’ अस्य वाक्यस्य असारतां

प्रतिपाद्य सर्वेषां वेदाध्ययनाधिकार व्यवस्थापयत्। एवमयं

पाखण्डोन्मूलनाय वैदिक धर्मसंस्थापनाय च सर्वत्र भ्रमति स्म।

एवमार्यज्ञानमहादीपो देवो दयानन्दः यावज्जीवनं

देशजात्युद्धाराय प्रयतमानः तदर्थं स्वजीवनमपि दत्तवान्

मुक्तिञ्चाध्यगच्छत् एवमस्य महर्षेः जीवनं

नूनमनुकरणीयमस्ति।


शब्दार्थ गुरुण-गुरु से; एवम् इस प्रकार; आज्ञप्त:-आज्ञा ।

पाए हुए; उद्धर्तु-उद्धार करने के लिए; भागीरथीतटे-गंगा के

किनारे पर पाखण्डखण्डिनी-पाखण्ड का नाश करने वाली;

पताकाम्-ध्वजा को; हिमादि-हिमालय पर; गत्वा-जाकर;

सर्वत्र-सब जगह; भ्रमति स्म-घूमते रहे; महादीपो-महान् दीपक;

यावज्जीवन-जीवन-पर्यन्त प्रयतमानः-प्रयत्न करते हुए;

तदर्थ-उसके लिए; दत्तवान् दे दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त करके महर्षि दयानन्द इस देश के निवासी मनुष्यों के उद्धार के लिए कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। सर्वप्रथम हरिद्वार में कुम्भपर्व पर गंगा के किनारे पाखण्ड का नाश करने वाली पताका (ध्वजा) को स्थापित किया। उसके बाद हिमालय पर्वत पर जाकर तीन वर्ष तक तप किया।

इसके बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नित्य हैं और ईश्वर द्वारा रचित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन गुण, कर्म और प्रकृति के अनुरूप है, न कि जन्म से। आश्रम चार ही हैं। ईश्वर एक ही है। ब्रह्म, पितृ, देव, अतिथि तथा बलिवैश्वदेव ये पाँच महायज्ञ प्रतिदिन ही करने चाहिए। “स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ने चाहिए”-इस वाक्य की सारहीनता का प्रतिपादन करके सभी के लिए वेद को पढ़ने के अधिकार की व्यवस्था की। इस तरह ये पाखण्ड की समाप्ति के लिए और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए सब जगह घूमते रहे। इस प्रकार आर्य-ज्ञान के महान् दीप देव दयानन्द ने सम्पूर्ण जीवन देश और जाति के उद्धार के लिए कोशिश करते हुए उसके लिए अपना जीवन भी अर्पित कर दिया और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार इन महर्षि का जीवन निश्चित रूप से अनुकरणीय है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महर्षेः दयानन्दस्य जन्मः कस्मिन् स्थाने/ग्रामे अभवत?

अथवा महर्षेः दयानन्दस्य जन्मभूमिः कुत्र आसीतो.

अथवा मूलशङ्करस्य जन्म कुत्र अभव?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य जन्म सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे अभवत्।

महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम किम् आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम श्रीकर्षणतिवारी आसीत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् मासे अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म भाद्रपदमासे अभवत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् दिने नक्षत्रे च अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म गुरुवासरे मूलनक्षत्रे च अभवत्।

दयानन्दस्य जनकः ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कथं कृतवान्?

उत्तर ‘शिवं भजेत अयं’ इति विचार्यं दयानन्दस्य जनक: ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कृतवान्।

महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं किं नाम आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं मूलशङ्करः इति नाम आसीत्।

अष्टमे वर्षे कस्य उपनयनम् अभवत्?

उत्तर अष्टमे वर्षे दयानन्दस्य उपनयनम् अभवत्।

कस्मै पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्?

उत्तर मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्।

शिवरात्रेः व्रतं क: अकरोत्?

उत्तर शिवरात्रेः व्रतं मूलशङ्करः अकरोत्।

कस्य आज्ञानुसारं मूलशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्?

उत्तर पितुः आज्ञानुसारं मूलयशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्।

मूलशङ्करः कान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्?

उत्तर मूलशङ्करः सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्।

शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः किम् अचिन्तयत्?

उत्तर शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः लोकशङ्करं शङ्करं प्राप्तुम् अचिन्तयत्।

शिवरात्रेः उत्सव: केन नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्?

उत्तर शिवरात्रेः उत्सवः ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्।

दयानन्दस्य भगिनी कथं पञ्चत्वं गता?

उत्तर दयानन्दस्य भगिनी विषूचिकया पञ्चत्वं गता।

वर्षत्रयानन्तरं कस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गत:?

उत्तर वर्षत्रयानन्तरं मूलशङ्करस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गतः।

लोकः कस्मात् मुक्तः स्यात्?

उत्तर लोकः मृत्युभयात् मुक्तः स्यात्।

मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यं कथम् उत्पन्नम्?

उत्तर स्वभगिन्याः पितृव्यस्य च मृत्युं दृष्ट्वा मूलशङ्करस्य हृदयो

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

कस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः?

उत्तर दयानन्दस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

मूलशङ्करः गृहं कदा अत्यजत्?

उत्तर मूलशङ्करः अस्तङ्गते भगवति भास्वति गृहम् अत्यजत्।

मूलशङ्करः कति वर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रम?

उत्तर मूलशङ्करः सप्तदशवर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रमत्।

मूलशङ्कर: मथुरानगरं किमर्थम् अगच्छत्?

उत्तर मूलशङ्करः विरजानन्दस्य यशं श्रुत्वा मथुरानगरम् अगच्छत्।

महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः कः आसीत्?

अथवा विरजानन्दः कस्य गुरुः आसीत्?

‘उत्तर विरजानन्दः महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः आसीत्।।

कः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास।

विरजानन्दः कं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः दयानन्दं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास।

समाप्तविद्यः दयानन्दः कस्मै लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्?

उत्तर समाप्तविद्यः दयानन्दः गुरवे लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्।

दयानन्दः कीदृशः प्रदीपः प्रज्वलितः? ।

उत्तर दयानन्दः ज्ञानमयप्रदीपः प्रज्वलितः।

कतयः आश्रमाः सन्ति?

उत्तर चत्वारः आश्रमाः सन्ति।

कः एकः एव अस्ति?

उत्तर ईश्वरः एकः एव अस्ति।

कतयः महायज्ञाः नित्यं करणीया?

उत्तर पञ्च महायज्ञाः नित्यं करणीया।

महर्षिर्दयानन्दः कस्मै भ्रमति स्म?

‘उत्तर महर्षिर्दयानन्दः वैदिक-धर्म संस्थापनाय भ्रमति स्म।

9-महामना मदनमोहन मालवीय कक्षा-12


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्य भाषा व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्य पाठ व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिंदी में करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विन: मदनमोहनमालियासिस जन्म प्रयागे प्रतिष्ठित-परिवारेऽभवत। अस्य पिता पंडितवर्जनाथमालवीयः संस्कृतस्य सम्मानः विद्वान् आसीत्। अयं प्रयागे एव संस्कृतपाठशालाएँ राजकीयविद्यालये म्योर-सेण्ट महा महाविद्यालये च शिक्षा प्राप्ति अत्रैव राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरब्धवान्। युवक: मालवीय: स्वावलीन प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहय्स। अतः अस्य सुह्रदः तं प्राड्विवाकपदवी प्राप्य देशस्य श्रेष्ठतरं सेवां स्लुं अविवन्तः। तद् टाइपम अयं विधिपरीक्षामुत्तिरी

प्रयागस्थे उच्चन्यायालये प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स। चेतावनी: प्रकष्टज्ञानेन, मधुरालापेन, उदार वाक्यहारेन चायं

शीघ्रमेव मित्राणां न्यायाधीशानाञ्च सम्मानभभगमम्भवत्।

शब्दार्थ प्रयाग -प्रयाग में प्रतिष्ठित -सम्मानित सम्मान्यः -सम्माननीय प्राप्य -प्रकाश द्वारा, आरभवन -प्रारम्भ किया; अमोहयत् -मोह लिया: प्राविवपदन्थ -वकील की पदवी प्राविवाकमन -वकालत: वार्ता: -कानून के न्यायाधीशानाञ्च-और

न्यायाधीशों के


सन्दर्भ प्रस्तुत गद और हमारी पाठ्य-पुस्तक संस्कृत 'के' महामना मालवीयः 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित व्रजनाथ

मालवीय संस्कृत के मान्य विद्वान थे। में उन्होंने प्रयाग में ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय और म्योर-सेण्ट महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर यहीं राजकीय विद्यालय में अध्यापन प्रारम्भ किया। युवा मालवीय ने अपने प्रभावपूर्ण (ओजस्वी) भाषण से लोगों का मन मोह लिया। अतः उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें अधिवक्ता (वकील) की पदवी प्राप्त कर राष्ट्र की श्रेष्ठतम (सर्वोच्च) सेवा करने के लिए प्रेरित किया।

उसी के अनुसार वह विधि (कानून) की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग स्थित उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ कर दी। विधि के उत्कृष्ट

ज्ञान, मृदु बातचीत और (अपने) उदार व्यवहार से शीघ्र ही ये मित्र और न्यायाधीशों के सम्मान के पात्र बन गए।


2 महापुरुषा: लौकिक-प्रलोभनेषु बन्धः नियतलक्ष्यान्न कद अन्यं भ्रश्यन्। देशसेवानुरक्तोऽयं युवा उच्चन्यायालयस्य परिधौ

स्थातुं नाशम्। पंडित मोतीलाल नेहरू-लालाजपतरायप्रभज्ञानगरी: अन्यैः राष्ट्रनायकैः सह सोन्पि देशस्य स्वन्त्रतासङ्ग्रामेऽवतीर्णः। देहल्यां त्रयोविंशतितमे कागग्रेस वसधिवेशनेम्यम् अध्यक्षपदमलवान। रेटेडवान्। रोलट एक्ट '

इत्यादिवासी विरोधेजस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आङग्लशासका: भीता: जाता है। बहुवरं कारागारे निक्षपादोऽपि अयं वीर:

देशसेवावर्तं न नित्यजत


शब्दार्थ महापुरुषा: -महान् पुरुष, लौकिक -संसारिक प्रलोभनेषु -प्रलोभनों में (लालच में), बन्धः -बँधकर या फँसकर;

नियतलक्ष्यान्न -नियम (निश्चित) लक्ष्य से नहीं; अयंन्ति -विवर्तित होते हैं, देशसेवनुरक्तोदेशयंम् -देशसेवा में अनुरक्त यह;

परिधौ -सीमा में भीता: जाता है -भयभीत हो गए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महापुरुष सांसारिक प्रलोभनों में फँसकर निश्चित लक्ष्य से

कदापि विचलित नहीं होते। राष्ट्रसेवा में लीन यह युवक उच्च न्यायालय की सीमा में नहीं बँध गया। पंडित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय जैसे अन्य राष्ट्रनायकों सहित ये भी देश के स्वतन्त्रता संगमम में कूद पड़े। दिल्ली में कांग्रेस के तेईसवें अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। रोलट एक्ट के

विरोध में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज शासक भयभीत हो उठे। कई बार जेल जाने के पश्चात भी इस वीर ने राष्ट्रसेवा-व्रत का त्याग नहीं किया।


3 हिंदी-संस्कृताङ्ग्ल भाषासु अस्य समान: अधिकारः आसीत्।

हिंदी-हिन्दु-हिन्दुस्थानस्थानमुतथय अयं निरन्तरं प्रयत्नमकरोत्।

शिक्षायैव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति अत: श्रीमालवीयः

सनाहं काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य संस्थापनमकारोत् । अस्य

निर्माणाय अयं जनान् धनम् अयाचत् जनाश्च महित्यस्मिन् ज्ञानयज्ञे

प्रबन्ण धनम्स्मै प्रयच्छन्, तेन स्तोयं विशाल: विश्वविद्यालयः

भारतीयानां दानशीलतायाः श्रीमालवीय यशः च प्रतिमूर्तिरिव

विभाति। साधारण संगतिको ,षि जनः महतोत्साहेन, मनस्वितया,

पौरुषेण चतीयमपि कार्यं स्लुं संपः इत्यदर्शयत्

मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः। एतदर्थमेव जनास्तं महामना इत्युपधिना

अभिधातुमारब्धवन्तः।


शब्दार्थ उत्थानाय-उत्थान के लिए: अयं-इसने निरन्तर लगातार

शिक्षक-शिक्षा से ही; नवीन-नया; उदेती-उदय होता है। प्रम्बम्-

बहुत-सा, संभाव्य-दिया, प्रतिमूर्ति-और-सा:

साधारण स्थिति-को वालाधि-साधारण स्थिति वाला भी।

अभिधातुमारभधवन्त-सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद इन्हें हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। में वह, हिन्दू और हिन्दुस्तान के उत्थान के लिए निरन्तर प्रयत्न किया। शिक्षा से ही राष्ट्र और समाज में नव-प्रकाश का उदय होता है, इसलिए श्री मालवीय जी ने वाराणसी (बनारस) में काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके निर्माण के लिए उन्होंने लोगों से धन माँगा। यह महाज्ञान-यज्ञ में। लोगों ने उन्हें पर्याप्त धन दिया। उनकी रचना यह विशाल विश्वविद्यालय भारतीयों की दानशीलता और श्री मालवीय जी के यश (ख्याति) की प्रतिमूर्ति के रूप में शोभयमान है।


विद्वानों में श्रेष्ठ मालवीय जी ने यह दिखा दिया कि साधारण स्थिति वाला भी महान् उत्साह , विचारशीलता और पुरुषार्थ से असाधारण कार्य करने में सक्षम होता है, इसलिए लोगों ने उन्हें 'महामना' उपाधि से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया।


4 महामना विद्वान बाड़, धामिको नेता, पटुः पत्रकारश्चासीत्स। परमस्य सुगुण: जनसेवव आसीत्। यत्र कुत्र अन्य अयं जनंग दुःखितान पीड्यमानंश्चाप्यत् तत्रैव सः शीघ्रमेव उपस्थितः, सर्वविधं साहाय्य्च अकरोट। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासी। अद्यास्माकं मध्येऽनुपस्थितो महापि महामना मालवीयः स्वयशसोऽमूर्तरूपेण प्रकाशं वित्तरं अन्धे तमसि निमग्नान् जनगण सन्मार्ग दर्शयन् स्थान-स्थाने, जने-जने उपस्थित एव।


शब्दार्थ पटु-निपुण; जनसेवव-जन सेवा ही; कुरत स्थान-कहीं भी;

जनंग-मनुष्यों को पीड्यमानंग-पीड़ितों को तत्रैव-वहीं; अद्य-आज;

वितरन-बाँटते हुए; अन्धे-अंत अन्धकार में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महामना विद्वान् वक्ता, धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किन्तु जनसेवा ही इनका सर्वोच्च गुण था। ये जहाँ कहीं भी लोगों को दुःखी और पीड़ित देखते हैं, वहाँ शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा ही इनका स्वभाव था। आज हमारे बीच अनुपस्थित होकर भी महामना मालवीय

अमूर्तरूप से अपने यश का प्रकाश बाँटते हुए आंतरिक अन्धकार में डूबे हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाने वाले हुए स्थान-स्थान पर जन-जन में उपस्थित हैं।


5.जयन्ती ते महाभागा जन-सेवा-परायनाः।

जरामृत्युभयं नास्ति येषां कीर्तित्नो: क्वचित् ।।


शब्दार्थ जयन्ती-जय हो जन-सेवा-परायः-जन सेवा में देखो रहने

वाले, जरामृत्युभ-जरावस्था और मृत्यु का भय; नस्ति-नहीं है;

कीर्तितनो-यश रूपी शरीर को क्वचित्-कहीं भी।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक 'संस्कृत भाषदर्शिका' के 'महामना। मालवीय: 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद जन-सेवा में परायण (तत्पर) वे व्यक्ति (महापुरुष) जयशील होते हैं,। जिनके यश्रुपी शरीर को कहीं भी पुराना और मृत्यु का भय नहीं है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपना जीवन जनकल्याण के लिए। समर्पित कर देते हैं, उनकी कीर्ति मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाते हैं, जिसमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लेखन होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विनः मदनमोहनमाल कन्यास्य जन्म कुत्र अभवत्?

या मदनमोहनमालवीयस जन्म कुत्र अभवत्?

उत्तर मदनमोहनमालवीयस जन्म प्रयागनगरे अभवत्।

श्रीमालियासिस पितु: किं नाम आसीत्?

या महामना मालवीयः कस्य पुत्रः आसीत्?

उत्तर श्रीमालवीयस पितुः नाम पंडितवर्जनाथमालवीय: इति आसीत्।

मदनमोहनमालवीय: कुत्र अध्यापनम् आरभधवन?

उत्तर मदनमोहनमालवीय: राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरभधवन।

मालवीय: केन जनानन मनांसी अमोहय?

उत्तर मालवीय: प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहयत्।

मालवीय: काम् परीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: विधिपरीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त।

मालवीय: कुत्र प्राड्विवाक्रीमुन शूमारम्भ?

उत्तर मालवीय: प्रयागस्थे उच्चन्यायाल प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स।

मालवीय: कीन्द्रशः पुरुषः आसीत्?

उत्तर मालवीय: मधुरभाषी, उदार: पुरुष: च आसीत्।

मालवीय: कास्मिन् वर्षे काङग्रेसिस अध्यक्ष: अभवत्?

उत्तर मालवीय: त्रियोविंशतितमे वर्षे कागग्रेसस्य अध्यक्षः अभवत्।

मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा के भीता: जाता है?

उत्तर मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आशलशासका: भीता: जाता है।

मालवीय: कंस: कं न नजत्स?

उत्तर मालवीयः क्षेत्रः देशसेवावरतं न अत्यजत्।

कासु भाषासु मालवीयमहोदयस्य समानः अधिकारः आसीत्?

उत्तर हिंदी-संस्कृत-आङग्ल-भाषासु मालवीय अथस्य समान:। अधिकार: आसीत्।

मालवीयस कासु समानम् अधिकार: आसीत्?

उत्तर मालवीयस सर्वासु भाषासु समानम् अधिकारः आसीत्।

मालवीय: केशम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: हिंदी-हिंदूस्थानानम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त।

की एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति?

उत्तर शिक्षया एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति।

महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे कस्य विश्वविद्यालयस

संस्थापनमकरोट?

या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक: कः आसीत्? |

या श्रीमालवीय: कस्य विश्वविद्यालयवास स्थापनम् अकर्त?

उत्तर महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय संस्थापनमकरोट।

शिक्षाया: क्षेत्रे श्रीमालवीय: किमकरोट?

उत्तर शिक्षाया: कृते श्रीमालवीय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

संस्थापनमकरोट।

काशीविश्वविद्यालय: कस्य यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति?

उत्तर काशीविश्वविद्यालय: मालवीयस यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति।

जन: कागरी: असाधारणमपि कार्यं स्लुं ज्ञानः?

उत्तर जन: महता उत्साहेन, मनस्वितया, पौरुषेण चतीयमपि कार्य स्लुं सम्मः।

जना: तं केन उपाधिना अभिधातुमारभधवन्?

उत्तर जना: तं 'महामना' इति उपाधिना अभिधातुमारभध्वं।

श्रीमाल्यस्य चरित्रे कः सर्वोच्चगुणः आसीतु?

उत्तर श्रीमाल्यस्य चरित्रे सुपगुणः जन-सेवा आसीत्।

प्राणिसेवा कस्य स्वभाव: आसीत्?

उत्तर प्राणिसेवा मालवीयस स्वभाव: आसीत्।

5- जातक-कथा कक्षा-12

गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व श्लोक का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


उलूकजातकम्

अतीते प्रथमकल्पे जना: एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्त। सर्वाकारपरिपूर्ण पुरुष राजानमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एक सिंह राजानमकुर्वन्। ततः शकुनिगणा: हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च।

अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते

परस्परमवलोकयन्त: एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यवोचन्।

शब्दार्थ जातक-जन्म: जातक कथा-भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ बीते-बीते; प्रथा को -प्रथम कल्प में – मनुष्यों ने अभिल्य-विद्वान्; सौभाग्यशप्त-सौभाग्यशाली; चतपदा -चौपायों (जानवरों ने) ने गि-भी निगा – इकट्ठे होकर; शकुनिगणा:-पक्षीगण; हिमपत-प्रदेशे-हिमालय प्रदेश में पायाणे-चट्टान पर; मनष्य-मनुष्यों में प्रारक -जाना जाता है; तथा-उसी प्रकार; पूनः-फिर; अन्तरे-बीच में जराजको-बिना राजा के स्थापयिता-स्थापित करना चाहिए;

एकमुलूक-एक उल्लू को: दृष्ट्वा-देखकरा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ खण्ड से उद्धृत है।


अनवाद प्राचीनकाल में प्रथम युग के लोगों ने एक विद्वान सौभाग्यशाली एवं सर्वगुणसम्पन्न पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्ठे होकर एक शेर को (जंगल का) राजा बनाया। उसके बाद हिमालय प्रदेश में एक चट्टान पर एकत्र होकर पक्षीगणों ने कहा, “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। बिना राजा के रहना उचित नहीं। (हमें भी) एक को राजा के पद पर बिठाना चाहिए।” तत्पश्चात् उन सबने एक-दूसरे पर दृष्टि डालते हुए एक उल्लू को देखकर कहा, “हमें यह पसन्द है।” ।


2 अथैक: शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्व: अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’, अस्य एतस्मिन्

राज्याभिषेककाले एवं रूपं मुखं, क्रुद्धस्य च कीदृशं भविष्यति। अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिता: वयं तप्तकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला:

इव तत्र तत्रैव धङक्ष्यामः। ईदृशो राजा मह्यं न रोचते इत्याह-

न मे रोचते भद्रं व: उलूकस्याभिषेचनम्।

अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो, भविष्यति।।

स एवमुक्त्वा ‘मह्यं न रोचते’, ‘मह्यं न रोचते’ इति विरुवन् आकाशे उदपतत्। उलूकोऽपि उत्थाय एनमन्वधावत्। तत आरभ्य

तौ अन्योन्यवैरिणौ जातौ। शकुनयः अपि सुवर्णहंसं राजानं कृत्वा अगमन्।

शब्दार्थ अथ तत्पश्चात्, एक:-एक; शकनिः-पक्षी ने सर्वेषां सभी के

मध्यात्-बीच से; आशय-मत; गहणार्थ-जानने के लिए; त्रिकृत्व-तीन बार; अश्रावयत-सुनाया (घोषणा की); काक:-कौए ने उत्थाय- उठकर तिष्ठ-ठहरो: तावत-जरा राज्याभिषेककाले राज्य अभिषेक के समय: तप्तः-गर्म: कटाहे- कढ़ाई में प्रक्षिप्तास्तिला-डाले गए तिल; तत्रैक-वही; धडक्ष्याम:-जल जाएँगे; ईदृशो-ऐसा; महां-मुझे न रोचते अच्छा नहीं लगता नहीं, मे मुझे रोचते-अच्छा लगता है; उलूकस्याभिषेचनम् उल्लू का राज्याभिषेक: अकुद्धस्य-

क्रोधहीन का; पदेखो, क-कैसा; भविष्यति होगा; एवमुक्त्वा ऐसा कहकर; विरुवन-चिल्लाता हुआ; आकाशे-आकाश में उदपतन-उड़ गया; एनमन्वधावत्- उसका पीछा किया; तत-तब से; आरभ्य-लेकर; वैरिणौ जाती-शत्रु हो गए; शकुनयः-पक्षी; सुवर्णहंस-सुवर्ण हंस को; कृत्वा-बनाकर; अगमन-चले गए। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद तत्पश्चात् सबका विचार जानने के लिए एक पक्षी ने तीन बार सुनाया (घोषणा की) तब एक कौआ उठकर बोला, “थोडा ठहर, (जब) राज्याभिषेक के समय इसका ऐसा मुख है तो क्रोधित होने पर भला कैसा होगा! इसके क्रोधित होकर देखने पर

तो हम सब गर्म कड़ाही में डाले गए तिलों-सा जहाँ-के तहाँ जल जाएँगे। मुझे ऐसा राजा नहीं पसन्द।” इस प्रकार कहा-आप सभी के द्वारा इस उल्लू को राजा बनाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इस समय इसका मुख क्रोधहीन है, तब ही यह इतना विकत दिखाई दे रहा

है. तो क्रोध आने पर कैसा दिखाई देगा। ऐसा कहकर वह ‘मुझे नहीं पसन्द, मुझे नहीं पसन्द’, चिल्लाता हुआ आकाश में उड़

गया। उल्लू ने भी उसका पीछा किया। तभी से वे दोनों परस्पर शत्र बन गए। सुवर्ण हंस को राजा बनाकर पक्षीगण भी चल पड़े।


नृत्यजातकम्

3 अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदा: सिंह राजानमकुर्वन्। मत्स्या: आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुन: सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। सः तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराज: तस्यै वरं दत्त्वा हिमवति शकुनिसङ्के । संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन्

महति पाषाणतले संन्यपतन्। हंसराज: आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसङ्के अवलोकयन्ति मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं मे स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत्। मयूर: ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महत: शकुनिसङ्घस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंस: लज्जित:


‘अस्य नैव ह्रीः अस्ति न बर्हाणां समत्थाने लज्जा। नास्मै

गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ इत्यकथयत्।

हंसराजः तदैव परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय ।

दुहितरमददात्। मयूरो हंसपोतिकामप्राप्य लज्जित: तस्मात्

स्थानात् पलायितः। हंसराजोऽपि हृष्टमानस: स्वगृहम्

अगच्छत्।


शब्दार्थ चतुष्पदा:-चौपायों ने; मत्स्या:-मछलियों ने दहिता-

पुत्री; अतीक्-अधिक, रूपवती-सुन्दर; तस्यै-उसे (उसके लिए);

वरमदात्- वर दिया; आत्मनश्चित्तरुचितं-अपने मनपसन्द,

वृणुयात्-वरण करे; दत्त्वा-देकर; हिमवति-हिमालय पर;

शकुनिसड़धे-पक्षियों के समूह में संन्यपतत-उतरा, मणिवर्णग्रीवं-

नीलमणि के रंग की गर्दन वाले चित्रप्रेक्षणं- रंग-बिरंगे पंखों

वाले प्रतिच्छन्न-बिना ढका (नग्न): ही:-विनय: बर्हाणां-पंखों

को; गतत्रपाय-लज्जाहीन को; परिषन्मध्ये-सभा के बीच में;

भागिनेयाय- भांजे के लिए।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के

‘जातक-कथा पाठ के ‘नृत्यजातकम’ खण्ड से उदधत है।।


अनुवाद प्राचीनकाल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा

बनाया। मछलियों ने आनन्द मछली को तथा पक्षियों ने सुवर्ण हंस को। इस सुवर्ण हंस की पुत्री हंसपोतिका अति रूपवती थी। उसने उसे वर (अर्थात् अधिकार) दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करे। उसे वर देकर हंसराज पक्षियों के समूह में हिमालय पर उतरा। विविध प्रकार के हंस, मोर आदि पक्षी आकर एक विशाल चट्टान के तल पर एकत्र हो गए। हंसराज ने अपनी पुत्री को आदेश दिया कि वह आए और अपने मनपसन्द पति का वरण करे।

“यह मेरा स्वामी हो”-उसने (हंसपोतिका ने) पक्षी-समूह पर दृष्टि

डालते हुए मणि के रंग-सदृश गर्दन तथा रंग-बिरंगे पंखों वाले मोर को देखकर कहा। “आज भी तुम मेरी शक्ति को नहीं देखती” (अर्थात् अब तक तुम्हें मेरे पराक्रम का आभास नहीं है), यह कहकर मोर ने अति गर्व-सहित लज्जा को त्यागकर पक्षियों के उस विशाल समूह के मध्य नृत्य करना प्रारम्भ किया और नृत्य करते-करते नग्न हो गया। (यह देख) सुवर्ण राजहंस ने लज्जित होकर कहा, “इसे न तो संकोच (विनय) है और न पंखों को ऊपर करने में लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी बेटी नहीं दूंगा।” उसी सभा के मध्य हंसराज ने अपनी पुत्री अपने भांजे हंसपोत को दे दी। हंसपुत्री को न पाने पर मोर लज्जित होकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर चला गया।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


जना: एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर जनाः एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं पुरुषं राजानम् अकुर्वन्।

चतुष्पदाः कं राजानम् अकुर्वन?

उत्तर चतुष्पदाः एकं सिंह राजानमकुर्वन्।

शकुनिगणाः सन्निपत्य किम् व्यचारयन्?

उत्तर शकुनिगणाः सन्निपत्य व्यचारयन्-‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः।’ ।

के एकम् उलूकं राजानं कर्तं विचारम अकरोत?

उत्तर शकुनिगणा: एकम् उलूकं राजानं कर्तुं विचारम् अकरोत्।

काकस्योक्तिः किम् आसीत्?

उत्तर काकस्य उक्तिः आसीत् यत-ईदृशो राजा मध्यं न रोचते।

काकः कस्य विरोधम् अकुर्वन्?

उत्तर काकः उलूकस्य विरोधम् अकुर्वन्।

आकाशे कः उदपत?

उत्तर आकाशे काकः उदपतत्।

अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः कं राजानम् कुर्वन्?

उत्तर अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः एकं सिंह, राजानम् कुर्वन्।

काः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर मत्स्याः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कस्य दुहिता आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका सुवर्णराजहंसस्य दुहिता आसीत्।

अन्ते शकुनिगणाः कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर अन्ते शकुनिगणाः सुवर्णहंसं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कीदृशी आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत् ?

हंसराजः कस्यै वरम् अद्दात्?

उत्तर हंसराजः स्वदुहितायै वरम् अददात्।

का मयूरं पतिम् अचिनोत्?

उत्तर हंसपोतिका मूयरं पतिम् अचिनोत्।

कः शकुनिसधे नृत्यम् अकरोत्?

उत्तर मयूरः शकुनिसचे नृत्यम् अकरोत्।

कः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्?

उत्तर मयूरः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्।

हंसराज: कस्मै स्वदुहितरं न दास्यति।।

उत्तर हंसराजः गतत्रपाय स्वदुहितरं न दास्यति।

राजहंसः परिषन्मध्ये कस्मै दुहितरम् अद्दात्?

उत्तर राजहंसः परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।

राजहंसः कस्मै दुहितरम् अददात्?

उत्तर राजहंसः हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।।

हंसपोतकेन सह कस्याः विवाहः अभवत्?

उत्तर हंसपोतकेन सह हंसपोतिकायाः विवाहः अभवत्।

मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य कीदृशः अभवत्?

उत्तर मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य लज्जितः अभवत्।

परिषन्मध्यात् कः पलायित:?

उत्तर परिषन्मध्यात् मयूर: पलायितः।

हंसराजः हृष्टमानसः कुत्र अगच्छत्?

उत्तर हंसराजः हृष्टमानस: स्वगृहम् अगच्छत्।

8-सुभाषितरत्नानि कक्षा-12

सुभाषितानि

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

प्रश्नोत्तर केवल कला वर्ग के छात्रों/छात्राओं के लिए।

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा. दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।

तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।।


शब्दार्थ भाषासु-भाषाओं में, मुख्या-मुख्य, गीर्वाणभारती-देववाणी (संस्कृत); तस्या-उसका; तस्मादपि-उससे भी अधिक,सुभाषितम्-सुन्दर उक्ति।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद (सभी) भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियों) हैं।


2.

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।


शब्दार्थ- सुखार्थी-सुख चाहने वाला, विद्या-विद्या, विद्यार्थी-विद्या प्राप्त करने वाला, त्यजेत्-छोड़ देनी चाहिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या (पाने की चाह) त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।


3.

 जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।

स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।


शब्दार्थ- जल-बिन्दु-निपातेन-जल की बूंद गिरने से, क्रमश:-एक के बाद एक, पूर्यते-भर जाता है; घट:-घड़ा; हेतु:-कारण, सर्वविद्यानां- सभी विद्याओं का,धर्मस्य-धर्म का, धनस्य-धन का,च-और।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - बूँद-बूँद जल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।


4.

 काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।


शब्दार्थ- काव्यशास्त्र-विनोदेन-काव्य और शास्त्र की चर्चारूपी मनोरंजन से, काल:-समय, गच्छति-जाता है, व्यतीत होता है, धीमताम् -बुद्धिमानों का, व्यसनेन -बुरी बादत से, मूर्खाणां-मुखों का, निद्रया-नींद से, कलहेन -विवाद से, वा-अथवा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा-झंझट में (व्यतीत होता है)।


5.

 न चौरहार्यं न च राजहार्य

न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं

विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।


शब्दार्थ- चौरहार्य-चोर द्वारा चुराया जा सकता है, राजहार्य-राजा द्वारा छीना जा सकता है, भ्रातृभाज्यं- भाईयों द्वारा बाँटा जा सकता है, भारकारि- बोझ बनता है, व्यये-खर्च करने पर, वर्द्धते एव -बढ़ता है, नित्यं -प्रतिदिन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है। ।

•विशेष (i) शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’ ।

(ii) इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है

“सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।

ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात।।”


6.

 परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।


शब्दार्थ परोक्षे-पीठ पीछे कार्यहन्तारं -कार्य को नष्ट करने वाले,प्रत्यक्षे-सामने प्रियवादिनम् -प्रिय बोलने वाले को वर्जयेत् -त्याग देनाचाहिए, तादृशम् -वैसे ही; विषकुम्भम् -विष के घड़े को; पयोमुखम् -मुख में या ऊपरी हिस्से में दूधवाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पीठ पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।


7.

 उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।

सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।


शब्दार्थ- उदेति -उदित होता है सविता -सूर्य, ताम्र: -लाल, एव -ही,  अस्तमेति -अस्त होता है, सम्पत्तौ -सुख में, विपत्तौ -दुःख में, एकरूपता – समरूप या एक-जैसा होना।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (द:ख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दु:ख में हतोत्साहित। ।


8.

 विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।

खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।


शब्दार्थ- विवादाय-वाद-विवाद के लिए,  मदाय -घमण्ड के लिए, परेषां -दूसरों को, परिपीडनाय-कष्ट पहुँचाने के लिए,खलस्य –दुष्ट की, साधो: -सज्जन की, विपरीतमेत -इसके विपरीत, ज्ञानाय-ज्ञान के लिए, दानाय-दान के लिए,रक्षणाय-रक्षा के लिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद- दृष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।


9.

 सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।

वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।


शब्दार्थ- सहसा -बिना विचार किए,  विदधीत -करना चाहिए, क्रियाम् -कार्य को अविवेक/अज्ञान, परमापदां -घोर संकट, पदम् –स्थान, वृणुते -वरण करती हैं, विमृश्यकारिणं -विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का, गुणलुब्धाः –गुणों की लोभी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- बिना सोचे-विचारे (कोई भी) कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले (व्यक्ति) का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अब यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।


10.

 वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।।

लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।


शब्दार्थ- वज्रादपि -वज्र से भी,मृदूनि -कोमल, कुसुमादपि -फूल से भी;लोकोत्तराणाम् –अलौकिक व्यक्तियों के चेतांसि -चित्त को, विज्ञातुमर्हति -जान सकता है।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- असाधारण पुरुषों (अर्थात् महापुरुषों) के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को (भला) कौन जान सकता है?


11.

 प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स: पुत्रो

यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।

तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्

एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।


शब्दार्थ- प्रीणाति-प्रसन्न करता है; यः-जो, सुचरितैः -अच्छे आचरण से, तत्-वह; कलत्रम्-स्त्री,  मित्रम्-मित्र, आपदि-आपत्ति में, समक्रियम्-समान व्यवहार वाला, पुण्यकृतो-पुण्यवान् व्यक्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला) चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।


12.

 कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी

कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।

शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां

धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः॥


शब्दार्थ- कामान्-इच्छाओं को दुग्धे पूर्ण करती है,

विप्रकर्षत्यलक्ष्मीम् अलक्ष्मी को दूर करती है, सूते-जन्म देती है,  हिनस्ति-नष्ट करती है, मातर-माता, मङ्गलाना- मंगलों की, धेनुं-गाय, सूनताम-सत्य एवं प्रिय।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती (अर्थात् पूर्ण करती) है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति (अर्थात् यश) को जन्म देती है एवं पाप का नाश करती है। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली गाय बताया गया है।


13.

व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः

न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतय: संश्रयन्ते।

विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं

द्रवति च हिमरश्मावुद्गते: चन्द्रकान्तः।।


शब्दार्थ- व्यतिषजति-मिलाता है, आन्तर:-आन्तरिक, कोऽपि-कोई भी, हेतु:-कारण, बहिरुपाधीन्-बाह्य कारणों पर, संश्रयन्ते-आश्रित होता है, विकसति- खिलता है, पतङ्गस्योदय-सूर्य के उदय होने पर,

पुण्डरी- कमल, द्रवति-पिघलती है, हिमरश्मावदगते- चन्द्रमा के निकलने पर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती: जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती है।


14.

 निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मी माविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।


शब्दार्थ- निन्दत्-निन्दा करे, नीतिनिपणा-नीति में दक्ष की, स्तवन्त- स्तुति करे, यथेष्टम् - इच्छानुसार, अद्यै-आज ही, न्याय्यात्-न्यायोचित, पथ-मार्ग से प्रविचलन्-िडोलते हैं, पदम्-पगभर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। ।

इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।


15.

 ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।

सा योनि: सर्ववैराणां सा हि लोकस्य नितिः।।


शब्दार्थ- ऋषयः-ऋषियों ने, राक्षसीमाह-राक्षसी कहा है, वाचम्-वाणी,उन्मत्तदप्तयो-मतवाले और अहंकारी की,योनि-उत्पन्न करने वाली, सर्ववैराण-सभी प्रकार के बैरों को,लोकस्य-लोक की; निति-विपत्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी (लोगों) की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो सभी प्रकार के वैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति (का हेतु) होती है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न-सुखार्थिनः किं त्यजेत्?

उत्तर- सुखार्थिनः विद्यां त्यजेत्।

प्रश्न-विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्?

अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत्?

उत्तर- विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।

प्रश्न-केन क्रमशः घटः पूर्यते?

उत्तर- जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः घटः पूर्यते।

प्रश्न-स्तोकं-स्तोकं कृत्वा केषां संचय भवति?

उत्तर- स्तोकं स्तोकं कृत्वा विद्या, धर्म, धनं च एतेषां त्रयाणां संचयं भवति।

प्रश्न-धीमतां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।

प्रश्न-मूर्खाणां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न-विद्याधनं कथं सर्वधनप्रधानम् अस्ति?

उत्तर- विद्याधनं व्यये कृते वर्धते, अस्मात् कारणात् सर्वधनप्रधानम् अस्ति।

प्रश्न-सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?

उत्तर- सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।

प्रश्न- कीदृशं मित्रं त्यजेत्?

उत्तर- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् एतादृशं मित्रं त्यजेत्।।

प्रश्न-भानुः उदिते समये कीदृशं भवति?

उत्तर- भानुः उदिते समये ताम्रः भवति।

प्रश्न-खलस्य विद्या किमर्थं भवति?

उत्तर- खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न-सहसा किं न कुर्यात्?

उत्तर- सहसा कार्यं न कुर्यात्।

प्रश्न-अज्ञानं केषां पदम् अस्ति?

उत्तर- अज्ञानं परमापदां पदम् अस्ति।

प्रश्न-लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?

उत्तर- लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि    कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न-सुपुत्रः कः भवति?

उत्तर-यः सुचरितैः पितरं प्रीणाति, सः सुपुत्रः भवति।

प्रश्न- सुकलत्रं का भवति?

उत्तर- या भर्तुरेव हितम् इच्छति सा सुकलत्रं भवति।

प्रश्न-पुण्डरीकं कदा विकसति?

उत्तर- पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

प्रश्न-के न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति?

उत्तर - धीराः न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति।

प्रश्न-ऋषय: केषां वाचं राक्षसीम् आहुः?

उत्तर- ऋषयः उन्मत्तानां वाचं राक्षसीम् आहुः।

प्रश्न-लोकस्य निर्ऋतिः कः?

उत्तर-लोकस्य निर्ऋतिः राक्षसीमाहुः अस्ति।


अपने लक्ष्य पर ध्यान

♨️ आज का प्रेरक प्रसंग ♨️           ! अपने लक्ष्य पर ध्यान ! एक बार की बात है। एक तालाब में कई सारे मेढ़क रहते थे। उन मेढ़कों में एक राजा मेंढ...