8-सुभाषितरत्नानि कक्षा-12

सुभाषितानि

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

प्रश्नोत्तर केवल कला वर्ग के छात्रों/छात्राओं के लिए।

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा. दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।

तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।।


शब्दार्थ भाषासु-भाषाओं में, मुख्या-मुख्य, गीर्वाणभारती-देववाणी (संस्कृत); तस्या-उसका; तस्मादपि-उससे भी अधिक,सुभाषितम्-सुन्दर उक्ति।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद (सभी) भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियों) हैं।


2.

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।


शब्दार्थ- सुखार्थी-सुख चाहने वाला, विद्या-विद्या, विद्यार्थी-विद्या प्राप्त करने वाला, त्यजेत्-छोड़ देनी चाहिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या (पाने की चाह) त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।


3.

 जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।

स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।


शब्दार्थ- जल-बिन्दु-निपातेन-जल की बूंद गिरने से, क्रमश:-एक के बाद एक, पूर्यते-भर जाता है; घट:-घड़ा; हेतु:-कारण, सर्वविद्यानां- सभी विद्याओं का,धर्मस्य-धर्म का, धनस्य-धन का,च-और।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - बूँद-बूँद जल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।


4.

 काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।


शब्दार्थ- काव्यशास्त्र-विनोदेन-काव्य और शास्त्र की चर्चारूपी मनोरंजन से, काल:-समय, गच्छति-जाता है, व्यतीत होता है, धीमताम् -बुद्धिमानों का, व्यसनेन -बुरी बादत से, मूर्खाणां-मुखों का, निद्रया-नींद से, कलहेन -विवाद से, वा-अथवा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा-झंझट में (व्यतीत होता है)।


5.

 न चौरहार्यं न च राजहार्य

न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं

विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।


शब्दार्थ- चौरहार्य-चोर द्वारा चुराया जा सकता है, राजहार्य-राजा द्वारा छीना जा सकता है, भ्रातृभाज्यं- भाईयों द्वारा बाँटा जा सकता है, भारकारि- बोझ बनता है, व्यये-खर्च करने पर, वर्द्धते एव -बढ़ता है, नित्यं -प्रतिदिन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है। ।

•विशेष (i) शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’ ।

(ii) इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है

“सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।

ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात।।”


6.

 परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।


शब्दार्थ परोक्षे-पीठ पीछे कार्यहन्तारं -कार्य को नष्ट करने वाले,प्रत्यक्षे-सामने प्रियवादिनम् -प्रिय बोलने वाले को वर्जयेत् -त्याग देनाचाहिए, तादृशम् -वैसे ही; विषकुम्भम् -विष के घड़े को; पयोमुखम् -मुख में या ऊपरी हिस्से में दूधवाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पीठ पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।


7.

 उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।

सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।


शब्दार्थ- उदेति -उदित होता है सविता -सूर्य, ताम्र: -लाल, एव -ही,  अस्तमेति -अस्त होता है, सम्पत्तौ -सुख में, विपत्तौ -दुःख में, एकरूपता – समरूप या एक-जैसा होना।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (द:ख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दु:ख में हतोत्साहित। ।


8.

 विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।

खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।


शब्दार्थ- विवादाय-वाद-विवाद के लिए,  मदाय -घमण्ड के लिए, परेषां -दूसरों को, परिपीडनाय-कष्ट पहुँचाने के लिए,खलस्य –दुष्ट की, साधो: -सज्जन की, विपरीतमेत -इसके विपरीत, ज्ञानाय-ज्ञान के लिए, दानाय-दान के लिए,रक्षणाय-रक्षा के लिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद- दृष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।


9.

 सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।

वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।


शब्दार्थ- सहसा -बिना विचार किए,  विदधीत -करना चाहिए, क्रियाम् -कार्य को अविवेक/अज्ञान, परमापदां -घोर संकट, पदम् –स्थान, वृणुते -वरण करती हैं, विमृश्यकारिणं -विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का, गुणलुब्धाः –गुणों की लोभी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- बिना सोचे-विचारे (कोई भी) कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले (व्यक्ति) का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अब यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।


10.

 वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।।

लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।


शब्दार्थ- वज्रादपि -वज्र से भी,मृदूनि -कोमल, कुसुमादपि -फूल से भी;लोकोत्तराणाम् –अलौकिक व्यक्तियों के चेतांसि -चित्त को, विज्ञातुमर्हति -जान सकता है।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- असाधारण पुरुषों (अर्थात् महापुरुषों) के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को (भला) कौन जान सकता है?


11.

 प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स: पुत्रो

यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।

तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्

एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।


शब्दार्थ- प्रीणाति-प्रसन्न करता है; यः-जो, सुचरितैः -अच्छे आचरण से, तत्-वह; कलत्रम्-स्त्री,  मित्रम्-मित्र, आपदि-आपत्ति में, समक्रियम्-समान व्यवहार वाला, पुण्यकृतो-पुण्यवान् व्यक्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला) चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।


12.

 कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी

कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।

शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां

धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः॥


शब्दार्थ- कामान्-इच्छाओं को दुग्धे पूर्ण करती है,

विप्रकर्षत्यलक्ष्मीम् अलक्ष्मी को दूर करती है, सूते-जन्म देती है,  हिनस्ति-नष्ट करती है, मातर-माता, मङ्गलाना- मंगलों की, धेनुं-गाय, सूनताम-सत्य एवं प्रिय।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती (अर्थात् पूर्ण करती) है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति (अर्थात् यश) को जन्म देती है एवं पाप का नाश करती है। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली गाय बताया गया है।


13.

व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः

न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतय: संश्रयन्ते।

विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं

द्रवति च हिमरश्मावुद्गते: चन्द्रकान्तः।।


शब्दार्थ- व्यतिषजति-मिलाता है, आन्तर:-आन्तरिक, कोऽपि-कोई भी, हेतु:-कारण, बहिरुपाधीन्-बाह्य कारणों पर, संश्रयन्ते-आश्रित होता है, विकसति- खिलता है, पतङ्गस्योदय-सूर्य के उदय होने पर,

पुण्डरी- कमल, द्रवति-पिघलती है, हिमरश्मावदगते- चन्द्रमा के निकलने पर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती: जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती है।


14.

 निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मी माविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।


शब्दार्थ- निन्दत्-निन्दा करे, नीतिनिपणा-नीति में दक्ष की, स्तवन्त- स्तुति करे, यथेष्टम् - इच्छानुसार, अद्यै-आज ही, न्याय्यात्-न्यायोचित, पथ-मार्ग से प्रविचलन्-िडोलते हैं, पदम्-पगभर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। ।

इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।


15.

 ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।

सा योनि: सर्ववैराणां सा हि लोकस्य नितिः।।


शब्दार्थ- ऋषयः-ऋषियों ने, राक्षसीमाह-राक्षसी कहा है, वाचम्-वाणी,उन्मत्तदप्तयो-मतवाले और अहंकारी की,योनि-उत्पन्न करने वाली, सर्ववैराण-सभी प्रकार के बैरों को,लोकस्य-लोक की; निति-विपत्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी (लोगों) की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो सभी प्रकार के वैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति (का हेतु) होती है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न-सुखार्थिनः किं त्यजेत्?

उत्तर- सुखार्थिनः विद्यां त्यजेत्।

प्रश्न-विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्?

अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत्?

उत्तर- विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।

प्रश्न-केन क्रमशः घटः पूर्यते?

उत्तर- जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः घटः पूर्यते।

प्रश्न-स्तोकं-स्तोकं कृत्वा केषां संचय भवति?

उत्तर- स्तोकं स्तोकं कृत्वा विद्या, धर्म, धनं च एतेषां त्रयाणां संचयं भवति।

प्रश्न-धीमतां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।

प्रश्न-मूर्खाणां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न-विद्याधनं कथं सर्वधनप्रधानम् अस्ति?

उत्तर- विद्याधनं व्यये कृते वर्धते, अस्मात् कारणात् सर्वधनप्रधानम् अस्ति।

प्रश्न-सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?

उत्तर- सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।

प्रश्न- कीदृशं मित्रं त्यजेत्?

उत्तर- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् एतादृशं मित्रं त्यजेत्।।

प्रश्न-भानुः उदिते समये कीदृशं भवति?

उत्तर- भानुः उदिते समये ताम्रः भवति।

प्रश्न-खलस्य विद्या किमर्थं भवति?

उत्तर- खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न-सहसा किं न कुर्यात्?

उत्तर- सहसा कार्यं न कुर्यात्।

प्रश्न-अज्ञानं केषां पदम् अस्ति?

उत्तर- अज्ञानं परमापदां पदम् अस्ति।

प्रश्न-लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?

उत्तर- लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि    कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न-सुपुत्रः कः भवति?

उत्तर-यः सुचरितैः पितरं प्रीणाति, सः सुपुत्रः भवति।

प्रश्न- सुकलत्रं का भवति?

उत्तर- या भर्तुरेव हितम् इच्छति सा सुकलत्रं भवति।

प्रश्न-पुण्डरीकं कदा विकसति?

उत्तर- पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

प्रश्न-के न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति?

उत्तर - धीराः न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति।

प्रश्न-ऋषय: केषां वाचं राक्षसीम् आहुः?

उत्तर- ऋषयः उन्मत्तानां वाचं राक्षसीम् आहुः।

प्रश्न-लोकस्य निर्ऋतिः कः?

उत्तर-लोकस्य निर्ऋतिः राक्षसीमाहुः अस्ति।


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