कितनी बार और कब कब प्यार हुआ

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#प्रेम_कही_भी_पनप_जाता_है_बरसात_की_काई_की_तरह ...

मैं जब सिर्फ़ 6 या 7  साल का था तब मुझे पहला प्यार हुआ था , मुझे नहीं पता कि वो प्यार था या कुछ और था,क्योंकि मैं आज तक प्यार को समझ नहीं पाया हूं , परिभाषित नहीं कर पाया हूं , उसके पैमाने तय नहीं कर पाया हूं।
  
मगर इतना जरूर है कि उन दिनों बहुत अच्छा अच्छा सा लगता था और दुनिया की कोई भी ताकत कोई भी मजबूरी कोई भी परंपरा कोई भी नियम,कानून,विधि मुझे वो अच्छा सा महसूस करने से नहीं रोक सकती थी । कई सालों का साथ रहा मेरा और मेरे उस मुझसे भी नादान दोस्त का । वो मेरे पड़ोस में रहती थी। उसके पिता जी की एक छोटी सी दुकान थी,जिस पर से मैं अक्सर अपने चटोरेपन की चीजें लेता था।इसी बहाने उसके घर भी आना जाना होता था।मौका मिलते ही, अक्सर हम और वो मम्मी और पाप का खेल खेलते थे। जिसमे मेरा आफिस जाना,उसका खाना पकाना और बिस्तर पर एक साथ बिस्तर पर चद्दर ओढ़ कर सोना जैसे खेल में एक आकर्षण था, जो मुझे उसकी तरफ खिंचता था। आज तक भी मुझे उसकी सूरत याद है और ताउम्र रहेगी, आज भी उसकी याद आती है। मिलने का मन करता है।हां ये अलग बात है कि अब सामने आने पर मैं उसे पहचान भी न सकूं ,लेकिन प्यार तो बिना चेहरे ,बिना सूरत के भी होता है ....रहता है ।
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उम्र बढ़ी और एहसास भी बदले , भावनाएं उबाल मारने लगी, मैं हाईस्कूल में था, एक प्यार सुषमा सिंह से हुआ जो इलाहाबाद के के.पी. ग्लर्स कालेज में कक्षा 9 की छात्रा थी और दूसरा प्यार ननिहाल में उमरावती से हुआ।सुषमा का प्यार परवान चढ़ने से पहले ही पंडिताइन आंटी ने उसको कुर्बान कर दिया। उमरावती अब स्वर्गवासी हो चुकी है। उमरावती के बारे में सुनकर बड़ा कष्ट हुआ। लेकिन नियति के आगे सब विवश है। फ़िर प्यार हुआ दोस्तों के इश्क , उनकी मुहब्बत से ....अरे नहीं नहीं जी , उनकी प्रेयसी और प्रेमिकाओं से नहीं बल्कि प्यार हुआ उनकी दोस्ती , उनकी शिद्दत , उनकी मुहब्बत की पहल से ,इज़हार की हिम्मत,इंकार-इकरार की दुविधा से, और ये वो वक्त था जब सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने दोस्तों की दोस्ती ,इश्क के लिए ,हम अपनी पूरी ताकत , पूरा समय और पूरा ध्यान भी दे दिया करते थे । ये वक्त था इण्टर में पढ़ने का लेकिन उसी समय मेरी सहपाठी मंजुलता वर्मा से मुझे प्रेम हो गया। हम एक दुकानदार के माध्यम से पत्र व्यवहार करने लगे। शिवरात्रि का दिन था, चंदौली खुर्द के मंदिर पर उसने शिवलिंग में पड़ी माला उठा कर मेरे गले मे दाल दी, फलस्वरूप मैंने अपने गले की माला उतार कर उसके गले में डाल दी। उसी के बाद वो प्यार भी जाति और मजहब की भेंट चढ़ गया। शायद ग्रेजुएशन की परीक्षा तक यही हाल रहा , हालांकि, बाद में मुझे ये भी पता चला कि कई दोस्तों में ये एहसास इतना ज्यादा तीव्र था कि बात तभी उनके अभिभावकों तक पहुंच गई थी ,और वे इस बात पर दृढ थे इतने कि बहुत सालों बाद पता चला कि कम से कम चार पांच दोस्त और दोस्तनी को तो मैं जानता हूं जिन्होंने स्कूली दिनों की उस दोस्ती, इश्क को बाद में विवाह की मंज़िल तक पहुंचाया।
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हालांकि प्रेम का मकसद सिर्फ़ विवाह ,या इश्क की मंज़िल सिर्फ़ सहमति से एक साथ रहने का कोई करार ही मात्र होता है,इस बात को मुझे मानने में बहुत ज्यादा दिक्कत होती है । और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आजतक जितने भी शाश्वत प्रेम कहानियां सुनी हैं उन सबके किरदारों ने एक दूसरे के प्यार को पाने के लिए जिंदगी दांव पर लगा दी और जान जाने तक भी,
वे विवाह जैसा कुछ कर नही सके ..रांझे को तो सुना है कि हीर से विवाह करने के बाद भी उसका साथ नसीब नहीं हुआ ।

आज तक जितना मैं समझ पाया हूँ....महसुस कर पाया हूँ....कि प्रेम तो एक अद्भुत भावना का समुंद्र है जिसमें जो जितना समाता है, उतना ही अधिक आत्मिक सुख की प्राप्ति करता है।

प्रेम की परिभाषा हेतु शब्दों का कोष बेहद छोटा है क्योंकि इसके विस्तार की कोई सीमा ही नही है। प्रेम त्याग का पर्यायवाची है।
प्रेम को कितने भी प्रकार से वर्गीकृत या विभाजित कर लिया जाए किन्तु उसका मूल स्वरूप कदापि नहीं बदलता। प्रेम की मूल भावना दूसरों के प्रति जागरूक रहना एवं उनके सुख दुख में शामिल रहना ही तो है।

यदि प्रेम को साधारण शब्दों में व्याख्या करने का प्रयास करे  तो यह सामने वाले के दिल को छू जाने का असाधारण कार्य है, प्रेम इंसान के उन एहसासों का प्रदर्शन है जो उसे कोमलता, सुख और आनंद का अनुभव कराता है।

प्रेम की अभिव्यक्ति का कोई एक पैमाना हो ही नही सकता। यह जिसके द्वारा भी परोसा जाता है उसका अपना स्वयं का तरीका अलग होता है।  प्रेम का संदेश दिल से दिल के लिए होता है जो जब जिसके द्वारा जिसके लिए आता है वह उसको महसूस कर ही लेता है।

प्रेम एक अदृश्य आकर्षण है इसमें प्रेमी अपने प्रिय के लिए सब कुछ न्योछावर करने की इच्छा रखता है। प्रेम को हम वर्गीकृत नहीं कर सकते किन्तु  समझने की कोशिश अवश्य कर सकते हैं जैसे माता पिता का बच्चो के प्रति प्रेम त्याग है, दो मनो के बीच प्रेम एक दूसरे का साथ है, दो शरीरों के बीच प्रेम वासना है, प्रेम अपने राष्ट्र से हो तब यह राष्ट्रभक्ति कहलाता है जबकि ईश्वर के प्रति प्रेम आध्यात्म के नाम से जाना जाता है।,

खैर.... चलिए इस फ़िलासफ़ी को यहीं छोडा जाए ...........
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तो इसके बाद लडकपन से युवापने की ओर बढे ।और वाह क्या रुत और रुतबा होता है उस अल्हड तरूणाई के मौसम का ,वो गीत आपने सुना है न जवानी जिंदाबांद । सच में जवानी जिंदाबाद ही होती है और शायद इसीलिए यही वो समय भी होता है जब जवानी जिंदाबाद ही तय करती है कि आगे जीवन आबाद होने वाला है या बर्बाद । मगर कहते हैं न इश्क अंधा होता है ,उसे कहां दिखती हैं जिम्मेदारियां उसे कहां दिखती हैं बंदिशें , सामाजिक दीवारें ,मान्यताएं परंपराएं ,वो तो बस कहीं भी पनप जाता है बिल्कुल बरसात की काई की तरह और फ़िर तेज़ धूप में उधड कर गिर भी जाता है.......

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