सखी


साखी 
दोहा छंद में उचित साखी  में अधिकांश कबीरदास जी की शिक्षा सिध्दांतो का निरूपण हुआ है |

            बलिहारी गुरु आपणै, द्यौहाड़ी कै बार । 
            जिनि मानुष तै  देवता, करत न लागी बार।।1||

           सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
           लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावण हार।।2||

            दीपक  दीया तेल भरी, बाती दई अघट।
            पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौ हट ।।3||

           बूढ़े थे पर उभरे, गुरु की लहरि चमकि।
           भेरा देखें जरजरा, उतरि पड़े  फरंकि।।4||

          चिंता तौ हरि नाँव की, और न चिंता दास ।
         जो कुछ चितवै  राम बिन, सोई काल के पास ।।5||

            तूं  तूं  करता तूं भया, मुझे मैं रही हूं |
            बारी फेरी बलि  गई, जित देखौ तित तू।।6।।

           कबीरा सूता क्या करे, काहे न देखै जागि।
        जाके  संघ तै  बिछुड़ियां, ताहि के संग लागि।।7||

          केशव कहि कहि कूकिये , ना सोइयै असरार।
           रात दिवस के कुकनै , कबहूँ लगै पुकार।।8||

           लंबा  मारग दूरि घर, विकट पंथ बहु मार।
           कहौ संतौ क्यों पाइए,  दुर्लभ हरि दीदार।।9।।
          यहु तन जारौ मसि करौं, लिखौ राम को नाउँ।
         लेखणी करूं करंक की, लिखि लिखि राम पठाऊँ।।10||

         कै  बिरहिन  कूं मींच दे, कै  आपा  दिखलाइ।
         आठ पहर का दाझणा, मोपै सह्या   जाइ।।11||

           कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया न जाय।।
           नैनूं  रमइया  रमि रह्या, दूजा कहाँ  समाइ।।12||

            सायर नाहि सीप बिन, स्वाति बूंद भी नाहि |
           कबीरा मोती निपजै, शून्य शिषिर गढ़ माहि ||13 ||

          पाणी ही तैं हिम भया, हिम है गया बिलाइ |
         जो  कुछ था सोइ भया, अब कुछ कहा न जाइ ||14 || 

               पंखि उड़ाही गगन को, पिंड रहा परदेस |
              पाणी पीया चंच बिन ,भूल गया यहु देश||15||

             पिंजर प्रेम प्रकासिया,अंतरी भैया उजास |
            मुख्य कस्तूरी महमही, वाणी फूटी बास||16||

            नैना अंतरि आव तूंज्यूं हौं नैन झंपेऊँ |
           ना हौं  देखौं  और कूं , ना तुझे देखन देऊँ ||17 ||

          कबीरा हरि रस यों पिया, बाकी रही न थाकि |
          पाका कलश कुम्हार का, बहुरि ने चढ़ई चाकि ||18||

         हेरत-हेरत  हे  सखी, रहा कबीर हेराई |
        बूंद समानी समद  मैंसो कत हेरी  जाय ||19|| 

          कबीरा यह घर प्रेम काखाला का घर नाहि |
           सीस उतारै  हाथ धरि ,सो पैठे घर माहि ||20|| 

          जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं
         सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देख्या माही ||21||

पदावली 
                   दुल्हन  गावहुं  मंगलचार, 
               हम घरि आयो हो  राजाराम भरतार |
  तन  रति   करि मैं , मन रति करिहूँ पंचतत्व बराती ||
 रामदेव   मोरै  पांहुने  आए  मैं  जोबन  मतमाती ||
 शरीर  सरोवर  बेदी   करिहूँ,  ब्रम्हा   वेद   उधार||
रामदेव  संग  भांवरि  लैहूँ,  धनी  धनी  भाग हमार ||
सुर  तैतिसू  कौतिग  आये, मुनिवर सहस  अठायासी ||
कहै कबीर हमै ब्याहि चले है ,पुरूष एक अविनासी ||1||   

बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
मंगलाचार माँहि मन राखौं, राम रसाँइण रमना चाषौं।
मंदिर माँहि भयो उजियारा, ले सुती अपना पीव पियारा॥
मैं रनिवास जे निधि पाई, हमहिं कहाँ यह तुमहि बड़ाई |।
कहै कबीर मैं कछु न कीन्हाँ, सखी सुहाग मोहि दीन्हा॥2||

संतों भाई आई ज्ञान की आंधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बांधी रे ।।
दुचिते  की दोई  थूनी गिरानी, मोह बलींडा टूटा।
त्रिस्ना छानि परी घर ऊपरि, कुबुधि का भांडा फूटा।।
जोग जुगति करि संतौ, बांधी निरचू चुवै न पानी।
कूड़ कपट काया का निकस्या, हरि की गति जब जानी।।
आंधी पीछे जो जल बूढ़ा, प्रेम हरी जन भीनाँ।
कहै कबीर भाँन के प्रकटे उदित भया तम षीनाँ ।।3 ||


पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्यां दुनिया गति पावे, खांड कह्यां मुख मीठा।
पावक कह्यां पांव ते दाझै, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्यां भूष जे भाजै, तो सब कोई तिरि जाई।|
नर के संग सुवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै ।
जो कबहूं उड़ि जाय जंगल मैं, बहुरि न सुरतैं आनै।।
सांची प्रीति विषै माया सूं, हरि भगतनि सूं हांसी।
कहैं कबीर प्रेम नहिं उपज्यौ, बांध्यो जमपुर जासी।।4 ||

हम न मरैं, मरिहै संसारा।
हम कूं मिला जियावनहारा।।
अब न मरूँ मरनै मन माना। तेई मुए जिन राम न जाना।।
साकत मरैं संत जन जिवैं। भरि भरि राम रसायन पीवैं।।
हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।
कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा। 5 ||

काहे री नलिनी तू कुमिलानी।
तेरे ही नालि सरोवर पानी॥
जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहे 'कबीर जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान।|6  ||
                                     कबीर ग्रंथावली से


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