क्यों फिर सुलग उठी घाटी

कश्मीर घाटी एक बार फिर सुलग उठी है,  सेब के बागों से बारूदी गंध उठने लगी हैं और केसर की क्यारियों में इंसानों का लहू बहने लगा है। दहशत फैलाने वाले एक बार फिर आतंक का माहौल पैदा करने के लिए लोगों को चुन चुन कर मारने लगे हैं। पिछले 26 दिनों में टारगेट किलिंग की 9 घटनाएं हो चुकी हैं घाटी से कश्मीरी पंडित एक बार फिर पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं। लोगों के मन और मस्तिष्क में या आशंका है कि कहीं फिर से 1990 के दशक का हिंसक दौर न लौट आए। यह सब क्यों हो रहा है? और इससे निपटने के क्य उपाय हैं? इसे समझने के लिए अतीत के 49 दिनों की तरफ मोड़ना होगा जब 1990 के दशक में पाकिस्तान ने कश्मीर घाटी में आतंकी दौर को प्रायोजित किया था, तो उसके तीन लक्ष्य थे पहला, घाटी के माहौल को इतना बिगाड़ दो कि आम कश्मीरियों का दिल्ली की सरकार पर से बिल्कुल विश्वास हट जाए। दूसरा घाटी में 99 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी रहे और वहां अशांति बनी रहे। तीसरा लक्षण का यह था कि उस घाटी में 99 फ़ीसदी मुस्लिम आबादी हो जाएगी और वहां अशांति रहेगी तो दुनिया को बता सकेंगे कि कश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं रहना चाहते इन्हीं उद्देश्यों के तहत उसने कश्मीर में आतंकवाद के दौर को प्रोत्साहित किया था।
 खैर अब 30 साल बाद लगता है कि घड़ी की सुई फिर से उल्टी घूमने लगी है इतिहास अपने को दोहराने लगा है इसकी वजह यह है कि इस दौरान दिल्ली में जो सरकारें थी उन पर उस समय स्थानीय कश्मीरी नेताओं का दबाव था कि आप जिस तरह से कश्मीर की मदद करते हैं, वह करते रहिए तभी जनता आपके साथ आएगी।
   नोटबंदी , ईडी के छापों तथा धारा 370 को खत्म करने के बाद घाटी के स्थानीय नेताओं की कमाई खत्म हो गई है, इसीलिए कश्मीर के स्थानीय दलों के नेताओं ने धारा 370 को हटाने को एजेंडा बनाया है। पिछले 30 वर्षों से घाटी में जो हालात खराब हुए हैं, उसमें सिर्फ सीमा पर आतंकवादियों का हाथ नहीं रहा है बल्कि स्थानीय कश्मीरी नेता भी चाहते थे कि हालात खराब रहे ताकि उन्हें भारत सरकार की तरफ से पैसा मिलता रहे और ऐसा किसी एक पार्टी की सरकार ने नहीं बल्कि सभी सरकारों ने किया है। जम्मू कश्मीर में अशांति के पीछे पाकिस्तान का हाथ तो स्पष्ट ही रहा है चीन भी हमेशा से चाहता है कि भारत कश्मीर में उलझा रहे ताकि चीन जो लद्दाख क्षेत्र में कर रहा है उस पर ध्यान ना दे सके इसके अलावा चीन भारत की प्रगति से रिश्ता भी करता है इसीलिए चाहता है कि भारत में अशांति रहे।
कश्मीर में सरकार हालात सामान्य बनाना चाहती है ताकि वहां शांति हो सके लेकिन सूत्रों से पता चलता है कि आतंकवादियों का अंतरराष्ट्रीय गुट भी कश्मीर में सक्रिय हो चुका है जो स्थानीय आतंकवादियों के साथ मिलकर लोगों को मार रहा है।
 पिछले 30 वर्षों में जम्मू और कश्मीर में जो बच्चे पैदा हुए और बड़े हुए हैं। उन्होंने लड़ाई झगड़े और कर्फ्यू के सिवा कुछ देखा ही नहीं है। भले ही दिल्ली की सरकार का मानना हो कि कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने और चुनाव कराने से दुनिया को यह संदेश जाएगा कि कश्मीर में कोई शांति है। लेकिन यह सिर्फ दिल बहलाने की बातें हैं। सिर्फ चुनाव कराकर आप लोगों के दिलों को नहीं जी सकते आम आदमी को बुनियादी तौर पर रोटी कपड़ा और मकान चाहिए और अपने ढंग से रहने जीने घूमने की स्वतंत्रता के साथ सरकारी सुविधाएं लोगों को मिलेंगे तभी वे आतंकियों का सहयोग करना बंद करेंगे।
जहां तक कश्मीरी पंडितों की बात है तो उन्हें एक सुजीत केम बनाकर जम्मू के आसपास तथा गया था उन्हें भरोसा दिया गया था कि जैसे ही माहौल सुधरेगा उन्हें वापस घाटी में बसा दिया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जो कश्मीरी पंडित होशियार तथा आर्थिक रूप से संपन्न थे, उन्होंने राजनीतिक वर्ग पर भरोसा करने के बजाय अपना रोजगार शुरू किया सरकारी नौकरियां पकड़ी और जीवन में आगे बढ़ गए।
इतने वर्षों में सरकार को आतंकवादियों की हरकतों पर यंत्र पढ़ लेना चाहिए था अगर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है तो सरकार को कम से कम कश्मीरी पंडितों को यह बताना चाहिए कि हम आतंकवादियों से लड़ते रहेंगे और उनके कल्याण के लिए कार्यक्रम चलाएंगे कश्मीरी पंडितों को रिफ्यूजी कैंपों में रखने की बजाय जम्मू में अच्छी कालोनियां बनाकर उनको रहने के लिए तो दिया जा सकता था। साथ ही साथ घाटी के बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी के लिए भी स्कूल अस्पताल जैसी सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए ताकि उनके मन में ईर्ष्या का भाव पैदा ना हो।
इसके अलावा जिस तरह से परिसीमन में घाटी की सीटें कम की गई हैं और जम्मू की सीटें बढ़ाई गई हैं उससे तो घाटी के मुस्लिमों का गुस्सा ही पड़ेगा बेशक पहले शेख अब्दुल्ला ने भी 1980 के आसपास इसमें काफी छेड़छाड़ की थी और मुस्लिमों के अलावा बाकी सुविधाओं की उपेक्षा की गई थी। मौजूदा हालात में सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या आप घाटी में चुनाव जीतना चाहते हैं या वहां के माहौल को सामान्य बनाना चाहते हैं।

सुधार मांगती सिविल सेवा परीक्षा

देश की सर्वोच्च सिविल सेवाओं में भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग यानी यूपीएससी द्वारा आयोजित परीक्षा के परिणामों की ऐतिहासिकता इस बात में है कि आजादी के बाद पहली बार 3 महिलाओं ने टॉप किया है। देश की ज्यादातर अखिल भारतीय परीक्षाओं में महिलाओं का बेहतर प्रदर्शन इस देश के भविष्य के लिए शुभ संकेत है, लेकिन यह कहना अर्धसत्य होगा कि ये टॉपर ही सर्वश्रेष्ठ हैं। तीन चरणों में संपन्न होने वाली इस सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम में टॉप करने या अंतिम रहने में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता है। लगभग सभी अभ्यर्थी उतने ही मेघावी और मेहनती होते हैं। यहां तक कि जो कुछ नंबरों से जो भी जाते हैं उनकी भी क्षमताएं उतनी ही होती हैं। यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में इन्हें भी देश के दूसरे विभागों में लेने की चर्चाएं हो रही हैं लेकिन अभी तक इस विचार को लागू किया जाना बाकी है।
पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आते ही कुछ ऐसा चोर होने लगता है मानो उम्मीदवारों को ओलंपिक में कोई पदक मिल गया हो। हिना का महिमामंडन पहले से ही होता रहा है पिछली सदी के नौवें दशक तक इलाहाबाद कोलकाता और वाराणसी की प्रतिष्ठा आईएएस और आईपीएस में चुने जाने वाले उम्मीदवारों की वजह से ज्यादा होती थी। प्रयागराज को तो सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों का गढ़ माना जाता था इसीलिए उसे ऑक्सफोर्ड आफ ईस्ट भी कहते थे।
  आज उसकी जगह पिछले 20 वर्षों में जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय ने ले ली है इनमें शिक्षा तो बेहतर होती ही है उससे ज्यादा दिल्ली में उपलब्ध कोचिंग संस्थान पुस्तकालय आदि की सुविधाएं भी होती हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि जो भी इन सुविधाओं को हासिल कर लेगा वही सिकंदर है।
सवाल यह है कि क्या देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठ रही हैं? शायद नहीं । दरअसल आईआईटी और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षाएं भी उतनी ही कठिन है। कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तो आईआईटी की प्रवेश परीक्षा को और भी कठिन मानती हैं वहां से निकलने निकले 70 से 80 प्रतिशत छात्र या तो विदेश का रुख कर लेते हैं अथवा फ्लिपकार्ट ऐमजॉन आदि स्टार्टर के जरिए देश के विकास में और भी बेहतर योगदान देते हैं।
  आजादी के बाद सिविल सेवा में आने वाले अभ्यर्थियों की उम्र सीमा 19 से बढ़ाकर 21 वर्ष की गई। बाद में इसमें कुछ बढ़ोतरी की गई पिछली सदी के आठवें दशक तक यह उम्र सीमा पहले 24 फिर 26 वर्ष रही। पहली बार दौलत सिंह कोठारी ने 1979 में अधिकतम आयु 28 वर्ष की जिसे बीपी सिंह ने 1991 में पहले 30 वर्ष किया और उसके बाद यूपीए सरकार ने 2004 में 32 वर्ष किया। 1980 में सिविल सेवा परीक्षा देने के केवल 3 प्रयास निर्धारित किए गए थे। अब सामान्य विद्यार्थियों के लिए छह और कमजोर वर्गों के लिए असीमित अवसर हैं। यानी 21 वर्ष से लेकर 37 वर्ष तक 16 बार तक आप परीक्षा दे सकते हैं। क्या इस पद्धति में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा चुनने की गुंजाइश है? संभवतः नहीं। इसीलिए सिविल सेवा परीक्षा में कुछ सुधार की तुरंत जरूरत है सबसे पहले उम्र की सीमा 28 वर्ष तक ही सीमित की जाए और प्रयासों को भी 3 बार तक सीमित रखा जाए। हालांकि कमजोर वर्गों को कुछ रियायत दी जा सकती है एक और कमी पिछले दिनों लगातार सामने आई है वह है प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में वैज्ञानिक रूप से तालमेल का न होना। पिछले 10 वर्षों के परिणाम बताते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा एक लाटरी या दुख की बाजी की तरह हो गई है। प्रारंभिक सीसेट में लगातार फेल होने वाले छात्र अचानक ही टॉपर बन जाते हैं।
यूपीएससी की परीक्षा पद्धति की समीक्षा होनी चाहिए और एक निष्पक्ष परीक्षा पद्धति के निर्माण की आवश्यकता को पूर्ण किया जाना चाहिए।

क्रोनी कैपटलिज्म और भारतीय राजनीति



क्रोनी कैपिटलिज्म: अर्थ और उदाहरण

क्रोनी कैपिटलिज्म का अर्थ ऐसी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से है जिसमें एक बिज़नेस की सफलता बाजार की शक्तियों के द्वारा नहीं बल्कि राजनीतिक वर्ग और व्यापारी वर्ग के बीच सांठगांठ पर निर्भर करती है. इसमें सरकार ऐसी नीतियां बनाती है जिससे एक विशेष वर्ग को लाभ होता है और यह ‘लाभ कमाने वाला वर्ग’ भी सरकार को कुछ लाभ ट्रान्सफर करता रहता है.

एक कहावत है कि बिना ‘अर्थ के कोई तंत्र’ नहीं होता है. दुनिया में पूंजीवाद, साम्यवाद, समाजवाद और मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसी कई आर्थिक प्रणालियां हैं। इन सभी प्रणालियों में उत्पादन के चार कारक हैं; भूमि, श्रम, पूंजी और उद्यमी काम करते हैं।

उत्पादन का चौथा कारक अर्थात उद्यमी, दुनिया में कई औद्योगिक क्रांतियों के लिए जिम्मेदार है। किसी उद्यमी की सफलता काफी हद तक संबंधित देश की सरकार के राजनीतिक समर्थन पर निर्भर करती है। 

जैसे जैसे हम अधिक आर्थिक और तकनीकी विकास कर रहे हैं, आय असमानता दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। जिसका मुख्य कारण है राजनेताओं और उद्यमियों के बीच एक मजबूत सांठगांठ। इस सांठगांठ को ही क्रोनी कैपिटलिज्म कहा जाता है।

क्रोनी कैपिटलिज्म का अर्थ क्या है (Meaning of Crony Capitalism):-

ऑक्सफर्ड डिक्शनरी के अनुसार, क्रोनी का शाब्दिक अर्थ होता है 'अ क्लोज फ्रेंड ऑर कंपैनियन (करीबी दोस्त या सखा)'। यह शब्द ग्रीक भाषा के शब्द 'ख्रोनियोज' से बना है जिसका अर्थ होता है 'लंबे समय तक टिकने वाला'।

क्रोनी कैपिटलिज्म का अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जिसमें एक बिज़नेस की सफलता बाजार की शक्तियों के द्वारा नहीं बल्कि राजनीतिक वर्ग और व्यापारी वर्ग के बीच सांठगांठ पर निर्भर करती है। इसमें सरकार ऐसी नीतियां बनाती है जिससे एक विशेष वर्ग को लाभ होता है और यह लाभ कमाने वाला वर्ग भी सरकार को कुछ लाभ ट्रान्सफर करता रहता है।

एक व्यवसाय की सफलता; सरकार द्वारा सरकारी अनुदान देना, लचर कर संरचना, अपने पसंद के लोगों को टेंडर देना, व्यापारी वर्ग के हितों के लिए नीतियां बनाना, प्रतियोगिता को रोकना, नयी फार्मों के प्रवेश को रोकना, और अन्य तरह से व्यापारिक सहयोग शामिल है।

क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स (Crony Capitalism Index):-

यह सूचकांक इस बात की गणना करता है कि उद्योगों में कितनी आर्थिक गतिविधियां होती हैं जो कि क्रोनिज़्म से ग्रस्त हैं? क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स 2014 में जर्मनी सबसे साफ-सुथरा देश था, जहां देश का सिर्फ एक व्यापारी / अरबपति क्रोनियन क्षेत्रों से अपनी संपत्ति लाता था. दूसरी ओर, रूस सबसे खराब रैंक पर था, जहां देश का 18% धन देश के क्रोनी क्षेत्रों से आता था।


भारत को क्रोनी-कैपिटलिज्म इंडेक्स में 9वें स्थान पर रखा गया था, यहाँ देश की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3.4% हिस्सा क्रोनिज़्म क्षेत्र से आता था।

क्रोनी कैपिटलिज्म इंडेक्स 2016 में, रूस सबसे खराब दशा में था जिसके बाद मलेशिया को दूसरी रैंक, फिलीपींस को तीसरी रैंक पर और सिंगापुर को चौथी रैंक पर रखा गया था।

क्रोनी-कैपिटलिज्म के उदाहरण (Example of Crony Capitalism):-

इस उदाहरण में हम अपनी बाध्यताओं के कारण उन उद्योगपतियों के नाम नहीं बता रहे हैं जो कि भारत में क्रोनी-कैपिटलिज्म के कारण हाल ही में भारत के सबसे धनाढ्य लोगों में शामिल हुए हैं।


(अडानी ने क्या क्या खरीदा है )

भारत में कई कंपनियां हैं जो पिछले 6 सालों से भारी मुनाफा कमा रही हैं। ये कंपनियां राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे के नाम पर मोटी रकम दान कर रही हैं और बदले में राजनीतिक दल इन कंपनियों के मालिकों के लिए कई अनुकूल नीतियों और निविदाओं, कर छूट, सब्सिडी, और नए लाइसेंस पर रोक लगाकर इनका सपोर्ट कर रहे हैं।

यदि आप भारत के अरबपतियों की सूची देखें, तो उनमें से कुछ ने पिछले कुछ वर्षों में अपनी कुल संपत्ति में कई गुना वृद्धि की है और टॉप 10 अमीरों की सूची में जगह बना ली है। यह सब क्रोनी-कैपिटलिज्म का ही परिणाम है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट 2019, "पब्लिक गुड या प्राइवेट वेल्थ" शीर्षक से पता चला कि भारत के शीर्ष 10% अमीर कुल 77.4% राष्ट्रीय सम्पति के मालिक हैं. दूसरी तरफ भारत की निचले पायदान की 60% आबादी, राष्ट्रीय संपत्ति का केवल 4.8% रखती है।

इस क्रोनी-कैपिटलिज्म का ही परिणाम है कि भारत और दुनिया में अमीर व्यक्ति और अमीर और गरीब व्यक्ति और गरीब होता जा रहा है।
इसलिए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि क्रोनी कैपिटलिज़्म से देश और दुनिया की कुल संपत्ति केवल कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित होती जा रही है और 7.5 करोड़ आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी भूखे पेट सोने को मजबूर है।


दिमागी कसरत

            दिमाग़ी कसरत आपका सुबह का अखबार शुरू करने के लिए एक शानदार जगह है। सेंट लुइस यूनिवर्सिटी के जेरियाट्रिक मेडिसिन के एमडी और एमडी जॉन ई। मॉर्ले कहते हैं, "सुडोकू और वर्ड गेम्स जैसे सरल गेम अच्छे हैं, साथ ही कॉमिक स्ट्रिप्स भी हैं, जहां आपको ऐसी चीजें मिलती हैं, जो एक तस्वीर से दूसरी तस्वीर से अलग हैं।" द साइंस ऑफ स्टेइंग यंग के लेखक। शब्द खेलों के अलावा, डॉ। मॉर्ले आपके मानसिक कौशल को तेज करने के लिए निम्नलिखित अभ्यासों की सिफारिश करते हैं:

       अपने याद को परखें। एक सूची बनाएं - किराने की वस्तुओं, करने के लिए चीजें, या कुछ और जो मन में आता है - और इसे याद रखें। एक या एक घंटे बाद, देखें कि आप कितने आइटमों को वापस बुला सकते हैं। सबसे बड़ी मानसिक उत्तेजना के लिए यथासंभव चुनौतीपूर्ण सूची में आइटम बनाएं।
        चलो गाना बजाओ। एक संगीत वाद्ययंत्र बजाना या गाना बजानेवालों में शामिल होना सीखें। अध्ययनों से पता चलता है कि लंबी अवधि में कुछ नया और जटिल सीखना उम्रदराज दिमाग के लिए आदर्श है।
     अपने मस्तिष्क में गणित करो। पेंसिल, कागज, या कंप्यूटर की सहायता के बिना समस्याओं का पता लगाना; आप इसे और अधिक कठिन बना सकते हैं - और एथलेटिक - एक ही समय में चलने से।
        कुकिंग क्लास लें। जानें कि कैसे एक नया खाना बनाना है। खाना पकाने में कई इंद्रियों का उपयोग होता है: गंध, स्पर्श, दृष्टि और स्वाद , जो सभी मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों को शामिल करते हैं।
        एक विदेशी भाषा सीखो। इसमें शामिल सुनने और सुनने से मस्तिष्क उत्तेजित होता है। क्या अधिक है, एक समृद्ध शब्दावली को संज्ञानात्मक गिरावट के लिए कम जोखिम से जोड़ा गया है ।
       शब्द चित्र बनाएँ। अपने सिर में एक शब्द की वर्तनी की कल्पना करें, फिर उन दो अक्षरों के साथ शुरू होने वाले (या अंत) किसी भी अन्य शब्द को आज़माएं और सोचें।
       स्मृति से एक नक्शा खींचें। एक नए स्थान पर जाने से घर लौटने के बाद, क्षेत्र का नक्शा खींचने का प्रयास करें; हर बार जब आप किसी नए स्थान पर जाते हैं तो इस अभ्यास को दोहराएं।
        चुनौती अपने स्वाद कलियों। भोजन करते समय, सूक्ष्म जड़ी बूटियों और मसालों सहित अपने भोजन में व्यक्तिगत सामग्रियों की पहचान करने का प्रयास करें।
       अपनी हाथ की आंखों की क्षमताओं को निखारें। एक नया शौक लें, जिसमें ठीक मोटर कौशल शामिल हो, जैसे बुनाई, ड्राइंग, पेंटिंग, एक पहेली को इकट्ठा करना, आदि।
      एक नया खेल सीखें। एक एथलेटिक व्यायाम करना शुरू करें, जो मन और शरीर दोनों का उपयोग करता है , जैसे कि योग, गोल्फ, या टेनिस।
         जल्द ही लोगों को एहसास होगा कि वे अपने दिमाग को स्वस्थ रखने के लिए कदम उठा सकते हैं, जैसा कि वे जानते हैं कि वे कुछ कार्यों को करने से दिल की बीमारी को रोक सकते हैं, ऐसा जेंडर कहता है। "आने वाले दशक में, मैं मस्तिष्क के स्वस्थ होने का अनुमान लगाता हूँ कि यह हृदय स्वास्थ्य के साथ ठीक है - अब इसका प्रमाण है कि मस्तिष्क-स्वस्थ जीवन शैली काम करती है!"
1-जितना ज़्यादा हो सके पढ़ें: पढ़ना बेहद बुनियादी क़िस्म की एक शानदार मानसिक एक्सरसाइज़ है। आप अखबार, मैगज़ीन या किताबें पढ़ सकते हैं, लेकिन याद रखें, पाठ जितना कठिन और चुनौतीपूर्ण होगा, आपके दिमाग की कसरत उतनी ही तगड़ी होगी। किसी भी एक्सरसाइज़ की तरह, कम मात्रा से शुरुआत करें और धीरे-धीरे ज़्यादा से ज़्यादा के लिए संघर्ष करें।
2-शब्द-ज्ञान बढ़ाइए: हर दिन नया शब्द याद दिलाने वाले किसी कैलेंडर या डिक्शनरी से शब्द सीखें। यह आपके मस्तिष्क में भाषा वाले क्षेत्र की मशक्कत कराते हुए उसे ऊर्जावान बनाए रखता है।
3-रोज़ कुछ लिखें: लेखन काफ़ी सोच-विचार की माँग करता है! आप कहानियाँ गढ़ सकते हैं, अपने साथ गुजरी हुई घटनाओं को लिख सकते हैं, या जिन चीजों को आप जानते और पसंद करते हैं।
4-नई भाषा सीखें: कोई नई भाषा सीखना मस्तिष्क के लिए तमाम नए रास्तों को खोलते हुए घुड़सवारी करने जैसा है। मस्तिष्क के जिस हिस्से में भाषा संबंधी जानकारियाँ एकत्र होती हैं, यह उस क्षेत्र की पूरी एक्सरसाइज़ करा देता है, और आपको अपनी मातृभाषा को बोलने में भी बेहतर बना देता है।
5-समस्याओं पर पुनर्विचार: रोज़मर्रा के वाकयों में कोई घटना दूसरे किन-किन रूपों में हो सकती थी, उन संभावनाओं को ढूँढ़िए और उनके नतीज़ों का पता लगाइए। यह आपकी सृजनशीलता को बढ़ाएगा और समस्याओं को हल करने में और भी दक्ष बना देगा।

बेहतर दिमाग पाने के लिए गेम खेलना

(क) वर्ग पहेली (crosswords) और पज़ल्स रोज़ सुलझाएँ: क्रॉसवर्ड्स जैसी सरल पहेलियाँ दिमाग से कुछ बुनियादी किस्म का काम कराने में मदद कर सकती हैं। भाग-दौड़ भरी दिनचर्या में इन्हें आसानी से फिट किया जा सकता है। इनमें से कुछ तो आप मुफ्त ऑनलाइन भी पा सकते हैं।

(ख)ज़्यादा सिरखपाऊ पज़ल्स की ओर बढ़ें: लम्बे और जटिल पज़ल्स मस्तिष्क की तगड़ी मशक्कत कराते हैं। कभी-कभी तो ये कई दिन या हफ़्ते भी ले सकते हैं, लेकिन ये वाकई आज़माने लायक हैं। यहाँ तात्पर्य सिर्फ पारंपरिक अर्थों में कही जाने वाली पहेलियों से नहीं है। अगर आप महज़ टाइम-पास कर रहे हैं, तो दिमाग में गहराई तक खलबली मचा देने के लिए ज़रा जापानी पॉकेट पज़ल्स को हाथ लगाकर देखिये।

(ग) शतरंज खेलने की सोचिये: शतरंज अविश्वसनीय रूप से जहाँ स्ट्रेटेजिक गेम है, वहीं कौशल का भी खेल है। आपके दिमाग की कड़ी मशक्कत कराने में इसके कुछ पज़ल्स तो शतरंज से पार चली जाती हैं। सीखने और खेलने में शतरंज बेहद आसान है।

खुद को चैलेन्ज करना

1- अपने सबसे सक्रिय हाथ की अदला-बदली कीजिये: मस्तिष्क का वह भाग जो मांसपेशियों को नियंत्रित करता है, उसे उत्तेजित करने के लिए हाथों को अदल-बदल कर इस्तेमाल कीजिये। अगर दायें हाथ का उपयोग करते है, तो बाएं हाथ का प्रयोग करें, और फिर इसके उलट करें।
2-एक संगीत वाद्य बजाएं

3-लोगों से बातचीत कीजिये: लोगों से उन चीज़ों के बारे में बात कीजिये जिन्हें आप या वे जानते हैं। राजनीति, मज़हब, और दूसरे चुनौती भरे मुद्दों पर बातचीत (सचमुच की चर्चा-बहस, सिर्फ तर्क-कुतर्क नहीं) बुनियादी किस्म की शानदार दिमागी कसरत हो सकती है।
4-स्कूल की ओर लौट जाइए: स्कूल जाना दिमाग को दोबारा काम में लगाने का एक शानदार तरीका भी है, और ज़्यादा शिक्षा के फ़ायदे तो सरेआम ही हैं। बकायदा एक पूरी डिग्री लेने की जरूरत नहीं है। हो सकता है, आपका एम्प्लायर उन कक्षाओं का खर्च उठाना चाहता हो जो आपकी पेशेवर दक्षता को बढ़ाती हैं, वरना अपनी दिलचस्पी के किसी सब्जेक्ट में केवल एक क्लास भी ले सकते हैं।
5- मुफ़्त क्लास कीजिये: अगर आपके पास पैसा या वक्त नहीं है, यो ऑनलाइन फ्री क्लास भी मौजूद हैं। कई तो हार्वर्ड जैसी टॉप युनिवर्सिटियों से भी हैं। बिना कोई पैसा खर्च किये यूनिवर्सिटी के तज़ुर्बे के लिए कोर्सेरा (Coursera), खान एकेडमी (Khan Academy), या टेड टॉक्स (Ted Talks) को ज्वाइन कर लीजिये।
6- सीखे हुए कौशल को बार-बार इस्तेमाल करें: मांसपेशियों की तरह ही दिमाग के लिए भी “इस्तेमाल करो वरना खो दो (use it or lose it)" वाली कहावत लागू होती है। अपनी जानकारियों और कौशल का जितने ज़्यादा दिन उपयोग नहीं करेंगे, उतनी ही उनमें मोटी जंग लगेगी। अपने स्किल को तरोताज़ा और उपयोग के लिए तैयारशुदा रखने के लिए गणित हल करने जैसे बुनियादी कौशल (basic skills) अक्सर दोहराते रहिये।
7-एक नया शौक चुन लें: एक नया कौशल सीखना दिमागी कसरत का शानदार तरीका है। म्यूजिक, डांस, विजुअल आर्ट जैसे रचनात्मक कौशल दिमाग के अलग-अलग भागों की एक्सरसाइज़ करायेंगे और आपको अविश्वसनीय रूप से फायदा पहुँचायेंगे।
8-चीज़ें बनाएँ: चाहे एक रोबोट बनाएं या एक नयी बेंच, कोई चीज कैसे बनायी जाए (ख़ास करके बिना औजारों के शून्य सी दशा में) अपने दिमाग से इसका रास्ता निकालना एक ज़बरदस्त व्यायाम भी है। कुछ शुरुआती निर्माण कौशल जान लीजिये और फिर जेहन को व्यावहारिक रचनात्मक काम में झोंक दीजिये।
  सलाहव्यायाम करते वक्त, मस्तिष्क के गोलार्धों को उत्तेजित करने के लिए पीछे चलने की कोशिश कीजिये (सामान्य रूप से चलने की उल्टी दिशा में)।
अपनी देह को मेहनत करवाना याद रखें – एक स्वस्थ दिमाग स्वस्थ शरीर का परिणाम होता है। पर्याप्त मात्रा में शारीरिक व्यायाम करें।
कुछ चीज़ें नियमित रूप से करने की कोशिश कीजिये, जैसे हर दिन कुछ याद करना, हर रोज 15 मिनट रुबिक क्यूब का इस्तेमाल करना।
ढेर सारे प्रोग्राम हैं, जो याददाश्त बढ़ाने में आपकी मदद करेंगे। "ब्रेन एज (Brain Age)" या "बिग ब्रेन एकेडेमी (Big Brain Academy)" की सिफ़ारिश की जाती है। ये गेम ख़ास तौर से याददाश्त बढ़ाने के लिए बनाए गए हैं।
शरीर के हर अंग की तरह, दिमाग को भी आराम की जरूरत होती है। हकीकत में तो यह कभी बंद नहीं होता, लेकिन एक बिंदु पर फोकस करना, एकाग्रचित होना या मेडिटेशन करना आपके जेहन को सचमुच आराम दे सकता है, इससे दिमाग कुछ धीमा हो जाता है जो बाद में इसे और बेहतर ढंग से कार्य करने में मदद कर सकता है। हर दिन 10-15 मिनट ऑंखें बंद करके कोमल इंस्ट्रुमेंटल म्युज़िक सुनना बहुत राहत देता है।
हम जो बोलते हैं वह हमारी दिमागी विशेषताओं की झलक देता है, इसलिए बोलने से पहले सोचिये कि क्या बोलना चाहिए। यह बोलने में संतुलन रखने में मस्तिष्क की सहयता करेगा।
पर्याप्त मात्रा में पानी पियें।
कुछ भी करने में, बने-बनाए नियमों को न अपनाकर पहले इन्हें खुद हल करने की कोशिश कीजये, अपने नये खुद के नियम गढ़ने की कोशिश कीजिये।


प्रमोद कुमार सिंह (प्रवक्ता)

श्री शिवदान सिंह इण्टर कालेज

इगलास, अलीगढ़

गुरु रामानन्द और शिष्य कबीर की कथा


यकीन मानिए, आपने कभी ऐसा गुरु और शिष्य नहीं देखा होगा

बिना गुरु के ज्ञान और भगवान किसी की प्राप्ति नहीं होती। यह विचार जब संत कबीर के मन में आया तो उन्होंने एक पहुंचे हुए संत को गुरु बनाने का निर्णय लिया। लेकिन जात-पात और ऊंच-नीच के डर के कारण गुरु के पास दीक्षा लेने जा नहीं सकते थे। ऐसे में उन्होंने जो तरीका अपनाया वह हैरान करनेवाला है…


कबीर दासजी ने सोचा कि गुरु बनाए बिना काम बनेगा नहीं तो किसे गुरु बनाया जाए। उस समय काशी में रामानंद नाम के संत उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर दास जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती की कि “मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ” लेकिन उस समय जात-पात समाज में गहरी जड़े जमाए हुए था। उस पर भी काशी का माहौल, वहां पंडितो और पंडों का अधिक प्रभाव था। ऐसे में किसी ने कबीर दास की विनती पर ध्यान नहीं दिया। फिर कबीर दासजी ने देखा कि हर रोज सुबह तीन-चार बजे स्वामी रामानन्द खड़ाऊं पहनकर गंगा में स्नान करने जाते हैं। उनकी खड़ाऊं से टप-टप की आवाज जो आवाज आती थी, उसी को माध्यम बनाकर कबीरदास ने गुरु दीक्षा लेने की तरकीब सोची।

कबीर दासजी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में और सब जगह बाड़ (सूखी लकड़ी और झाड़ियों से रास्ता रोकना) कर दी। और जाने के लिए एक ही संकरा रास्ता रखा। सुबह तड़के जब तारों की झुरमुट होती है, अंधेरा और रोशनी मिला-जुला असर दिखा रहे होते हैं तब जैसे ही रामानंद जी गंगा स्नान के लिए निकले, कबीर दासजी उनके मार्ग में गंगा की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। जैसे ही रामानंद जी ने गंगा की सीढ़ियां उतरना शुरू किया, उनका पैर कबीर दासजी से टकरा गया और उनके मुंह से राम-राम के बोल निकले। कबीर जी का तो काम बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गए, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया। अब गुरु से दीक्षा लेने में बाकी ही क्या रहा!


कबीर दासजी नाचते, गाते, गुनगुनाते घर वापस आए। राम के नाम की और गुरुदेव के नाम की माला जपने लगे। प्रेमपूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते, साधना करते और उनका दिन यूं ही बीत जाता। जो भी उनसे मिलने पहुंचता वह उनके गुरु के प्रति समर्पण और राम नाम के जप से भाव-विभोर हो उठता। बात चलते-चलते काशी के पंडितों में पहुंच गई। पंडितों ने देखा कि यवन का पुत्र कबीर रामनाम जपता है, रामानंद के नाम का कीर्तन करता है! उस यवन को रामनाम की दीक्षा किसने दी? क्यों दी? गैर सनातनी को राम नाम का मंत्र देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया! गुस्साए पांडो ने कबीर से पूछा कि तुम्हे रामनाम की दीक्षा किसने दी? तो कबीर दास ने रामानंद जी का नाम लिया। उनसे पूछा कि कहां दी तो उन्होंने गंगा घाट बता दिया।

गुस्साए लोग रामानंदजी के पास पहुंचे और कहा कि आपने यवन को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया। गुरु महाराज! यह आपने क्या किया? रामानंदजी ने कहा कि ”मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।” लेकिन वह यवन जुलाहा तो रामानंग… रामानंद… मेरे गुरुदेव रामानंद की रट लगाकर नाचता है, इसका मतलब वह आपका नाम बदनाम करता है। तब कबीर दासजी को बुलाकर उनसे दीक्षा की सच्चाई के बारे में पूछा गया। वहां काशी के पंडित इकट्ठे हो गए। कबीर दासजी को बुलाया गया। रामानंदजी ने कबीर दास से पूछा ‘मैंने तुम्हे दीक्षा कब दी? मैं कब तुम्हारा गुरु बना?’
कबीर दास बोले, ‘महाराज! उस दिन प्रात: आपने मुझे पादुका का स्पर्श कराया और राममंत्र भी दिया, वहां गंगा के घाट पर।’ रामानंदजी को बहुत क्रोध आया और गरजकर बोले ‘मेरे सामने झूठ बोलते हो, मैंने कब तुम्हें दीक्षा दी?’

कबीर दासजी को एक झूठा और चालाक व्यक्ति जानकर उन्होंने सच बोलने के भय दिखाते हुए उन पर अपनी खड़ाऊं दे मारी। इस पर कबीर दास बोले, ‘गुरुदेव! तबकी दीक्षा झूठी तो अबकी तो सच्ची…! मुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया और सिर में आपकी पावन पादुका का स्पर्श भी हो गया।’ स्वामी रामानंदजी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर भीतर गोता लगाया, शांत हो गए। फिर सभा में उपस्थित सभी लोगों से कहा ‘चलो, यवन हो या कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है।’ इसने गुरु से दीक्षा पाने के लिए जो प्रयत्न किया है वह इसकी साफ नियत दिखाता है। इसके मन में कोई पाप नहीं। बस, इस तरह रामानंदजी ने कबीर दासजी को अपना शिष्य बना लिया।

लोकतंत्र का होता नाश

         एक साल पहले जब देश में कोरोना की पहली लहर उठी थी तब तब्लीग़ी जमात के काफी सारे लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए थे. यह तो याद होगा ही कि कैसे मीडिया ने इस मामले को उछाला था. 72 घंटे के भीतर देश के कोने-कोने से तब्लीगियों को ढूंढ ढूंढ कर निकाला गया. दिल्ली में मौजूद मरकज़ की इमारत से बसों में भरकर जमातियों को कोविड सेंटर भेजा गया था। सरकार ने इस पूरे मामले की कठोर निंदा की और कोरोना फैलाने के लिए तब्लीगियों को ज़िम्मेदार ठहराया। हिन्दू बनाम मुश्लिम का नारा भी खूब चला।

        कुंभ का दूसरा शाही स्नान हुआ। अनुमान है कि लगभग 21 लाख श्रद्धालुओं ने डुबकी लगाई। 2019 में हुए अर्ध कुंभ मेले में लगभग 5 करोड़ लोगों ने भाग लिया था।          

    इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि सोमवार को अमावस्या के अवसर पर हुए दूसरे शाही स्नान में करीब 28 लाख श्रद्धालु आए थे. स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, रविवार सुबह 11.30 बजे से सोमवार की शाम तक इनमें से 18,169 श्रद्धालुओं का कोविड टेस्ट किया गया, जिनमें से 102 कोरोना पॉज़िटिव पाए गए. आगे 

क्या होगा ईश्वर ही जाने क्योंकि सरकारें अंधी और बहरी हो गयी है।

        आज  दिनांक 23/04/2021  के दिन भारत में कोरोना के रिकॉर्ड 3.14 लाख नए केस आये, विश्व रिकॉर्ड टूटा। एक दिन में  सर्वाधिक नये कोरोना मामले . भारत ने पूरी दुनिया फिर झंडा लहरााया। WHO के अनुसार  R. O.  वैल्यू फिलहाल 1.32 है यानी 100 व्यक्ति औसतन 132 व्यक्तियों को कोरोना फैला रहे हैं. बड़ी बात नहीं है कि देश आने वाले दिनों में प्रतिदिन 2-3 लाख केस और 3-4 हज़ार मौतें देखे. 13/04/2021 तक भारत में लगभग 10 करोड़ लोगों को कोरोना की पहली वैक्सीन लगी थी. किसी भूल में मत रहिएगा- भारत में वैक्सीनेशन की रफ़्तार बेहद धीमी है. इस रफ़्तार से हम अगले 5 महीनों में 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन नहीं लगा पाएंगे, जिसका टारगेट खुद सरकार ने जुलाई के अंत तक रखा था.

       ऐसे में यह समझने में बहुत दिमाग की ज़रूरत नहीं है कि इतनी बड़ी संख्या में कुम्भ में लोगों का भाग लेना कितना ज़्यादा खतरनाक हो सकता है. यही साधु-संत और श्रद्धालु जब कोरोना लेकर वापस अपने गांव-शहर जाएंगे तो सोचिये देश में कितनी तबाही मच सकती है. कितने शहरों में हैल्थ सिस्टम कोलेप्स हो सकता है, कितने अस्पतालों में आईसीयू बेड्स, ऑक्सीजन, वेन्टिलेटर की कमी पड़ सकती है।

    इस लेख का मकसद यह बताना था कि मरकज के लोगों को बेवजह फंसाया गया? जी नहीं. सरकार और मीडिया ने तब्लीगी जमात का मसला उछाल कर ठीक किया था. जब पूरे विश्व में कोरोना कहर बरपा रहा था, देश में लॉकडाउन लगा था, तब वह लोग धर्म के नाम पर कोरोना फैला रहे थे. ऐसी गैर-ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव की भर्तसना होनी चाहिए और हुई भी. 

     पर वहीं चीज़ आज क्यों नहीं हो रही? यह तो समझाने की ज़रूरत नहीं है कि कुम्भ मेले में इतनी भीड़ हर तरीके से गलत है. इतनी भीड़ को मैनेज कोई भी राज्य नहीं कर सकता. फिर मीडिया और सरकार चुप रही ? सरकार ने 25 स्पेशल ट्रेनों का इंतज़ाम किया।

    जवाब बेहद आसान है. दिक्कत ना मुसलामानों में है, दिक्कत ना हिन्दुओं में. गलत उस समय जमाती भी थे, गलत आज साधू संत भी हैं. धार्मिक कट्टरता कुछ मुसलामानों में भी है, कुछ हिन्दुओं में भी है. धार्मिक कट्टरता एक साल पहले भी थी, आज भी है. बस फर्क यह है कि उस समय आपको गुमराह किया गया यह कहकर कि देखो भारत में कोरोना मुसलमानों ने फैलाया है. तब सरकार को अपनी नाकामियां छुपाने, और हमें बेवक़ूफ़ बनाने के लिए एक बढ़िया मुद्दा मिल गया था।

     क्या यह सब सिर्फ केंद्रीय सरकार पर लागू होता है ? देेश में अनेक राज्य सरकारों को यही सब करते देखा है। इस समय हिदुस्तान में बहुसंख्यक हिन्दू मर रहे है।

        लोकतंत्र के जिम्मेदार व्यक्तियों के द्वारा इस संकटकाल में इस तरह से धार्मिक सम्मेलनों का गैर ज़िम्मेदारी से आयोजन हो रहा होगा, राजनेता धड़ल्ले से चुनावी रैलियां कर रहे हैं, कोरोना काल में सभाओं में आने वाली भीड़ की संख्या का व्याख्यान , क्या उचित और क्या अनुचित?

       बहुसंख्यक हितों का हितैषी लोकतंत्र, जो आज इस देश में नहीं है. अस्पतालों में सामान्य सुविधाओं का अभाव, ऑक्सीजन का अभाव, श्मशान में लकड़ियों अभाव,कब्रिस्तान में जगह का अभाव।

  पिछले वर्ष से लेकर आज तक व्यवस्था की दयनीय हालत के चलते  कितने लोगों ने अपनी जान गंवाई और उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं ।

    क्या उस मीडिया से, जिसने आजतक देश के प्रधानमंत्री से एक अलिखित सवाल नहीं पूछा, क्या उनसे कुछ उम्मीद की जा सकती है? अपने 7 साल के कार्यकाल में मोदी ने आज तक एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं की, आपको लगता है वो आज प्रेस बुलाकर देश की जनता की शंकाओं को दूर करेंगे? बताएंगे कि देश ने पिछले 1 साल में कितने वेंटिलेटर, आईसीयू और ऑक्सीजन बेड्स बढ़ाए?  फिर क्यों कुम्भ मेले पर सरकार ने प्रतिबन्ध नहीं लगाया? असम,पश्चिमी बंगाल,केरल तमिलनाडु में सरकार को ऐसे वातावरण में चुनावी रैलियों की क्या आवश्यकता थी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की क्या आवश्यकता है?

          क्या आज हमारे सुप्रीम कोर्ट में इतनी ताकत है की वो कुम्भ मेले और चुनावी रैलियों पर प्रतिबन्ध लगा पाए? 

        क्या उस चुनाव आयोग से, जो अपनी ईवीएम तक नहीं संभाल पा रहा, उम्मीद की जा सकती है कि वो चुनावी रैलियों पर प्रतिबन्ध लगाएगा? या मास्क ना पहनने पर गृहमंत्री पर जुर्माना ठोकेगा?

         मुझे अच्छी तरह से याद है जब देश में कोयला 3G घोटाला हुआ था, या फिर निर्भया की घटना हुई थी, तब कैसे मीडिया ने सरकार को कटघरे में खड़ा किया था? कैसे प्रेस कांफ्रेंस और इंटरव्यू में मनमोहन सिंह पर सवालों की बौछार होती थी? क्या यह चीज़ आज हमारे प्रधानमंत्री या गृहमंत्री के साथ होने की कल्पना भी कर सकते है? याद करिये 1975 का वो समय, जब इलाहबाद हाईकोर्ट ने देश के प्रधानमंत्री का चुनाव परिणाम पलटते हुए उन्हें चुनावी कदाचार करने के लिए किसी भी पद पर रहने से प्रतिबंधित कर दिया था? याद करिये 1993 में टीएन शेषन को, जिन्होंने किसी का खौफ खाये बिना देश में चुनाव का हुलिया बदल कर रख दिया.

         यह सब क्या आज होना मुमकिन है? जवाब आपको भी पता है. मुमकिन नहीं है क्योंकि बड़े ही व्यवस्थित ढंग से एक-एक कर सारे संस्थानों को कॉम्प्रोमाइज कर दिया गया है. इन संस्थानों में अपने लोगों को लाया गया, विरोध करने वालों को किनारे किया गया, राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हर प्रकार के विरोध को दबाया गया।

         जब यह सब हो रहा था, तब आपमें से ज़्यादातर लोग चुप थे. शायद विकास का पहिया ऐसे ही आगे बढ़ेगा. उस पहिये की कोरोना के पहले ही दयनीय हालत थी, अब तो सोचने का भी मतलब नहीं है. कुछ को तो सही में लगता था कि देश मुसलामानों के कारण पीछे जा रहा है. आज जब इन्हीं लोगों में से कुछ बेहद कठिन परिस्थितियों से गुज़र रहे हैं, तब उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं है. आज जब यहीं लोग अस्पताल की लाइनों में जूझ रहे हैं, अपनों को मरते हुए देख रहे हैं, तब इनके दुख पर मरहम लगाने वाला कोई नहीं है. कल जब कुम्भ और चुनावी रैलियों के कारण आपके परिवार में किसी को कोरोना होगा और उसकी जान को खतरा हो जाएगा, तब किस पर चिल्लायेंगे? कल जब देश में त्राहि मचेगी, और आपके किसी अपने को इलाज के लिए अस्पताल में बेड नहीं मिलेगा, तब किसे बोलेंगे? कौन होगा आपको आवाज़ देने के लिए?

          जब तक आप सवाल पूछना नहीं शुरू करेंगे, जब तक आप हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद के चक्कर में बेवक़ूफ़ बनते रहेंगे, जब तक आप हमारी संस्थाओं के साथ चल रहे खिलवाड़ को लेकर चुप रहेंगे, तब तक ऐसे ही देश पीछे जाता रहेगा. कुछ लोग अभी भी यह सोचकर खुश हैं कि हमारे जीवन में तो कुछ फर्क नहीं पड़ रहा. शायद ना पड़ रहा हो. पर वक्त-वक्त की बात है, फर्क पड़ेगा. आज किसी और का टाइम आया है कल आपका टाइम भी आएगा. अभी किसानों के नाम पर रातों-रात बिल पास कराये जा रहे हैं, कल आपके नाम पर कराये जाएंगे. अभी किसी और की 21 साल की बेटी को देशद्रोह के नाम पर फर्जी केस में फंसा रहे हैं, कल आपके बच्चों को भी फसाएंगे. अभी फटी हुई जींस को लड़कियों के संस्कार से जोड़ रहे हैं, कल आपकी बेटी को घर से बाहर निकलने से भी रोकेंगे. अभी हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं, कल ब्राह्मण-दलित करेंगे। यह रुकने वाले नहीं हैं।इन्हें रोक सकने वाला हमारा लोकतंत्र हमारी ही आंखों के सामने खत्म किया जा रहा है।

       मानकर चलिएगा कि एक दिन आपकी भी बारी आएगी। तब लोकतंत्र नहीं होगा, आपको बचाने के लिए. समझ रहे है या अब भी नहीं?

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजज

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजी  अध्ययनों से पता चला है कि सफलता का सबसे अच्छा पूर्वानुमानकर्ता “दीर्घकालिक सोच” (Long-Term Thinking) है। जो ...