पिछले कुछ वर्षों से देखने में आ रहा है कि सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आते ही कुछ ऐसा चोर होने लगता है मानो उम्मीदवारों को ओलंपिक में कोई पदक मिल गया हो। हिना का महिमामंडन पहले से ही होता रहा है पिछली सदी के नौवें दशक तक इलाहाबाद कोलकाता और वाराणसी की प्रतिष्ठा आईएएस और आईपीएस में चुने जाने वाले उम्मीदवारों की वजह से ज्यादा होती थी। प्रयागराज को तो सिविल सेवा की तैयारी करने वाले छात्रों का गढ़ माना जाता था इसीलिए उसे ऑक्सफोर्ड आफ ईस्ट भी कहते थे।
आज उसकी जगह पिछले 20 वर्षों में जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय ने ले ली है इनमें शिक्षा तो बेहतर होती ही है उससे ज्यादा दिल्ली में उपलब्ध कोचिंग संस्थान पुस्तकालय आदि की सुविधाएं भी होती हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि जो भी इन सुविधाओं को हासिल कर लेगा वही सिकंदर है।
सवाल यह है कि क्या देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं प्रशासनिक परीक्षाओं में बैठ रही हैं? शायद नहीं । दरअसल आईआईटी और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए होने वाली परीक्षाएं भी उतनी ही कठिन है। कुछ अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तो आईआईटी की प्रवेश परीक्षा को और भी कठिन मानती हैं वहां से निकलने निकले 70 से 80 प्रतिशत छात्र या तो विदेश का रुख कर लेते हैं अथवा फ्लिपकार्ट ऐमजॉन आदि स्टार्टर के जरिए देश के विकास में और भी बेहतर योगदान देते हैं।
आजादी के बाद सिविल सेवा में आने वाले अभ्यर्थियों की उम्र सीमा 19 से बढ़ाकर 21 वर्ष की गई। बाद में इसमें कुछ बढ़ोतरी की गई पिछली सदी के आठवें दशक तक यह उम्र सीमा पहले 24 फिर 26 वर्ष रही। पहली बार दौलत सिंह कोठारी ने 1979 में अधिकतम आयु 28 वर्ष की जिसे बीपी सिंह ने 1991 में पहले 30 वर्ष किया और उसके बाद यूपीए सरकार ने 2004 में 32 वर्ष किया। 1980 में सिविल सेवा परीक्षा देने के केवल 3 प्रयास निर्धारित किए गए थे। अब सामान्य विद्यार्थियों के लिए छह और कमजोर वर्गों के लिए असीमित अवसर हैं। यानी 21 वर्ष से लेकर 37 वर्ष तक 16 बार तक आप परीक्षा दे सकते हैं। क्या इस पद्धति में सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा चुनने की गुंजाइश है? संभवतः नहीं। इसीलिए सिविल सेवा परीक्षा में कुछ सुधार की तुरंत जरूरत है सबसे पहले उम्र की सीमा 28 वर्ष तक ही सीमित की जाए और प्रयासों को भी 3 बार तक सीमित रखा जाए। हालांकि कमजोर वर्गों को कुछ रियायत दी जा सकती है एक और कमी पिछले दिनों लगातार सामने आई है वह है प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में वैज्ञानिक रूप से तालमेल का न होना। पिछले 10 वर्षों के परिणाम बताते हैं कि प्रारंभिक परीक्षा एक लाटरी या दुख की बाजी की तरह हो गई है। प्रारंभिक सीसेट में लगातार फेल होने वाले छात्र अचानक ही टॉपर बन जाते हैं।
यूपीएससी की परीक्षा पद्धति की समीक्षा होनी चाहिए और एक निष्पक्ष परीक्षा पद्धति के निर्माण की आवश्यकता को पूर्ण किया जाना चाहिए।
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