7- महर्षि दयानन्दः (महर्षि दयानन्द) कक्षा 12

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे श्रीकर्षणतिवारीनाम्नो धनाढ्यस्य औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपत्नी शिवस्य पार्वतीव भाद्रपदमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक्रमाब्दे पुत्ररत्नमजनयत्।। जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्। त्रयोदशवर्ष प्राप्तवतेऽस्मै मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्। पितुराज्ञानुसारं मूलशङ्करः

सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्रौ शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि

मूषिकमेकमितस्तत: विचरन्तं दृष्ट्वा शङ्कितमानस: सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्कर्तुं हृदि निश्चितवान्। ततः

प्रभृत्येव शिवरात्रे: उत्सव: ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना श्रीमद्दयानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत्।।


शब्दार्थ सौराष्ट्रमान्-सौराष्ट्र प्रान्त में प्राग्रे गाँव में धनाढ्यस्म-धनिक की; औदीच्यविप्रवंशीयस्म् औदीच्य ब्राह्मण वंश के;

पार्वतीव-पार्वती की तरह; गुरुवास-गुरुवार को अजनय-जन्म दिया; जन्मत-जन्म से; दशमे दिने-दशवें दिन; इति-ऐसा;

बुद्धय-विचार कर, उपनय-यज्ञोपवीत; रात्र-रात्रि में विलोक्य-देखकर; मूषिकर-चूहा; इतस्तत-इधर-उधर; विवर-

घूमता हुआ; दृष्ट्वम्-देखकर; ह-िहृदय में ततः प्रभृत्येक-तब से लेकर ही; शिवरात्रे-शिव रात्रि का; नाम्ना-नाम से; मध्ये

बीच में।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘महर्षिर्दयानन्दः’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद सौराष्ट्र-प्रान्त के टंकारा नामक ग्राम में उत्तरी ब्राह्मणवंश के श्रीकर्षण तिवारी नामक धनसेठ की पत्नी ने, (भगवान) शिव की पत्नी पार्वती की भाँति विक्रम सम्वत् 1881 के भाद्रपद मास की नवमी तिथि, गुरुवार को मूल नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। ‘यह (भगवान) शिव को भजे’ ऐसा विचार कर पिता ने जन्म के दसवें दिन अपने पुत्र का नाम ‘मूलशंकर’ रखा तथा आठवें वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। तेरह वर्ष पूर्ण होने पर मूलशंकर को पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार मूलशंकर ने व्रत के समस्त विधान (पूर्ण) किए।

रात्रि में शिवालय में अपने पिता संग सबको सोया देख ये स्वयं जागे बैठे रहे तथा शिवलिंग पर एक चूहे को इधर-उधर घूमता देख इनका मन सशंकित हो उठा। (इन्होंने) सत्यम् शिवम्-सुन्दरम् लोक मंगलकारी (भगवान) शंकर का साक्षात्कार करने का हृदय में निश्चय किया। तभी से लेकर श्रीमान दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाजियों में शिवरात्रि का उत्सव ‘ऋषिबोधोत्सव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशेष महर्षि दयानन्द को ज्ञान प्राप्त होने को ‘ऋषिबोधोत्सव’ नाम से जाना जाता है।


2 यदा अयं षोडशवर्षदेशीयः आसीत् तदास्य कनीयसी भगिनी

विचिकया पञ्चत्वं गता। वर्षत्रयानन्तरमस्य पितृव्योऽपि दिवङ्गतः।

द्वयोरनयोः मृत्युं दृष्ट्वा आसीदस्य मनसि-कथमहं कथंवायं लोक:

मृत्युभयात् मुक्तः स्यादिति चिन्तयतः एवास्य हृदि सहसैव

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः। एकस्मिन् दिवसे अस्तङ्गते भगवति भास्वति मूलशङ्करः गृहमत्यजत्।

शब्दार्थ यदा-जब; अयं-यह षोडशवर्षदेशीयः-सोलह वर्ष के ।

आसीत्-थे; कनीयसी-छोटी; भगिनी-बहन; विचिकया-हैजे से;

द्वयोरनयो:-इन दोनों की; दृष्ट्वा -देखकर; मनसि-मन में; चिन्तयत:- सोचते हुए; हदि-हृदय में; सहसैव-अचानक ही, प्रदीप:-दीपक; प्रज्वलित:-जल उठा; एकस्मिन् दिवसे-एक दिन; भगवति भास्वति- भगवान सूर्य; गृहमत्यजत्-गृह-त्याग कर दिया। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद जब ये लगभग सोलह वर्ष के थे, (तब) इनकी छोटी बहन की मृत्यु हैजे से हो गई। तीन वर्षों के उपरान्त इनके चाचा भी स्वर्ग सिधार गए। इन दोनों की मृत्यु देख इनके मन में (प्रश्न) उठा कि मृत्यु के भय से कैसे मुझे और कैसे इस जग को मुक्ति मिल सकती है? ऐसा विचार करते हुए इनके हृदय में सहसा वैराग्य का दीपक जल उठा। एक दिन भगवान सूर्य के अस्त होने के उपरान्त

मूलशंकर ने घर त्याग दिया।


3 सप्तदशवर्षाणि यावत् अमरत्वप्राप्त्युपायं चिन्तयन् मूलशङ्करः ग्रामाद् ग्राम, नगरान्नगरं, वनाद् वनं, पर्वतात् पर्वतमभ्रमत् परं नाविन्दतातितरां तृप्तिम्। अनेकेभ्यो विद्वद्भ्यः व्याकरण-वेदान्तादीनि शास्त्राणि योगविद्याश्च अशिक्षत्। नर्मदातटे च पूर्णानन्दसरस्वतीनाम्न: संन्यासिनः सकाशात् संन्यासं गृहीतवान् ‘दयानन्दसरस्वती’ इति नाम च अङ्गीकृतवान्।

शालार्थ सप्तदशवर्षाणि-सत्रह वर्ष:यावत-तक: अमरत्व-अमरता

प्राप्त्युपायं-प्राप्ति के उपाय; चिन्तयन्-विचार करते हुए; अतितरां-

अधिक; विद्वद्भ्यः-विद्वानों से; अशिक्षत्-सीखी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद मूलशंकर सत्रह वर्ष तक अमरता प्राप्ति के उपाय पर विचार करते हुए गाँव-गाँव, शहर-शहर, वन-वन, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, किन्तु अधिक सन्तुष्टि नहीं पा सके। अनेक विद्वानों से व्याकरण, वेदान्त आदि शास्त्र तथा योग-विद्या सीखी। (इन्होंने) नर्मदा नदी के तट पर ‘पूर्णानन्द सरस्वती’ नाम के संन्यासी से

संन्यास ग्रहण कर ‘दयानन्द सरस्वती’ नाम अंगीकार किया।


4 क्रमेण च मथुरानगरादागतेभ्य: जनेभ्यः दण्डिविरजानन्दस्वामिनः पुण्यं यशः श्रावं-श्रावं सप्तदशैकोन-विंशतिशततमे वैक्रमाब्दे असौ भगवत: श्रीकृष्णस्य जन्मभुवं मथुरानगरीमगच्छत्। तत्र गुरुकल्पवृक्षं, वेदवेदाङ्गप्रवीणं, विलोचनमपि आगमलोचनं, साधुस्वभावं गुरुं विरजानन्दमभ्यगच्छत् भक्त्या प्रणम्य च विद्याध्ययनस्य औत्सुक्यं. न्यवेदयत्।

शब्दार्थ क्रमेण-क्रमशः; च-और; जनेभ्य:-मनुष्यों से; पुण्यं-पवित्र;

आवं-श्रावं-बार-बार सुनकर; जन्मभुवं-जन्मभूमि; अगच्छत्-गए;

तंत्र-वहाँ; गुरुकल्पवृक्षं-गुरुरूपी कल्पवृक्ष; विलोचनम-नेत्रहीन;

आगमलोचनम् -शास्त्र या ज्ञान रूपी नेत्रों वाले भक्त्या-भक्तिपूर्वक; प्रणम्य-प्रणाम करके, विद्याध्ययनस्य-विद्याध्ययन की; औत्सुक्यम्- उत्सुकता।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद और एक के बाद एक मथुरा नगर से आने वाले मनुष्यों से दण्डी विरजानन्द स्वामी की पावन कीर्ति को बार-बार सुनकर ये 1916 विक्रम संवत् में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी गए। वहाँ गुरुरूपी कल्पवृक्ष, वेद-वेदाङ्ग में प्रवीण आँखों से अन्धे होते हुए भी, ज्ञानरूपी आँखों वाले, साधु

स्वभाव वाले गुरु विरजानन्द के पास गए और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके विद्याध्ययन की इच्छा व्यक्त की।


5 गुरु: विरजानन्दोऽपि कुशाग्रबुद्धिमिमं दयानन्दं त्रीणि वर्षाणि यावत् पाणिनेः अष्टाध्यायीमन्यानि च शास्त्राणि अध्यापयामास। समाप्तविद्यः दयानन्दः परमया श्रद्धया गुरुमवदत्-भगवन् ! अहम् अकिञ्चनतया तनुमनोभ्यां समं केवलं लवङ्गजातमेव समानीतवानस्मि। अनुगृहणातु भवान् अङ्गीकृत्य मदीयामिमां गुरुदक्षिणाम्। ।

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिमिमं-तीव्र बुद्धिवाले; त्रीणि-तीन; वर्षाणि-वर्ष,

यावत-तक; अन्यानि च-और दूसरे; शास्त्राणि-शास्त्र; अध्यापयामास- अध्ययन कराया; श्रद्धया-श्रद्धा से; गुरुमवदत्-गुरु से कहा; । अकिञ्चनतया-धनहीन होने के कारण; तनमनोभ्यां-शरीर और मन; सम-साथ; लवङ्ग-लौग; समानीतवानस्मि-लाया हूँ: अनुग्रहणातु- अनुगृहीत करें; भवान् -आप; अङ्गीकृत्य-स्वीकार करके; मदीयाम-मेरी:

इमां-इस; गुरुदक्षिणाम्-गुरु-दक्षिणा को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु विरजानन्द ने भी इस कुशाग्रबुद्धि वाले दयानन्द को तीन वर्षों तक पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराया। विद्योपार्जन पूर्ण कर दयानन्द ने (अपने) परम श्रद्धेय गुरु से कहा, “भगवन! मैं दरिद्र होने के कारण (आपके लिए) तन-मन से मात्र कुछ लौंग लाया हूँ। आप मेरी इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत (कृतज्ञ) करें।”


6 प्रीत: गुरुस्तमभाषत-सौम्य! विदितवेदितव्योऽसि, नास्ति किमपि

अविदितं तव। अद्यत्वेऽस्माकं देश: अज्ञानान्धकारे निमग्नो वर्तते,

नार्यः अनाद्रियन्ते, शूद्राश्च तिरस्क्रियन्ते, अज्ञानिनः पाखण्डिनश्च

पूज्यन्ते। वेदसूर्योदयमन्तरा अज्ञानान्धकारं न गमिष्यति। स्वस्त्यस्तु ते, उन्नमय पतितान्, समुद्धर स्त्रीजाति, खण्डय पाखण्डम्, इत्येव

मेऽभिलाष: इयमेव च मे गुरुदक्षिणा।


शब्दार्थ प्रीत:-प्रसन्न होकर; अभाषत-कहा; अद्यत्वे-आजकल;

अस्माकं-हमारे; निमग्नो-डूबा; वर्तते-है; नार्य:-स्त्रियों का;

अनाद्रियन्ते-अपमान किया जाता है; शूद्राश्च-और शूद्रों का;

तिरस्क्रियन्ते-तिरस्कार किया जाता है; अज्ञानिन:-मूर्ख पाखण्डिनश्च- और पाखण्डी; पूज्यन्ते-पूजे जाते हैं; अन्तरा-बिना; स्वस्त्यस्तु ते-तुम्हारा कल्याण हो; उन्नमय-उठाओ; पतितान्-पतितों को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, “सौम्य! तुम जानने योग्य (सभी) बातें जान चुके हो, अब तुम्हें कुछ भी अज्ञात नहीं। इन दिनों हमारा राष्ट्र अज्ञानरूपी अन्धकार में डूबा हुआ है, (आज यहाँ) नारियों का अनादर किया जाता है, शूद्र तिरस्कृत किए जाते हैं और अज्ञानी व पाखण्डी पूजे जाते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार बिना वेदरूपी सूर्य के उदित हुए दूर नहीं होगा। तुम्हारा कल्याण हो, पतितों को (ऊँचा) उठाओ, स्त्री-जाति का उद्धार करो, पाखण्ड का खण्डन (नाश) करो, यह मेरी अभिलाषा है और यही मेरी गुरुदक्षिणा है।” ।


7 .गुरुणा एवम् आज्ञप्त: महर्षिर्दयानन्दः एतद्देशवासिनो जनान्

उद्धर्तुं कर्मक्षेत्रेऽवतरत्। सर्वप्रथमं हरिद्वारे कुम्भपर्वणि

भागीरथीतटे पाखण्डखण्डिनीं पताकामस्थापयत्। ततश्च

हिमाद्रिं गत्वा त्रीणि वर्षाणि तप: अतप्यत्। तदनन्तरमयं

प्रतिपादितवान्- ऋग्यजुसामाथर्वाणो वेदाः नित्या ईश्वर

कृर्तृकाश्च, ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य-शूद्राणां गुण-कर्मस्वभावैः

विभागः न तु जन्मना, चत्वारः एव आश्रमाः, ईश्वरः एकः एव,

ब्रह्म-पितृ-देवातिथि-बलि-वैश्वदेवाः पञ्च महायज्ञा नित्यं

करणीयाः। ‘स्त्रीशूद्रौ वेदं नाधीयाताम्’ अस्य वाक्यस्य असारतां

प्रतिपाद्य सर्वेषां वेदाध्ययनाधिकार व्यवस्थापयत्। एवमयं

पाखण्डोन्मूलनाय वैदिक धर्मसंस्थापनाय च सर्वत्र भ्रमति स्म।

एवमार्यज्ञानमहादीपो देवो दयानन्दः यावज्जीवनं

देशजात्युद्धाराय प्रयतमानः तदर्थं स्वजीवनमपि दत्तवान्

मुक्तिञ्चाध्यगच्छत् एवमस्य महर्षेः जीवनं

नूनमनुकरणीयमस्ति।


शब्दार्थ गुरुण-गुरु से; एवम् इस प्रकार; आज्ञप्त:-आज्ञा ।

पाए हुए; उद्धर्तु-उद्धार करने के लिए; भागीरथीतटे-गंगा के

किनारे पर पाखण्डखण्डिनी-पाखण्ड का नाश करने वाली;

पताकाम्-ध्वजा को; हिमादि-हिमालय पर; गत्वा-जाकर;

सर्वत्र-सब जगह; भ्रमति स्म-घूमते रहे; महादीपो-महान् दीपक;

यावज्जीवन-जीवन-पर्यन्त प्रयतमानः-प्रयत्न करते हुए;

तदर्थ-उसके लिए; दत्तवान् दे दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त करके महर्षि दयानन्द इस देश के निवासी मनुष्यों के उद्धार के लिए कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। सर्वप्रथम हरिद्वार में कुम्भपर्व पर गंगा के किनारे पाखण्ड का नाश करने वाली पताका (ध्वजा) को स्थापित किया। उसके बाद हिमालय पर्वत पर जाकर तीन वर्ष तक तप किया।

इसके बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नित्य हैं और ईश्वर द्वारा रचित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन गुण, कर्म और प्रकृति के अनुरूप है, न कि जन्म से। आश्रम चार ही हैं। ईश्वर एक ही है। ब्रह्म, पितृ, देव, अतिथि तथा बलिवैश्वदेव ये पाँच महायज्ञ प्रतिदिन ही करने चाहिए। “स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ने चाहिए”-इस वाक्य की सारहीनता का प्रतिपादन करके सभी के लिए वेद को पढ़ने के अधिकार की व्यवस्था की। इस तरह ये पाखण्ड की समाप्ति के लिए और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए सब जगह घूमते रहे। इस प्रकार आर्य-ज्ञान के महान् दीप देव दयानन्द ने सम्पूर्ण जीवन देश और जाति के उद्धार के लिए कोशिश करते हुए उसके लिए अपना जीवन भी अर्पित कर दिया और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार इन महर्षि का जीवन निश्चित रूप से अनुकरणीय है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महर्षेः दयानन्दस्य जन्मः कस्मिन् स्थाने/ग्रामे अभवत?

अथवा महर्षेः दयानन्दस्य जन्मभूमिः कुत्र आसीतो.

अथवा मूलशङ्करस्य जन्म कुत्र अभव?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य जन्म सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे अभवत्।

महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम किम् आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम श्रीकर्षणतिवारी आसीत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् मासे अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म भाद्रपदमासे अभवत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् दिने नक्षत्रे च अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म गुरुवासरे मूलनक्षत्रे च अभवत्।

दयानन्दस्य जनकः ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कथं कृतवान्?

उत्तर ‘शिवं भजेत अयं’ इति विचार्यं दयानन्दस्य जनक: ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कृतवान्।

महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं किं नाम आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं मूलशङ्करः इति नाम आसीत्।

अष्टमे वर्षे कस्य उपनयनम् अभवत्?

उत्तर अष्टमे वर्षे दयानन्दस्य उपनयनम् अभवत्।

कस्मै पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्?

उत्तर मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्।

शिवरात्रेः व्रतं क: अकरोत्?

उत्तर शिवरात्रेः व्रतं मूलशङ्करः अकरोत्।

कस्य आज्ञानुसारं मूलशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्?

उत्तर पितुः आज्ञानुसारं मूलयशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्।

मूलशङ्करः कान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्?

उत्तर मूलशङ्करः सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्।

शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः किम् अचिन्तयत्?

उत्तर शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः लोकशङ्करं शङ्करं प्राप्तुम् अचिन्तयत्।

शिवरात्रेः उत्सव: केन नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्?

उत्तर शिवरात्रेः उत्सवः ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्।

दयानन्दस्य भगिनी कथं पञ्चत्वं गता?

उत्तर दयानन्दस्य भगिनी विषूचिकया पञ्चत्वं गता।

वर्षत्रयानन्तरं कस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गत:?

उत्तर वर्षत्रयानन्तरं मूलशङ्करस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गतः।

लोकः कस्मात् मुक्तः स्यात्?

उत्तर लोकः मृत्युभयात् मुक्तः स्यात्।

मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यं कथम् उत्पन्नम्?

उत्तर स्वभगिन्याः पितृव्यस्य च मृत्युं दृष्ट्वा मूलशङ्करस्य हृदयो

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

कस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः?

उत्तर दयानन्दस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

मूलशङ्करः गृहं कदा अत्यजत्?

उत्तर मूलशङ्करः अस्तङ्गते भगवति भास्वति गृहम् अत्यजत्।

मूलशङ्करः कति वर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रम?

उत्तर मूलशङ्करः सप्तदशवर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रमत्।

मूलशङ्कर: मथुरानगरं किमर्थम् अगच्छत्?

उत्तर मूलशङ्करः विरजानन्दस्य यशं श्रुत्वा मथुरानगरम् अगच्छत्।

महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः कः आसीत्?

अथवा विरजानन्दः कस्य गुरुः आसीत्?

‘उत्तर विरजानन्दः महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः आसीत्।।

कः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास।

विरजानन्दः कं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः दयानन्दं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास।

समाप्तविद्यः दयानन्दः कस्मै लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्?

उत्तर समाप्तविद्यः दयानन्दः गुरवे लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्।

दयानन्दः कीदृशः प्रदीपः प्रज्वलितः? ।

उत्तर दयानन्दः ज्ञानमयप्रदीपः प्रज्वलितः।

कतयः आश्रमाः सन्ति?

उत्तर चत्वारः आश्रमाः सन्ति।

कः एकः एव अस्ति?

उत्तर ईश्वरः एकः एव अस्ति।

कतयः महायज्ञाः नित्यं करणीया?

उत्तर पञ्च महायज्ञाः नित्यं करणीया।

महर्षिर्दयानन्दः कस्मै भ्रमति स्म?

‘उत्तर महर्षिर्दयानन्दः वैदिक-धर्म संस्थापनाय भ्रमति स्म।

9-महामना मदनमोहन मालवीय कक्षा-12


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्य भाषा व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्य पाठ व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिंदी में करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विन: मदनमोहनमालियासिस जन्म प्रयागे प्रतिष्ठित-परिवारेऽभवत। अस्य पिता पंडितवर्जनाथमालवीयः संस्कृतस्य सम्मानः विद्वान् आसीत्। अयं प्रयागे एव संस्कृतपाठशालाएँ राजकीयविद्यालये म्योर-सेण्ट महा महाविद्यालये च शिक्षा प्राप्ति अत्रैव राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरब्धवान्। युवक: मालवीय: स्वावलीन प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहय्स। अतः अस्य सुह्रदः तं प्राड्विवाकपदवी प्राप्य देशस्य श्रेष्ठतरं सेवां स्लुं अविवन्तः। तद् टाइपम अयं विधिपरीक्षामुत्तिरी

प्रयागस्थे उच्चन्यायालये प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स। चेतावनी: प्रकष्टज्ञानेन, मधुरालापेन, उदार वाक्यहारेन चायं

शीघ्रमेव मित्राणां न्यायाधीशानाञ्च सम्मानभभगमम्भवत्।

शब्दार्थ प्रयाग -प्रयाग में प्रतिष्ठित -सम्मानित सम्मान्यः -सम्माननीय प्राप्य -प्रकाश द्वारा, आरभवन -प्रारम्भ किया; अमोहयत् -मोह लिया: प्राविवपदन्थ -वकील की पदवी प्राविवाकमन -वकालत: वार्ता: -कानून के न्यायाधीशानाञ्च-और

न्यायाधीशों के


सन्दर्भ प्रस्तुत गद और हमारी पाठ्य-पुस्तक संस्कृत 'के' महामना मालवीयः 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित व्रजनाथ

मालवीय संस्कृत के मान्य विद्वान थे। में उन्होंने प्रयाग में ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय और म्योर-सेण्ट महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर यहीं राजकीय विद्यालय में अध्यापन प्रारम्भ किया। युवा मालवीय ने अपने प्रभावपूर्ण (ओजस्वी) भाषण से लोगों का मन मोह लिया। अतः उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें अधिवक्ता (वकील) की पदवी प्राप्त कर राष्ट्र की श्रेष्ठतम (सर्वोच्च) सेवा करने के लिए प्रेरित किया।

उसी के अनुसार वह विधि (कानून) की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग स्थित उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ कर दी। विधि के उत्कृष्ट

ज्ञान, मृदु बातचीत और (अपने) उदार व्यवहार से शीघ्र ही ये मित्र और न्यायाधीशों के सम्मान के पात्र बन गए।


2 महापुरुषा: लौकिक-प्रलोभनेषु बन्धः नियतलक्ष्यान्न कद अन्यं भ्रश्यन्। देशसेवानुरक्तोऽयं युवा उच्चन्यायालयस्य परिधौ

स्थातुं नाशम्। पंडित मोतीलाल नेहरू-लालाजपतरायप्रभज्ञानगरी: अन्यैः राष्ट्रनायकैः सह सोन्पि देशस्य स्वन्त्रतासङ्ग्रामेऽवतीर्णः। देहल्यां त्रयोविंशतितमे कागग्रेस वसधिवेशनेम्यम् अध्यक्षपदमलवान। रेटेडवान्। रोलट एक्ट '

इत्यादिवासी विरोधेजस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आङग्लशासका: भीता: जाता है। बहुवरं कारागारे निक्षपादोऽपि अयं वीर:

देशसेवावर्तं न नित्यजत


शब्दार्थ महापुरुषा: -महान् पुरुष, लौकिक -संसारिक प्रलोभनेषु -प्रलोभनों में (लालच में), बन्धः -बँधकर या फँसकर;

नियतलक्ष्यान्न -नियम (निश्चित) लक्ष्य से नहीं; अयंन्ति -विवर्तित होते हैं, देशसेवनुरक्तोदेशयंम् -देशसेवा में अनुरक्त यह;

परिधौ -सीमा में भीता: जाता है -भयभीत हो गए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महापुरुष सांसारिक प्रलोभनों में फँसकर निश्चित लक्ष्य से

कदापि विचलित नहीं होते। राष्ट्रसेवा में लीन यह युवक उच्च न्यायालय की सीमा में नहीं बँध गया। पंडित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय जैसे अन्य राष्ट्रनायकों सहित ये भी देश के स्वतन्त्रता संगमम में कूद पड़े। दिल्ली में कांग्रेस के तेईसवें अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। रोलट एक्ट के

विरोध में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज शासक भयभीत हो उठे। कई बार जेल जाने के पश्चात भी इस वीर ने राष्ट्रसेवा-व्रत का त्याग नहीं किया।


3 हिंदी-संस्कृताङ्ग्ल भाषासु अस्य समान: अधिकारः आसीत्।

हिंदी-हिन्दु-हिन्दुस्थानस्थानमुतथय अयं निरन्तरं प्रयत्नमकरोत्।

शिक्षायैव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति अत: श्रीमालवीयः

सनाहं काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य संस्थापनमकारोत् । अस्य

निर्माणाय अयं जनान् धनम् अयाचत् जनाश्च महित्यस्मिन् ज्ञानयज्ञे

प्रबन्ण धनम्स्मै प्रयच्छन्, तेन स्तोयं विशाल: विश्वविद्यालयः

भारतीयानां दानशीलतायाः श्रीमालवीय यशः च प्रतिमूर्तिरिव

विभाति। साधारण संगतिको ,षि जनः महतोत्साहेन, मनस्वितया,

पौरुषेण चतीयमपि कार्यं स्लुं संपः इत्यदर्शयत्

मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः। एतदर्थमेव जनास्तं महामना इत्युपधिना

अभिधातुमारब्धवन्तः।


शब्दार्थ उत्थानाय-उत्थान के लिए: अयं-इसने निरन्तर लगातार

शिक्षक-शिक्षा से ही; नवीन-नया; उदेती-उदय होता है। प्रम्बम्-

बहुत-सा, संभाव्य-दिया, प्रतिमूर्ति-और-सा:

साधारण स्थिति-को वालाधि-साधारण स्थिति वाला भी।

अभिधातुमारभधवन्त-सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद इन्हें हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। में वह, हिन्दू और हिन्दुस्तान के उत्थान के लिए निरन्तर प्रयत्न किया। शिक्षा से ही राष्ट्र और समाज में नव-प्रकाश का उदय होता है, इसलिए श्री मालवीय जी ने वाराणसी (बनारस) में काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके निर्माण के लिए उन्होंने लोगों से धन माँगा। यह महाज्ञान-यज्ञ में। लोगों ने उन्हें पर्याप्त धन दिया। उनकी रचना यह विशाल विश्वविद्यालय भारतीयों की दानशीलता और श्री मालवीय जी के यश (ख्याति) की प्रतिमूर्ति के रूप में शोभयमान है।


विद्वानों में श्रेष्ठ मालवीय जी ने यह दिखा दिया कि साधारण स्थिति वाला भी महान् उत्साह , विचारशीलता और पुरुषार्थ से असाधारण कार्य करने में सक्षम होता है, इसलिए लोगों ने उन्हें 'महामना' उपाधि से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया।


4 महामना विद्वान बाड़, धामिको नेता, पटुः पत्रकारश्चासीत्स। परमस्य सुगुण: जनसेवव आसीत्। यत्र कुत्र अन्य अयं जनंग दुःखितान पीड्यमानंश्चाप्यत् तत्रैव सः शीघ्रमेव उपस्थितः, सर्वविधं साहाय्य्च अकरोट। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासी। अद्यास्माकं मध्येऽनुपस्थितो महापि महामना मालवीयः स्वयशसोऽमूर्तरूपेण प्रकाशं वित्तरं अन्धे तमसि निमग्नान् जनगण सन्मार्ग दर्शयन् स्थान-स्थाने, जने-जने उपस्थित एव।


शब्दार्थ पटु-निपुण; जनसेवव-जन सेवा ही; कुरत स्थान-कहीं भी;

जनंग-मनुष्यों को पीड्यमानंग-पीड़ितों को तत्रैव-वहीं; अद्य-आज;

वितरन-बाँटते हुए; अन्धे-अंत अन्धकार में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महामना विद्वान् वक्ता, धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किन्तु जनसेवा ही इनका सर्वोच्च गुण था। ये जहाँ कहीं भी लोगों को दुःखी और पीड़ित देखते हैं, वहाँ शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा ही इनका स्वभाव था। आज हमारे बीच अनुपस्थित होकर भी महामना मालवीय

अमूर्तरूप से अपने यश का प्रकाश बाँटते हुए आंतरिक अन्धकार में डूबे हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाने वाले हुए स्थान-स्थान पर जन-जन में उपस्थित हैं।


5.जयन्ती ते महाभागा जन-सेवा-परायनाः।

जरामृत्युभयं नास्ति येषां कीर्तित्नो: क्वचित् ।।


शब्दार्थ जयन्ती-जय हो जन-सेवा-परायः-जन सेवा में देखो रहने

वाले, जरामृत्युभ-जरावस्था और मृत्यु का भय; नस्ति-नहीं है;

कीर्तितनो-यश रूपी शरीर को क्वचित्-कहीं भी।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक 'संस्कृत भाषदर्शिका' के 'महामना। मालवीय: 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद जन-सेवा में परायण (तत्पर) वे व्यक्ति (महापुरुष) जयशील होते हैं,। जिनके यश्रुपी शरीर को कहीं भी पुराना और मृत्यु का भय नहीं है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपना जीवन जनकल्याण के लिए। समर्पित कर देते हैं, उनकी कीर्ति मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाते हैं, जिसमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लेखन होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विनः मदनमोहनमाल कन्यास्य जन्म कुत्र अभवत्?

या मदनमोहनमालवीयस जन्म कुत्र अभवत्?

उत्तर मदनमोहनमालवीयस जन्म प्रयागनगरे अभवत्।

श्रीमालियासिस पितु: किं नाम आसीत्?

या महामना मालवीयः कस्य पुत्रः आसीत्?

उत्तर श्रीमालवीयस पितुः नाम पंडितवर्जनाथमालवीय: इति आसीत्।

मदनमोहनमालवीय: कुत्र अध्यापनम् आरभधवन?

उत्तर मदनमोहनमालवीय: राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरभधवन।

मालवीय: केन जनानन मनांसी अमोहय?

उत्तर मालवीय: प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहयत्।

मालवीय: काम् परीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: विधिपरीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त।

मालवीय: कुत्र प्राड्विवाक्रीमुन शूमारम्भ?

उत्तर मालवीय: प्रयागस्थे उच्चन्यायाल प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स।

मालवीय: कीन्द्रशः पुरुषः आसीत्?

उत्तर मालवीय: मधुरभाषी, उदार: पुरुष: च आसीत्।

मालवीय: कास्मिन् वर्षे काङग्रेसिस अध्यक्ष: अभवत्?

उत्तर मालवीय: त्रियोविंशतितमे वर्षे कागग्रेसस्य अध्यक्षः अभवत्।

मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा के भीता: जाता है?

उत्तर मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आशलशासका: भीता: जाता है।

मालवीय: कंस: कं न नजत्स?

उत्तर मालवीयः क्षेत्रः देशसेवावरतं न अत्यजत्।

कासु भाषासु मालवीयमहोदयस्य समानः अधिकारः आसीत्?

उत्तर हिंदी-संस्कृत-आङग्ल-भाषासु मालवीय अथस्य समान:। अधिकार: आसीत्।

मालवीयस कासु समानम् अधिकार: आसीत्?

उत्तर मालवीयस सर्वासु भाषासु समानम् अधिकारः आसीत्।

मालवीय: केशम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: हिंदी-हिंदूस्थानानम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त।

की एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति?

उत्तर शिक्षया एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति।

महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे कस्य विश्वविद्यालयस

संस्थापनमकरोट?

या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक: कः आसीत्? |

या श्रीमालवीय: कस्य विश्वविद्यालयवास स्थापनम् अकर्त?

उत्तर महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय संस्थापनमकरोट।

शिक्षाया: क्षेत्रे श्रीमालवीय: किमकरोट?

उत्तर शिक्षाया: कृते श्रीमालवीय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

संस्थापनमकरोट।

काशीविश्वविद्यालय: कस्य यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति?

उत्तर काशीविश्वविद्यालय: मालवीयस यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति।

जन: कागरी: असाधारणमपि कार्यं स्लुं ज्ञानः?

उत्तर जन: महता उत्साहेन, मनस्वितया, पौरुषेण चतीयमपि कार्य स्लुं सम्मः।

जना: तं केन उपाधिना अभिधातुमारभधवन्?

उत्तर जना: तं 'महामना' इति उपाधिना अभिधातुमारभध्वं।

श्रीमाल्यस्य चरित्रे कः सर्वोच्चगुणः आसीतु?

उत्तर श्रीमाल्यस्य चरित्रे सुपगुणः जन-सेवा आसीत्।

प्राणिसेवा कस्य स्वभाव: आसीत्?

उत्तर प्राणिसेवा मालवीयस स्वभाव: आसीत्।

5- जातक-कथा कक्षा-12

गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व श्लोक का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


उलूकजातकम्

अतीते प्रथमकल्पे जना: एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्त। सर्वाकारपरिपूर्ण पुरुष राजानमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एक सिंह राजानमकुर्वन्। ततः शकुनिगणा: हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च।

अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते

परस्परमवलोकयन्त: एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यवोचन्।

शब्दार्थ जातक-जन्म: जातक कथा-भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ बीते-बीते; प्रथा को -प्रथम कल्प में – मनुष्यों ने अभिल्य-विद्वान्; सौभाग्यशप्त-सौभाग्यशाली; चतपदा -चौपायों (जानवरों ने) ने गि-भी निगा – इकट्ठे होकर; शकुनिगणा:-पक्षीगण; हिमपत-प्रदेशे-हिमालय प्रदेश में पायाणे-चट्टान पर; मनष्य-मनुष्यों में प्रारक -जाना जाता है; तथा-उसी प्रकार; पूनः-फिर; अन्तरे-बीच में जराजको-बिना राजा के स्थापयिता-स्थापित करना चाहिए;

एकमुलूक-एक उल्लू को: दृष्ट्वा-देखकरा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ खण्ड से उद्धृत है।


अनवाद प्राचीनकाल में प्रथम युग के लोगों ने एक विद्वान सौभाग्यशाली एवं सर्वगुणसम्पन्न पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्ठे होकर एक शेर को (जंगल का) राजा बनाया। उसके बाद हिमालय प्रदेश में एक चट्टान पर एकत्र होकर पक्षीगणों ने कहा, “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। बिना राजा के रहना उचित नहीं। (हमें भी) एक को राजा के पद पर बिठाना चाहिए।” तत्पश्चात् उन सबने एक-दूसरे पर दृष्टि डालते हुए एक उल्लू को देखकर कहा, “हमें यह पसन्द है।” ।


2 अथैक: शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्व: अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’, अस्य एतस्मिन्

राज्याभिषेककाले एवं रूपं मुखं, क्रुद्धस्य च कीदृशं भविष्यति। अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिता: वयं तप्तकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला:

इव तत्र तत्रैव धङक्ष्यामः। ईदृशो राजा मह्यं न रोचते इत्याह-

न मे रोचते भद्रं व: उलूकस्याभिषेचनम्।

अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो, भविष्यति।।

स एवमुक्त्वा ‘मह्यं न रोचते’, ‘मह्यं न रोचते’ इति विरुवन् आकाशे उदपतत्। उलूकोऽपि उत्थाय एनमन्वधावत्। तत आरभ्य

तौ अन्योन्यवैरिणौ जातौ। शकुनयः अपि सुवर्णहंसं राजानं कृत्वा अगमन्।

शब्दार्थ अथ तत्पश्चात्, एक:-एक; शकनिः-पक्षी ने सर्वेषां सभी के

मध्यात्-बीच से; आशय-मत; गहणार्थ-जानने के लिए; त्रिकृत्व-तीन बार; अश्रावयत-सुनाया (घोषणा की); काक:-कौए ने उत्थाय- उठकर तिष्ठ-ठहरो: तावत-जरा राज्याभिषेककाले राज्य अभिषेक के समय: तप्तः-गर्म: कटाहे- कढ़ाई में प्रक्षिप्तास्तिला-डाले गए तिल; तत्रैक-वही; धडक्ष्याम:-जल जाएँगे; ईदृशो-ऐसा; महां-मुझे न रोचते अच्छा नहीं लगता नहीं, मे मुझे रोचते-अच्छा लगता है; उलूकस्याभिषेचनम् उल्लू का राज्याभिषेक: अकुद्धस्य-

क्रोधहीन का; पदेखो, क-कैसा; भविष्यति होगा; एवमुक्त्वा ऐसा कहकर; विरुवन-चिल्लाता हुआ; आकाशे-आकाश में उदपतन-उड़ गया; एनमन्वधावत्- उसका पीछा किया; तत-तब से; आरभ्य-लेकर; वैरिणौ जाती-शत्रु हो गए; शकुनयः-पक्षी; सुवर्णहंस-सुवर्ण हंस को; कृत्वा-बनाकर; अगमन-चले गए। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद तत्पश्चात् सबका विचार जानने के लिए एक पक्षी ने तीन बार सुनाया (घोषणा की) तब एक कौआ उठकर बोला, “थोडा ठहर, (जब) राज्याभिषेक के समय इसका ऐसा मुख है तो क्रोधित होने पर भला कैसा होगा! इसके क्रोधित होकर देखने पर

तो हम सब गर्म कड़ाही में डाले गए तिलों-सा जहाँ-के तहाँ जल जाएँगे। मुझे ऐसा राजा नहीं पसन्द।” इस प्रकार कहा-आप सभी के द्वारा इस उल्लू को राजा बनाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इस समय इसका मुख क्रोधहीन है, तब ही यह इतना विकत दिखाई दे रहा

है. तो क्रोध आने पर कैसा दिखाई देगा। ऐसा कहकर वह ‘मुझे नहीं पसन्द, मुझे नहीं पसन्द’, चिल्लाता हुआ आकाश में उड़

गया। उल्लू ने भी उसका पीछा किया। तभी से वे दोनों परस्पर शत्र बन गए। सुवर्ण हंस को राजा बनाकर पक्षीगण भी चल पड़े।


नृत्यजातकम्

3 अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदा: सिंह राजानमकुर्वन्। मत्स्या: आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुन: सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। सः तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराज: तस्यै वरं दत्त्वा हिमवति शकुनिसङ्के । संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन्

महति पाषाणतले संन्यपतन्। हंसराज: आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसङ्के अवलोकयन्ति मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं मे स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत्। मयूर: ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महत: शकुनिसङ्घस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंस: लज्जित:


‘अस्य नैव ह्रीः अस्ति न बर्हाणां समत्थाने लज्जा। नास्मै

गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ इत्यकथयत्।

हंसराजः तदैव परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय ।

दुहितरमददात्। मयूरो हंसपोतिकामप्राप्य लज्जित: तस्मात्

स्थानात् पलायितः। हंसराजोऽपि हृष्टमानस: स्वगृहम्

अगच्छत्।


शब्दार्थ चतुष्पदा:-चौपायों ने; मत्स्या:-मछलियों ने दहिता-

पुत्री; अतीक्-अधिक, रूपवती-सुन्दर; तस्यै-उसे (उसके लिए);

वरमदात्- वर दिया; आत्मनश्चित्तरुचितं-अपने मनपसन्द,

वृणुयात्-वरण करे; दत्त्वा-देकर; हिमवति-हिमालय पर;

शकुनिसड़धे-पक्षियों के समूह में संन्यपतत-उतरा, मणिवर्णग्रीवं-

नीलमणि के रंग की गर्दन वाले चित्रप्रेक्षणं- रंग-बिरंगे पंखों

वाले प्रतिच्छन्न-बिना ढका (नग्न): ही:-विनय: बर्हाणां-पंखों

को; गतत्रपाय-लज्जाहीन को; परिषन्मध्ये-सभा के बीच में;

भागिनेयाय- भांजे के लिए।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के

‘जातक-कथा पाठ के ‘नृत्यजातकम’ खण्ड से उदधत है।।


अनुवाद प्राचीनकाल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा

बनाया। मछलियों ने आनन्द मछली को तथा पक्षियों ने सुवर्ण हंस को। इस सुवर्ण हंस की पुत्री हंसपोतिका अति रूपवती थी। उसने उसे वर (अर्थात् अधिकार) दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करे। उसे वर देकर हंसराज पक्षियों के समूह में हिमालय पर उतरा। विविध प्रकार के हंस, मोर आदि पक्षी आकर एक विशाल चट्टान के तल पर एकत्र हो गए। हंसराज ने अपनी पुत्री को आदेश दिया कि वह आए और अपने मनपसन्द पति का वरण करे।

“यह मेरा स्वामी हो”-उसने (हंसपोतिका ने) पक्षी-समूह पर दृष्टि

डालते हुए मणि के रंग-सदृश गर्दन तथा रंग-बिरंगे पंखों वाले मोर को देखकर कहा। “आज भी तुम मेरी शक्ति को नहीं देखती” (अर्थात् अब तक तुम्हें मेरे पराक्रम का आभास नहीं है), यह कहकर मोर ने अति गर्व-सहित लज्जा को त्यागकर पक्षियों के उस विशाल समूह के मध्य नृत्य करना प्रारम्भ किया और नृत्य करते-करते नग्न हो गया। (यह देख) सुवर्ण राजहंस ने लज्जित होकर कहा, “इसे न तो संकोच (विनय) है और न पंखों को ऊपर करने में लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी बेटी नहीं दूंगा।” उसी सभा के मध्य हंसराज ने अपनी पुत्री अपने भांजे हंसपोत को दे दी। हंसपुत्री को न पाने पर मोर लज्जित होकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर चला गया।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


जना: एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर जनाः एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं पुरुषं राजानम् अकुर्वन्।

चतुष्पदाः कं राजानम् अकुर्वन?

उत्तर चतुष्पदाः एकं सिंह राजानमकुर्वन्।

शकुनिगणाः सन्निपत्य किम् व्यचारयन्?

उत्तर शकुनिगणाः सन्निपत्य व्यचारयन्-‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः।’ ।

के एकम् उलूकं राजानं कर्तं विचारम अकरोत?

उत्तर शकुनिगणा: एकम् उलूकं राजानं कर्तुं विचारम् अकरोत्।

काकस्योक्तिः किम् आसीत्?

उत्तर काकस्य उक्तिः आसीत् यत-ईदृशो राजा मध्यं न रोचते।

काकः कस्य विरोधम् अकुर्वन्?

उत्तर काकः उलूकस्य विरोधम् अकुर्वन्।

आकाशे कः उदपत?

उत्तर आकाशे काकः उदपतत्।

अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः कं राजानम् कुर्वन्?

उत्तर अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः एकं सिंह, राजानम् कुर्वन्।

काः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर मत्स्याः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कस्य दुहिता आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका सुवर्णराजहंसस्य दुहिता आसीत्।

अन्ते शकुनिगणाः कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर अन्ते शकुनिगणाः सुवर्णहंसं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कीदृशी आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत् ?

हंसराजः कस्यै वरम् अद्दात्?

उत्तर हंसराजः स्वदुहितायै वरम् अददात्।

का मयूरं पतिम् अचिनोत्?

उत्तर हंसपोतिका मूयरं पतिम् अचिनोत्।

कः शकुनिसधे नृत्यम् अकरोत्?

उत्तर मयूरः शकुनिसचे नृत्यम् अकरोत्।

कः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्?

उत्तर मयूरः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्।

हंसराज: कस्मै स्वदुहितरं न दास्यति।।

उत्तर हंसराजः गतत्रपाय स्वदुहितरं न दास्यति।

राजहंसः परिषन्मध्ये कस्मै दुहितरम् अद्दात्?

उत्तर राजहंसः परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।

राजहंसः कस्मै दुहितरम् अददात्?

उत्तर राजहंसः हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।।

हंसपोतकेन सह कस्याः विवाहः अभवत्?

उत्तर हंसपोतकेन सह हंसपोतिकायाः विवाहः अभवत्।

मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य कीदृशः अभवत्?

उत्तर मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य लज्जितः अभवत्।

परिषन्मध्यात् कः पलायित:?

उत्तर परिषन्मध्यात् मयूर: पलायितः।

हंसराजः हृष्टमानसः कुत्र अगच्छत्?

उत्तर हंसराजः हृष्टमानस: स्वगृहम् अगच्छत्।

6- नृपतिदिलीप: (राजा दिलीप) कक्षा-12


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्य और व श्लोक दिए जाते हैं, जिसमें से एक गद्य पाठ व एक श्लोक का सन्दर्भ सहित हिंदी में करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1. शिवस्वतो मनु म माननीयो मनीषिणाम्।

आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्चन्दसामिव ।।


शब्बार्थ माननीय-पूज्य; मनीषिणाम् विद्वानों में; आसीत-था, थे; विपक्षिताम-राजाओं में आद्य: -प्रथम;

प्रणवश्छन्दसामिव-वेदों में ओ (म (ऊ) की तरह।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक प्रस्तुत संस्कृत ’के र्द नृतिर्दिलीपः’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद वैवस्वत नाम के राजा, में विद्वानों पूज्य, वेदों में ओम () की तरह राजाओं में प्रथम हुए।


2 तदन्वये शुद्धिमति: प्रसूता: शुद्धिमित्रः।

दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव ।।

शब्दार्थ तनन्वये उनके वंश में शुद्धिमति-शुद्धि से युक्त, प्रसूत: -उत्पन्न हुआ; राजेन्दुरिन्दुः-राजाओं में श्रेष्ठ; क्षीरनिधाविय-

जैसे क्षीर सागर में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उनके (मनु के) पवित्र वंश में बहुत अधिक शुद्ध बुद्धियुक्त, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप, क्षीरसागर में शशि के समान उत्पन्न हुए (पैदा हुए)।


३ भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम्।

अध्र्यश्चैभिगम्यश्च यादोरलैरिवार्णव: ।।

शब्दार्थ भीमकान्तै: -भयंकर और मनोहर, उपजीविनाम -श्रित जनों को; अध्यात्मश्चभिगम्यश्च -अनुक्रमणीय और आश्रय

योग्य: यादगारः-भयंकर जल जन्तु और रत्नों से; अर्णवः-समुद्रा


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद जल जन्तुओं के कारण उल्लंघन न करने योग्य तथा रत्नों के कारण अवगाहन करने योग्य समद्र की तरह वे राजा दिलीप भी। भयानक और उदारता आदि गुणों के कारण मनुष्यों के लिए अनतिक्रमणीय और आश्रय के योग्य थे।


4. रेखामात्रमपि वर्णान्नादामनोर्वर्त्मन: परम्।

न व्यतियुः प्रजास्तस्य नियतर्मानिविवित्तयः ।।


शब्दार्थ रेखामात्रमपि-जरा भी (किञ्चिद केवल भी) वर्णान्नद-

प्रचलित; आमनोर्वमन:-मनु के समय से चले आए मार्ग से;

नेमिवित्सय: -परम्परा और लीक पर चलने वाला।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उनकी (राजा दिलीप की) प्रजा ने मनु द्वारा निर्दिष्ट (प्रचलित उत्तम) मार्ग का (उसी प्रकार) रेखामात्र भी उल्लंघन नहीं किया, जैसे कुशल (रथ) सारथी पहिये को मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं करते । यहाँ कहने का आशय यह है कि राजा दिलीप के शासनकाल में प्रजा परम्परा का पालन करने वाली, सन्त और मनु के बताए मार्ग अर्थात् सुमार्ग का अनुकरण करने

वाली थी।


5 आकारतृशप्रज्ञः प्रज्ञाय सदृशागमः।

आगमः सदृशारम्भ अरम्भत्ृशोदयः ।।

शब्दार्थ आकारताश-रूप के अनुरूप प्रज्ञः -सुद्धि वाले; प्रज्ञाय- बुद्धि से; सदृशागमः-शास्त्रों में परिश्रम करने वाले; आगमः-वेद-शास्त्रों के अनुकूल कार्य को शुरू करने वाले; आरम्भद्रृशोदय: -शुरू किए गए कार्यों के अनुसार फल वाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद (सुन्दर दिखने वाले राजा दिलीप अपनी) आकृति के अनुरूप बुद्धिमान, बुद्धि के अनुरूप शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रानुकूल (शुभ कार्य) प्रारम्भ। करने वाले और उसका उचित परिणाम पाने वाले थे।


6 प्रजानामेव पाद्यार्थं स ताभ्यो बलिमग्रृहीत्।

सहस्त्रगुणमुत्त्रस्त्रुमादते हि रसं रविः ।।

शब्दार्थ प्रजानामेव-प्रजा की ही; भूत्यार्थ-भलाई के लिए; स-वह

(दिलीप); ताभ्यो-उनसे; बलिमगृहीत्-कर लेता था।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वे (राजा दिलीप) प्रजा के कल्याणार्थ ही उनसे कर ग्रहण करते थे । जैसे-सूर्य सहस्रगुणा (जल) प्रदान करने के लिए (पृथ्वी से) जल ग्रहण करता है।


सेनापरिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थम्।

शास्त्रवैश्वकुण्ठिता बुद्धिमौर्वी धनुषी चताता ।।

शब्दार्थ सेना-सेना; परिच्छदस्तस्य-उसका साधन; द्वयमेव-दो ही;

अर्थ अनुपम-अर्थ का साधन; शास्त्र-शास्त्रों में अकान्ठिता- पैनी;

मौर्वी- प्रत्यंचा ( डोरी); आर्ची-आर्च ; च-और; आतंक-चढ़ी हुई।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उस नृप दिलीप की सेना तो उसका साधन मात्र थी। उसके अर्थ के साधन दो ही थे, शास्त्रों में प्रखर बुद्धि और धनुष पर चढ़ी डोरी प्रत्यंचा।


8 तस्य संवत्मन्त्रस्य गुढाकारेस्यहिलस्य च।

फलानुमेया तत्वम्भा: संस्कारः प्राक्तना इव ।।

शब्दार्थ तस्य-उसका, उसका; संवत-गुप्त; मन्त्रस्य-मन्त्रणा वाले की, गुढकार-गुप्त आकार; संकेत-संकेत-संकेत; पासे- जानने योग्य; संस्कार: -संस्कारों के प्राक्त-पूर्व जन्म के।

सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुप्त मन्त्रणा (विचार) करने वाले, गुप्ताकृति और इशारे वाले उस नृप दिलीप के कार्यों की शुरुआत पूर्व जन्म के संस्कारों सदृश फल से ही जानने योग्य था ।


9 जुगोपरसमानमत्रस्तो प्रेषित धर्ममनातुरः।

अग्रीध्नुरादे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत् ।।

शब्दार्थ जगोप-रक्षा करते थे: आत्मानम-स्वयं को (शरीर की);

अत्रस्त: -ज्ञानभय वाला; प्रेषित-सेवा करते थे धर्मम्-धर्म का;

अनातुर: -बिना घबराए हुए: अध्न-लालच के बिना, असक्त: -आसक्ति राहत, सुखमन्वभूत्-सुख का अनुभव करते थे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद नृप दिलीप, निर्भय होकर अपने तन की रक्षा करते थे बिना घबराए हुए धर्म का अर्जन करते थे , बिना धन एकत्रित करते थे लालच और विषयों में अनासक्त होकर सुखों का भोग करते थे।


10 ज्ञानाने मौनं क्षमा शक्तौ शेषगे श्लाघाविपर्ययः।

बहु गुणु प्रबंधित्वत् तस्य सप्रसवा इव ्वा

शब्दार्थज्ञान -ज्ञान रहना; मौनं-चुप (शान्त); शक्ती-शक्ति रहने

पर; क्षमा-क्षमा करना; श्लाघविपर्ययः-प्रशंसा रहित (बिना प्रशंसा के); गुणानु प्रबंधित्वत-गुण से अनुबन्ध के कारण; तस्य-उसके; सप्रवा- सहोदर; इव-तरह (जैसे)।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- उनमें) ज्ञान रहने पर मौन रहना, शक्ति रहना पर क्षमा करना और बिना प्रशंसा के त्याग (दान) करना-जैसे विरोधी गुणों के साथ -साथ रहना के कारण उनके ये गुण एक साथ जन्मे लग रहे थे।


11 औसत परिशुद्धता विषयैर्विद्यानां परदेशेश्वरन: ।।

तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा विना ।।

शब्दार्थ अनाधिकृत-भौतिक जगत् की वस्तुओं के प्रति आभाव न होने वाले की विषयैर्विद्यानां-विषयविद्याओं में पारध्वन: -पगामी; तस्य-उसका, उसका धर्मार्थ-धर्म में प्रेम; आसीत्-था, वृद्धत्वं-वृद्ध; जरसा-वृद्धावस्था के बिना ही।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद भौतिक जगत की वस्तुओं के प्रति अनासक्त रहने वाले सभी विद्याओं में रक्षा और धर्म-ल उस नृप हृदयीप का वृद्ध अवस्था न होने पर भी बुढ़ापा ही था।


१२ प्रजानन् विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि ।।

स पिता पितरिस्तासँ केवल जन्महेतवः ।।


शब्दार्थ प्रजानां-प्रजा में विनय: -नमता; रतनदाद-रक्षा करने के

कारण; भरणादपि-पालन-पोषण करने के कारण भी: स-वे; पिता- दिलीप: पितरिस्तासँ-उनके (प्रजा के) पिता; केवल-केवल;

जन्महेतयः-जन्म के कारण।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद प्रजा में विनय को स्थापित करने के कारण, रक्षा करने के कारण और भरण-पोषण करने के कारण वह (नप दिलीप) उन प्रजा जनों का पिता था। उनके पिता तो केवल जन्म का कारण थे।


13. दुदोहर स यज्ञाय शस्यय मघवा दिवम्।

सम्पद्विनिमयेनो भू दधातुर्भुवनवर्यम् ।।


शब्दार्थ दुदोहदोहन किया; गाम-अर्थ का; शशम् अन्न के लिए;

मधा-इन्द्र; दिवम्-स्वर्ग; सम्पद-सम्पत्ति के अनमये अंतःक्रिया-प्रदान

से; उभौ-दोनों; दधतु-धारण करते थे या सँदलते थे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वे (राजा दिलीप) यज्ञ करने के लिए पृथ्वी का दोहन करते थे और इन्द्र अन्न के लिए स्वर्ग का । वे दोनों संपादकों के आपसी लेन-देन से दोनों लोकों का भरण-पोषण करते थे।


14 उद्वेषो सम्पि सम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्।

तत्र्यो दानव: प्रिसप्यासीदगुलीवोरगक्षता ।।

शब्दार्थ द्वेषो -पि-शत्रु भी; शिष्ट- सज्जन, सभ्य; आक्त्रिया-रोगी र्त

; तान्य-त्याग योग्य; दुष्ट-दुष्ट स्वभाव वाला: प्रिय-प्रिय व्यक्ति; इ-समान; उरगक्षता-शप द्वारा सहनसी गया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उन्हें सज्जन शत्रु भी उसी प्रकार स्वीकार्य था जैसे

रोगी को औषधि तथा दुष्ट प्रियजन भी उसी प्रकार त्याज्य था जैसे

सर्प से डसी हुई अँगुली।


15. स वेलावप्रवलक परिधिकृत-सागराम्।

अनन्यशासामुर्वी शशासकपुरीमिव ।।


शब्दार्थ स-वह (वह); वेला-समुद्रतट; वम दुर्ग का

परकोटा; परिधीय खाई; अन्य दूसरों का; उर्वीम्-पृथ्वी;

शशास-शासन किया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


पूर्ण पृथ्वी पर राजा दिलीप ने एक छत्र शासन

किया। उनके द्वारा इस समुद्रतटरुपी पृथ्वी पर जिसकी चारों ओर

गहरी खाई हो, ऐसे सम्पूर्ण पृथ्वी पर एक नगर के समान शासन

किया।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाते हैं, जिसमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लेखन होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


१.मनिषीं माननीयः कः आसीत्?

उत्तर मनीषिणम माननीयः वैवस्वत मनुः आसीत् ।।


2. केकश माननीय: राज्ञ: दिलीप: आसी?

उत्तर मनीषीं माननीयः राज्ञः हृदीपः आसीत्।


10. वसाक्षिताम् आद्यः कः आसीत्?

उत्तर वसाक्षिताम् आद्यः वैवस्वत मनुः आसीत्।


4.दिलीप: कस्य अन्वय प्रसूतः?

उत्तर हृदीप: वैवस्वतमनोः अन्वय प्रसूतः।


5. नानृप: दिलीप: कस्मिन् शशिव पृथिव्यां तो?

उत्तर नृप: हृदयीप: क्षीरसागरे शशिव पृथिव्यां जातः ।।


6.दिलीप: किमर्थं बलिमग्रही?

उत्तर दिलीप: प्रजानांगत्यर्थम् और बलिम् अग्रित्।


7.अरव: जलं किमर्थम् आदते?

उत्तर रवि: जल सहस्रगुणं वर्षितुम् आदते।


8.ज्ञाने कीद्रशं भवेत?

उत्तरायनाने मौन भवेत्।


9.दिलीप: कां यज्ञाय दुदोह?

उत्तर दिलीप: गां यज्ञाय दुदोह।


१०। इन्द्रः कस्मै दिवं दुदोह?

उत्तर इन्द्रः शस्ये दिवं दुदोह।


11. कः दिवं शस्ये दुदोह?

उत्तर मघवा दिवं शस्याय दुदोह।


12. श्रेणी: अपि कः तस्यायः?

उत्तर प्रियः अपि दानवः तस्य्यः।


13.दिलीप: कस्य प्रदेशवासी राजा आसीत?

या दिलीप: कां शशासक?

उत्तर दिलीप: वेलावप्रवल आप परिखिदासगराम् उर्वी शशासक।


14.नृप: दिलीप: कीद्श: शासक: आसीत्?

उत्तर नृपः हृदीपः प्रजावत्सलः शासकः आसीत्।


15.दिलीपे के गुणा: सन्ति?

उत्तर नृपः हृदिपे, वीरता, नीति नैपुण्यं, धैर्य, इत्यादिः बहुः सन्ति।


16. कः प्रजायाः तनयेव पालनं दोति स्म?

उत्तर नृप: हृदयीप: प्रजायाः तनयेव पालनं दोति स्म।


17. नानृप: दिलीप: कुत्र राजा आसीत?

उत्तर नृप: हृदीप: अयोध्याया: नृप: आसीत्।


18. नानृप: दिलीप: केशमापनं दोति स्म?

उत्तर नृपः हृदीपः सज्जनान् मातं दोति स्म।


19. नानृप: दिलीप: कस्य नियमानुसारं अनुसरणं दोति स्म?

उत्तर नृप: हृदयीप: धर्मस्य नियमानुसारं पालनं दोति स्म।


20. देशवासी प्रगतये किम् आवश्यकम् अस्ति?

'उत्तर देशस्य प्रकृत्यैल्पम् आवश्यकम् अस्ति ।।


21. नृपः हृदीपः कीद्शः शासकः आसीत्?

उत्तर नृपः हृदीपः सर्वगुणसम्पन्नः शासकः आसीत्।


4- ऋतुवर्णनम

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का

सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


वर्षा

1.

 स्वनैर्घनानां प्लवगा: प्रबुद्धा विहाय निद्रां चिरसन्निरुद्धाम्।

अनेकरूपाकृतिवर्णनादा: नवाम्बुधाराभिहता: नदन्ति।।


शब्दार्थ स्वन-गर्जना से प्लवगा: मेंढक प्रबदा-जागे हुए; विहाय त्यागकर; निद्रा नींद को; चिरसन्निरुद्धाम बहुत समय से रोकी हुई: नादा स्वर वाले; नवनवीन: अम्लू-धारा जल की धारा से अभिहता-प्रताड़ित होकर (चोट खाकर); नदन्ति बोल।


सन्दर्भ :-प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।


अनुवाद:- अनेक रूप, आकृति, वर्ण और स्वर वाले, मेघों की गर्जना से बहुत समय तक रुकी हुई नींद को त्यागकर जागे हुए मेंढक नई जल की धारा से चोट खाकर बोल रहे हैं अर्थात् शब्द कर रहे हैं।


2.

 मत्ता गजेन्द्राः मुदिता गवेन्द्रा: वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः।

रम्या नगेन्द्रा: निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः।। 


शब्दार्थ :-  मत्ता- मस्त हो रहे हैं,गजेन्द्रा- हाथी, मुदिता- प्रसन्न हो रहे हैं, गवेन्द्रा-विजार/ सांड,वनेष-वनों में, विक्रान्ततरा - अधिक पराक्रमी, मगेन्द्रा: - शेर,रम्या- सुन्दर, नगेन्द्राः- पर्वत,निभूता - निश्चल या शान्त, नरेन्द्रा- राजा, प्रक्रीडितो- खेल रहे हैं, वारिधरी-बादलों से, सुरेन्द्रा-इन्द्रा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :-  हाथी मस्त हो रहे हैं, साँड (आवारा पशु) प्रसन्न हो रहे हैं, वनों में शेर अधिक पराक्रमी हो रहे हैं, पर्वत सुन्दर हैं, राजगण शान्त हो गए हैं और इन्द्र मेघों से खेल रहे हैं।


3.

 वर्ष प्रवेगा: विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाता: समुदीर्णवेगा:।

प्रनष्टकूला: प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः।।


शब्दार्थ  :- वर्ष प्रवेगा-वर्षा की झड़ी, विपुला- अधिक/ घनी, पतन्ति- पड़ रही हैं, प्रवान्ति- बह रही है,वाता-वायु समुदीर्णवेगा-अधिक वेग वाली (तेज),नष्टकला- नदियाँ जिन्होंने अपने किनारे तोड़ दिए हैं, प्रवहन्ति- बह रही है, शीध- तेजी से, नद्यो-नदिया, विप्रतिपन्नमार्गा-अपना मार्ग बदलकर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :- वर्षा की अधिक झड़ी पड़ रही है, तेज हवा बह रही है, किनारों को । तोड़कर, अपना रास्ता बदलकर नदियाँ तीव्रता से जल बहा रही हैं।


4. 


घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनमभ्युपैति।

नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः।।


शब्दार्थ :- घनोपगूढं -बादलों से ढका हुआ, गगनं- आकाश, भास्कर: - सूर्य, दर्शनमभ्युपैति -दिखाई दे रहा है, जलौधै-जल की बाढ़ से, धरणी- पृथ्वी; वितृप्ता-तृप्त हो गई, तमः - अन्धकार, विलिप्ता- लिपी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :- नभ मेघों से ढका है, इस कारण न तारे और न सूर्य दिखाई दे रहा है। धरा नई जल की बाढ़ से तृप्त हो गई है। अन्धकार से युक्त दिशाएँ चमक नहीं रही हैं।


5. 

महान्ति कूटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।

महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैर्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः।।


शब्दार्थ- महान्ति -ऊँची, कूटानि - चोटियाँ, महीधारणां - पर्वतों की, धाराविधौतानि-जल की धाराओं से धुले, विभान्ति - शोभित हो रहे हैं, विपुलै-विशाल, प्रपातैः - झरनों से,  लम्बमानैः -लटकते हुए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


हेमन्तः

अनुवाद- पहाड़ों (पर्वतों) की ऊँची-ऊँची चोटियाँ (शिखर) लटकते हुए मोतियों क बड़े हारों के सदृश अर्थात् बड़े-बड़े प्रपातों (झरनों) से अधिक सुशोभित हो रही हैं।


6.


अत्यन्त-सुख सञ्चारा मध्याह्ने स्पर्शत: सुखाः।

दिवसाः सुभगादित्याः छायासलिलदुर्भगाः।


शब्दार्थ - मध्याह्न - दोपहर में, स्पर्शत: - स्पर्श से; सुखा - सुख देने वाले, दिवसा - दिन; सुभगा- सुन्दर; आदित्या.- सूर्य,  छाया- छाया, सलिल - जल (पानी), दुर्भगा- कष्ट देने वाले।


सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम् नामक पाठ के ‘हेमन्त’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद - (इस ऋतु में) दिन अधिक सुख देने वाले, इधर-उधर आने-जाने के योग्य हैं। दोपहर के समय (सूर्य की किरणों के स्पर्श से) दिन सुखदायी हैं, सूर्य के कारण सुख देने वाली शीतकाल के कारण दुःखदायी है, क्योंकि अधिक शीतलता के कारण छाया और जल प्रिय नहीं लगते।





7.


 खजूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः।

शोभन्ते किञ्चिदालम्बा: शालय: कनकप्रभाः।।


शब्दार्थ- खर्जर - खजूर (एक प्रकार का वृक्ष), पुष्पाकतिभिः -पुष्प की

आकृति के,समानशिरोभिः - धान की बालों वाले, पर्णतण्डलै- चावलों से भरी, शोभन्ते - शोभित हो रहे हैं, किञ्चिदालम्बा-  कुछ झुके हुए, शालयः -  धान,  कनकप्रभा- सुनहरी कान्ति वाले (सोने के समान चमक वाले)।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - खजूर के फूल के समान आकृति वाले, चावलों से पूर्ण बालों से कुछ झुके हुए, सोने के समान चमक वाले धान शोभित हो रहे हैं।


8. 


एते हि समुपासीना विहगा: जलचारिणः।-

नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम्॥


शब्दार्थ - एते- ये, समुपासीना-पास बैठे हुए, विहगा: -पक्षी; जलचारिण- जलचर / ननहीं,  अवगाहन्ति - प्रवेश कर रहे हैं, सलिलं - जल, अप्रगल्भा- कायर,  इव - समान (तरह), आवहम- युद्ध में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - जल के समीप बैठे जल में रहने वाले ये पक्षी जल में उसी

प्रकार प्रवेश नहीं कर रहे हैं, जिस प्रकार कायर (व्यक्ति) रणभूमि में प्रवेश नहीं करते।


9. 


      अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः।

      प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा: वनराजयः।।9


शब्दार्थ - अवश्यायतमोनद्धा - ओस के अन्धकार से बँधे हुए, नीहार - कोहरा/ तमसाधुन्ध; आव्रता-ढकी, प्रसप्ता - सोई हुई-सी, लक्ष्यन्ते-प्रतीत हो रही हैं, विपुष्पा- फूलों से रहित, वनराजयः  - वृक्षों की पंक्तियाँ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  ओस के अन्धकार से बँधी, कुहरे की धुन्ध से ढकी, बिना फूलों – की वृक्षों की पंक्तियाँ सोई हुई-सी लग रही हैं।


वसन्तः 

10.

सुखानिलोऽयं सौमित्रे काल: प्रचुरमन्मथः।

गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः॥



शब्दार्थ - सुखानिल-सुखद वायुवाला, सौमित्रे - हे लक्ष्मण, काल: - समय,  प्रचुरमन्मथा - अत्यधिक काम को उद्दीप्त करने वाला,  गन्धवान् - सुगन्ध से युक्त, सुरभिर्मासो - चैत्र मास,  जातः - उत्पन्न हुए, पुष्पं फूल,द्रुम-वृक्षा


सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वसन्तः’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद -  हे लक्ष्मण! सुखद समीर वाला यह समय अति कामोद्दीपक है। सौरभयुक्त इस वसन्त माह में वृक्ष, फूल और फलों से युक्त हो रहे हैं।


11.

पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम्।

सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्ष तोयमुचामिव।।


शब्दार्थ - पश्य- देखो, रूपाणि - रूपों को, पुष्पशालिनाम - फूलों से शोभित, वनानां - वनों की, सृजतां - कर रहे हैं, पुष्पवर्षाणि- फूलों की वर्षा,  तोयमचामिव - बादलों के समान।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - हे लक्ष्मण! जिस प्रकार बादल वर्षा की सृष्टि करते हैं, उसी प्रकार फूल बरसाते हुए फलों से शोभायमान वनों के विविध रूपों को देखो।


12.

 प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधा काननद्रुमाः।

वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम्।।


शब्दार्थ - प्रस्तरेषु-पत्थरों पर, रम्येषु-सुन्दर, विविधा–अनेक प्रकार के,  काननदुमा:-जंगली वृक्ष, वायुवेगप्रचलिता:-हवा के वेग से हिलने के कारण, पुष्पैरवकिरन्ति-फूल बिखेर रहे हैं, गाम्-पृथ्वी को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - वायु-वेग से हिलने के कारण अनेक प्रकार के जंगली वृक्ष सुन्दर पत्थरों एवं धरा पर पुष्प बिखेर रहे हैं।


13. 

अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः।

षट्पदैरनुकूजद्भिः वनेषु मदगन्धिषु।।

शब्दार्थ-  अमी-ये, पवनविक्षिप्ता-हवा से हिलाए गए,  विनदन्तीव-बोल-से रहे हैं, पादपाः-वृक्ष,  षट्पदैः-भौरों से, अनुकूजदिभः-गूंजते हुए, वनेषु-वनों में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- हवा के द्वारा हिलाए गए ये वृक्ष मोहक सुगन्ध वाले वनों में गूंजते हुए भौंरों, से बोल रहे हैं।



14.

 सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान समन्ततः।

हाटकप्रतिसञ्छन्नान् नरान् पीताम्बरानिव।।


शब्दार्थ सुपुष्पितांस्तु - अच्छी तरह फूले हुओं को,  पश्य-देखो,  एतान्–इनको, कर्णिकारान-कनेर के वृक्षों को, समन्तत:-सब ओर से, हाटकप्रतिसञ्छन्नान्–सोने से ढके हुए, नरान् - मनुष्यों को, पीताम्बरानिव-पीताम्बर धारण किए हुए की तरह।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  हे लक्ष्मण! पीले पुष्पों से लदे हुए कनेर के वृक्षों को देखो। इन्हें देखने से ऐसा लगता है कि मानो मनुष्य स्वर्ण आभा वाले पीताम्बर को ओढ़कर बैठे हुए हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न- घनानां स्वनैः के प्रबुद्धाः? |

उत्तर- घनानां स्वनैः प्लवगाः प्रबुद्धाः।

प्रश्न-वर्षौ कां विहाय प्लवगाः नदन्ति?

उत्तर वर्षौ निद्रां विहाय प्लवगा: नदन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले के मत्ता भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गजेन्द्राः मत्ता भवन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले गवेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गवेन्द्राः मुदिता भवन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले नगेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले नगेन्द्राः रम्या भवन्ति।

प्रश्न-वर्षौ गगनं कीदृशं भवति?

उत्तर वर्षौ गगनं घनोपगूढम् अन्धकारपूर्णं च भवति।

प्रश्न-वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना केन कृता?

उत्तर वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना मुक्तया कृता।

प्रश्न-हेमन्तऋतौ दिवसाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर हेमन्तऋतौ दिवसाः अत्यन्तः सुखसञ्चाराः सुभगादित्या च भवन्ति।

हेमन्ते के शोभन्ते?

उत्तर हेमन्ते शालयः शोभन्ते।

प्रश्न-हेमन्ते जलचारिणः कस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति?

उत्तर- हेमन्ते जलचारिणः शीतस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति।

हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः कथं प्रतीयन्ते?

उत्तर- हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः प्रसुप्ताः इव प्रतीयन्ते।

प्रश्न-कः कालः प्रचुरमन्मथः भवति?

उत्तर- वसन्तकालः प्रचुरमन्मथः भवति।

प्रश्न-कः मासः सुरभिर्मासः भवति?

उत्तर- चैत्रः मासः सुरभिर्मासः भवति।

प्रश्न-वसन्तकाले वृक्षाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर- वसन्तकाले वृक्षाः पुष्पफलयुक्ता भवन्ति।

प्रश्न-काननद्रुमः कैः गाम् अवकिरन्ति?

उत्तर- काननद्रुमः पुष्पैः गाम् अवकिरन्ति।

प्रश्न-के गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति?

उत्तर- काननद्रुमाः गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति।

प्रश्न-वसन्तौ कीदृशाः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव

प्रतीयन्ते?

उत्तर- वसन्तौ पुष्पिताः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव

प्रतीयन्ते।

दूतवाक्यम कक्षा-12

दूतवाक्यम


गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.काञ्चकीय: भो भो: प्रतीहाराधिकृताः! महाराजो योधन: समाज्ञापयति- अद्य सर्वैः पार्थिवैः सह मन्त्रयितुम् इच्छामि!

तदाहूयन्तां सर्वे राजान: इति। (परिक्रम्य अवलोक्य) अये! अयं महाराजो दुर्योधन; इत एवाभिवर्तते।

(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टो दुर्योधनः)

काञ्चुकीयः जयतु महाराज:! महाराजशासनात समानीतं सर्व राजमण्डलम्।।

दुर्योधनः सम्यक् कृतम्! प्रविश त्वम् अवरोधम्।

काञ्चकीय: यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्तः, पुनः प्रविश्य)

काञ्चुकीय: जयतु महाराजः। एष खलु पाण्डवस्कन्धावारात् दौत्येनागतः पुरुषोत्तम: नारायणः।

दुर्योधनः मा तावद् भोः बादरायण! किं किं कंसभृत्यो दामोदरस्तव नारायणः। स गोपालकस्तव पुरुषोत्तमः। ब्राहद्रथापहृतविजयकीर्तिभोगः तव पुरुषोत्तमः।

अहो! पार्थिवासन्नमाश्रितस्य भृत्यजनस्य समुदाचारः। क एष दूत: प्राप्तः।

काञ्चुकीयः प्रसीदतु महाराजः/दूतः प्राप्त: केशवः।


शब्दार्थ प्रतीहाराधिकृताः पहरेदारों, समाज्ञापयति आज्ञा देते हैं. अब आज पार्थिवः सह-राजाओं के साथ मन्त्रयितुम-

मन्त्रणा परिक्रम्य घमकर अवलोक्य देखकर जयतु जय हो. शासनात्-आज्ञा से, समानात बुला लिया गया है, सम्यक-

ठीक कृतम्-किया: अवरोधम् रनिवारा, प्रविश्य प्रवेश करके, पाण्डवरकन्याबारात्-पाण्डवों के शिविर से प्राप्तः आया है।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘दूतवाक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। ।


अनुवाद कांचकीय हे पहरेदारों महाराज दुर्योधन आज्ञा देते हैं, “मैं आज सभी राजाओं के साथ मन्त्रणा (विचार-विमर्श) करना चाहता

हैं, इसलिए सभी राजाओं को बुलाओ।”(घूमकर देखते हुए)”अरे! ये महाराज दुर्योधन तो इधर ही आ रहे हैं।” (तब जैसा कि निर्दिष्ट किया

गया, दुर्योधन प्रवेश करता है)

कांचुकीय महाराज की जय हो। महाराज की आज्ञा के अनुसार सम्पूर्ण राजमण्डल को बुला लिया गया है।

दुर्योधन अच्छा किया। तुम रनिवास में जाओ।

कांचुकीय जैसी आज्ञा महाराज। (निकलकर पुनः प्रवेश करता है) ।

कांचुकीय महाराज की जय हो। निश्चय ही पाण्डव शिविर से दूतरूप में पुरुषोत्तम नारायण (श्रीकृष्ण) पधारे हैं।

दुर्योधन हे बादरायण! ऐसा मत कहो। क्या कंस का सेवक दामोदर तेरा नारायण (भगवान) है? वह ग्वाला तेरा पुरुषोत्तम है! जरासन्ध

द्वारा छीन लिया गया विजय-यशवाला तेरा पुरुषोत्तम है! अरे! राजा के समीप रहने वाले सेवक का यही शिष्टाचार है? कहो, कौन-सा दूत आया है?

कांचुकीय महाराज प्रसन्न हो। केशव नामक दूत आया है।


2 दर्योधनः केशवः इति, एवमेष्टव्यम्! अयमेव समुदाचारः।।

भो भोः राजानः!

दौत्येनागतस्य केशवस्य किं युक्तम्। किमाहुर्भवन्तः ‘अर्घ्यप्रदानेन

पूजयितव्य: केशवः’ इति। न मे रोचते। ग्रहणे अत्र अस्य हितं पश्यामि।

ग्रहणमुपगते तु वासुदेवे, हृतनयना इव पाण्डवाः भवेयुः।।

गतिमतिरहितेषु पाण्डवेषु, क्षितिरखिलापि भवेन्ममासपत्ना।।

अपि च योऽत्र केशवस्य प्रत्युत्थास्यति स मया द्वादशसुवर्णभारेण

दण्ड्यः । तदप्रमत्ता भवन्तु भवन्तः। कोऽत्र भो


शब्दार्थ समुदाचार-शिष्टाचार; राजानः-राजाओं; किं-क्या;

युक्तम्-उचित; आहु-कहते हैं; भवन्त-आप; पूजयितव्यः-पूजा करनी

चाहिए; न-नहीं; से मुझे; रोचते-अच्छा लगता है; ग्रहणे-पकड़ने।

में; ग्रहणमुपगते-बन्दी बना लेने से; हृतनयन-नेत्रहीन; भवेयुः-हो

जाएँगे; गतिमतिरहिते-गति एवं मतिविहीन हो जाने पर

क्षितिरखिला-िसम्पूर्ण पृथ्वी; यो-जो; प्रत्युत्थास्यति- खड़ा होगा:

मय-मैं (मेरे द्वारा); द्वादशसुवर्णभारेण- बारह सुवर्ण मुद्राओं से;

दण्ड्यः – दण्डित करूँगा; तदप्रमत्ता-सावधान; भवन्तः-आप सब;

कोऽयहाँ कौन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन केशव! हाँ, यही उचित है। यही शिष्टाचार है।।

हे राजाओं! दूतरूप में आए केशव के लिए क्या उचित है?

आप लोगों का क्या कहना है? अर्घ्य अर्पित कर केशव को पूजना चाहिए! मझे यह नहीं भाता। यहाँ उसे पकड़ लेने (बन्दी बना लेने) में ही मुझे हित दिखता है। वासुदेव को बन्दी बना लेने से पाण्डव नेत्रहीन हो जाएँगे। पाण्डवों के गतिविहीन एवं मतिविहीन हो जाने पर मेरे लिए सम्पूर्ण पृथ्वी शत्रु-रहित हो जाएगी। और जो भी यहाँ केशव की ओर से खड़ा होगा, उसे मैं.बारह स्वर्ण मुद्राओं से दण्डित करूँगा। अतः आप सब सावधान रहें। अरे! यहाँ कौन है?


3, काञ्चुकीयः जयतु महाराजः।

दुर्योधनः बादरायण! आनीयतां स विहगवाहनमात्रविस्मितो दूतः।

काञ्चुकीयः यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्त:)

दुर्योधनः वयस्य कर्ण!

प्राप्तः किलाद्य वचनादिह पाण्डवानां ।

दौत्येक भृत्य इव कृष्णमति: स कृष्णः।

श्रोतुं सखे! त्वमपि सज्जय कर्ण कर्णौ

नारीमृदूनि वचनानि युधिष्ठिरस्य।।

वासुदेवः अद्य खलु धर्मराजवचनात् मित्रतया चाहवदर्पम्

अनुक्तग्राहिणं दुर्योधनं प्रति मयापि अनुचितदौत्य-

समयेऽनुष्ठितः।

दुष्टवादी गुणद्वेषी शठः स्वजननिर्दयः।

सुयोधनो हि मां दृष्ट्वा नैव कार्यं करिष्यति।।

भो बादरायण! अपि प्रवेष्टव्यम्?


शब्दार्थ आनीयता बुलाओ, विहगः-पक्षी; वयस्य-मित्र प्राप्त:-आया है; वचनात्-कहने से; इह-यहाँ; दौत्येक-दूत रूप में; भृत्य इव-सेवक के सदृश; कृष्णमति-कुटिल बुद्धि वाला; नारीमृदूनि-नारी के सदृश कोमल; वचनानि-वचन; युधिष्ठिरस्य युधिष्ठिर के खलु-निश्चय ही;

धर्मराजवचनात्-युधिष्ठिर के कहने से; मित्रतया मित्रता के कारण; अपि- क्या; दुष्टवादी-बुरे वचन बोलने वाला; गुणद्वेषी-गुणों से द्वेष रखने वाला; शठ-दुष्ट, स्वजननिर्दयः-स्वजनों के प्रति निर्दयी; मां-मुझको; दृष्ट्वा-देखकर; नैव-नहीं; कार्य-कार्य; करिष्यति-करेगा;

प्रवेष्टव्यम्-प्रवेश करें।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद कांचुकीय महाराज की जय हो। ।

दुर्योधन बादरायण! पक्षी के वाहन-मात्र से घमण्डी उस दूत को बुलाओ।

कांचुकीय महाराज की जैसी आज्ञा। (निकल गया)

दुर्योधन मित्र कर्णी

निश्चय ही पाण्डवों के कहने पर कुटिल बुद्धि वाला कृष्ण आज दूत रूप में सेवक सदृश यहाँ आया है। हे कर्ण! युधिष्ठिर के नारी के सदृश कोमल वचन सुनने के लिए तुम भी अपने कानों को तैयार कर लो।

वासदेव आज मैंने निश्चय ही युधिष्ठिर के कहने से मित्रता के कारण युद्ध का घमण्ड रखने वाले और कही बातों को न मानने वाले दुर्योधन के लिए अनुचित दूत का कार्य चुना है। बुरे वचन बोलने वाला, गुणों से द्वेष रखने वाला, दुष्ट और स्वजनों के प्रति निर्दयी दुर्योधन मुझे देखकर कार्य नहीं करेगा। हे बादरायण! आप

भी प्रवेश करें।


4 काञ्चुकीयः अथ किम् अथ किम्। प्रवेष्टुमर्हति पद्मनाभः।

वासुदेवः (प्रविश्य स्वगतम्) कथं कथं मां दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः

सर्वे क्षत्रियाः। (प्रकाशम) अललमं सम्भ्रमेण,

स्वैरमासतां भवन्तः।

दुर्योधनः कथं कथं केशवं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः सर्वे क्षत्रियाः।

अलम अलं सम्भ्रमेण। स्मरणीयः पर्वमाश्रावितो दण्डः।

ननु अहम् आज्ञप्ता।

भोः सुयोधन! किं भणसि।

दुर्योधनः (आसनात् पतित्वा आत्मगतम्) सुव्यक्तं प्राप्त एव

केशवः।

उत्साहेन मतिं कृत्वाप्यासीनोऽस्मि समाहितः।

केशवस्य प्रभावेण चलितोऽस्म्यासनादहम्।।


शब्दार्थ अथ किम अवश्य ही प्रवेष्टमर्हति-प्रवेश के अधिकारी हैं:

पद्मनाभः-श्रीकृष्णः प्रविश्य-प्रवेश करके कथं- क्यों मां-मुझको;

दृष्ट्वा -देखकर; सम्भ्रान्ताः-घबरा गए; उत्साहेन-उत्साह से; मति-

विचार (बुद्धि); कृत्व-करके, अस्मि-हूँ: केशवस्य-श्रीकृष्ण के;

प्रभावेण-प्रभाव से।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद कांचुकीय निश्चय ही, निश्चय ही। श्रीकृष्ण! आप प्रवेश के

अधिकारी हैं।

वासुदेव (प्रवेश करके मन-ही-मन में) क्यों, मुझे देखकर सभी क्षत्रिय क्यों घबराए हुए हैं? (प्रकट रूप में) घबराएँ नहीं, आप सब निश्चिन्त होकर बैठें।।

दुर्योधन क्या, क्या, सभी क्षत्रिय केशव को देखकर घबरा उठे हैं! मत घबराएँ। पूर्व में सुनाए गए दण्ड को स्मरण रखें। निःसन्देह, मैं आज्ञा देने वाला हूँ।

वासुदेव हे दुर्योधन! क्या कहते हो?


दुर्योधन (आसन से गिरकर स्वयं ही मन में) सुस्पष्ट है, केशव आ गया है। उत्साहपूर्वक मन में दृढ़ निश्चय करके मैं अत्यधिक सावधान बैठा हूँ, किन्तु केशव के प्रभाव से मैं आसन से विचलित हो गया हूँ।


5 अहो! बहुमायोऽयं दूतः। (प्रकाशम्) भो दूत! एतदासनमास्यताम्।

वासुदेवः आचार्य! आस्यताम्। गाङ्गेयप्रमुखा: राजानः! स्वैरम्

आसतां भवन्तः।

वयमपि उपविशामः। (उपविशति)


शब्दार्थ अहो! -अरे;बहुमायोऽयं -बहुत मायावी है,दूतः -दूत

(संदेशवाहक);प्रकाशम् -प्रकट रूप में एतदासनमास्यताम् -इस आसन पर बैठो,आस्यतां -बैठिए,स्वैरम् -आराम से;आसतां -बैठे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद अरे! यह दूत बहुत मायावी है (प्रकट रूप में) हे दूत! इस आसन पर बैठो।

वासुदेव हे आचार्य! आप बैठिए। हे भीष्म आदि राजाओं! आप सब आराम से बैठिए। हम भी बैठते हैं। (बैठ जाते हैं।


6 दुर्योधन धर्मात्मजो वायुसुतश्च भीमो भ्रातार्जुनो मे त्रिदशेन्द्रसूनुः

यमौ च तावश्विसुतौ विनीतौ सर्वे सभृत्या: कुशलोपपन्ना।।


शब्दार्थ धर्मात्मजो -धर्म के पुत्र (युधिष्ठिर);वायुसुतः –वायु के पुत्र

(भीम);भ्राता -भाई,मे –मेरा;त्रिदशेन्द्रसूनुः -देवताओं के राजा इन्द्र का पुत्र (अर्जुन) यमौ -जुड़वाँ,तावश्विसुतौ -वे दोनों अश्विनीकुमारों के पुत्र (नकुल-सहदेव);सर्वे -सभी;सभृत्या – सेवकों सहित।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद धर्म के पुत्र (युधिष्ठिर) और वायुपुत्र भीम, मेरे भाई और इन्द्र के पुत्र अर्जुन, जुड़वाँ वे दोनों अश्विनी कुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव सभी सेवकों सहित कुशल हैं।


7 वासुदेवः कुशलिन: सर्वे भवतो राज्ये शरीरे च कुशलमनामयं च

पृष्ट्वा विज्ञापयन्ति

अनुभूतं महदुःखं सम्पूर्णः समय: स च।।

अस्माकमपि धर्म्यं यद् दायाद्यं तद् विभज्यताम्।।।


शब्दार्थ कुशलिन: -कुशल,अनामयं -नीरोग:पृष्ट्वा -पूछकर;

विज्ञापयन्ति -सूचित करते हैं,अनुभूतं -अनुभव किया,महद्दुःखं – बड़ा

दुःख,अस्माकमपि -हमारा भी,यद् -जो दायाद्यं -उत्तराधिकार में प्राप्त

सम्पत्ति विभज्यताम -बाँट दो।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव सब कुशलतापूर्वक हैं। आपके राज्य की कुशलता और शरीर के स्वास्थ्य को पूछकर निवेदन करते हैं-

(हमने) अधिक कष्ट भोग लिया है। अब वह शर्त भी पूरी हो गई है। अतः धर्म के अनुसार जो भी देने योग्य हो, वह बाँट दीजिए।


8 दुर्योधनः कथं कथं। दायाद्यमिति। भो दूत! न जानाति भवान्

राजव्यवहारम्

राज्यं नाम नृपात्मजैस्सहृदयैर्जित्वा रिपून भुज्यते।

तल्लोके न तु याच्यते न च पुनर्दीनाय वा दीयते।।

काङ्क्षा चेन्नृपतित्वमाप्तुमचिरात् कुर्वन्तु ते साहसम्।

स्वैरं वा प्रविशन्तु शान्तमतिभिर्जुष्टं शमायाश्रमम्।।


शब्दार्थ कथं -कैसे, क्यों; भो दूत -अरे दूत;न -नहीं जानाति – जानते

हैं:भवान् -आप,नृपात्मजै: -राजकुमारों के द्वारा;जित्वा – जीतकर;

रिपून् -शत्रुओं को भुज्यते -भोगा जाता है:तल्लोके -वह संसार में ।

याच्यते -माँगा जाता है,दीनाय -निर्धन के लिए दीयते – दिया जाता है;

काङ्क्षा –चाह:कुर्वन्तु -करें;साहसम् -साहस जुष्टं – प्रसन्नतापूर्वक;

शमाय – शान्ति के लिए आश्रमम् – वानप्रस्थाश्रम।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन क्या-क्या। उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति| अरे दूत! आप राजव्यवहार को नहीं जानते हैं।

सहृदय राजकुमारों के द्वारा राज्य तो शत्रुओं को जीतकर भोगा जाता है। वह न तो लोक (संसार) में माँगा जाता है तथा न ही किसी निर्धन व्यक्ति को प्रदान किया जाता है। यदि उन्हें (पाण्डवों को) राज पाने की चाह हो तो साहस करें, अन्यथा शान्ति हेतु शान्त चित्त वाले तपस्वियों से युक्त आश्रम में प्रवेश करें।


9 वासुदेवः भोः सुयोधन! अलं बन्धुजने परुषमभिधातुम्

कर्त्तव्यो भ्रातृषु स्नेहो विस्मर्तव्या गुणेतराः।

सम्बन्धो बन्धुभिः श्रेयान् लोकयोरुभयोरपि।।


शब्दार्थ भोः सुयोधन! -अरे दुर्योधन,अलं -बस करो;बन्धुजने –

भाइयों को परुषम् -कठोर,अभिधातुम् -कहना भ्रातृषु –भाइयों से;

स्नेह -प्रेम विस्मर्तव्या –भुला देना चाहिए;गुणेतराः -अवगुणों को;

सम्बन्धो –मेल-मिलाप रखना;बन्धुभिः -भाइयों से;श्रेयान् –

मंगलकारी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव अरे दुर्योधन! भाइयों को कठोर वचन कहना बन्द करो। भाइयों से स्नेह करना कर्त्तव्य है। उनके अवगुणों को भुला देना चाहिए। भाइयों से

मेल-मिलाप रखना दोनों ही लोकों में मंगलकारी होता है।


10 दुर्योधनः

देवात्मजैर्मनुष्याणां कथं वा बन्धुता भवेत्।

पिष्टपेषणमेतावत् पर्याप्तं छिद्यतां कथा।।


शब्दार्थ देवात्मजैः -देवपुत्रों के साथ कथं -कैसे;बन्धुता – भाईचारा;

पिष्टपेषणम् -बार-बार कहना:छिद्यतां -बन्द कीजिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन देवपुत्रों के साथ मनुष्यों का भाईचारा कैसे हो सकता है? बार-बार कहना पर्याप्त हो चुका, अब इस कथा को बन्द कीजिए।


12 वासुदेवः भोः सुयोधन! किं न जानासि अर्जुनस्य पराक्रमम्।

दुर्योधन: न जानामि।

वासुदेव: भोः श्रूयताम्, एकेनैव अर्जुनेन तदा विराटनगरे

भीष्मादयो निर्जिताः। अपि च चित्रसेनेन नभस्तलं

नीयमानस्त्वं फाल्गुनेनैव मोचितः। अत:-

दातुमर्हसि मद्वाक्याद् राज्यार्द्ध धृतराष्ट्रज।

अन्यथा सागरान्तां गां हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः॥


दर्योधनः-कथं कथं हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः।

प्रहरति यदि युद्धे मारुतो भीमरूपी

प्रहरति यदि साक्षात्पार्थरूपेण शक्रः।

परुषवचनदक्ष! त्वद्ववचोभिर्न दास्ये

तृणमपि पितृभुक्ते वीर्यगुप्ते स्वराज्ये।।


शब्दार्थ किं-क्या;न -नहीं जानासि -जानते हो; श्रूयताम -सुनिए;

एकेनैव -अकेले ही;तदा -तब चित्रसेनेन -चित्रसेन से;मोचितः –

छुड़ाया गया था; दातुमर्हसि -दे देना चाहिए;मद्वाक्याद् -मेरे

कथन के अनुसार राज्याई -आधा राज्य धृतराष्ट्रज-धृतराष्ट्र के

पुत्र (दुर्योधन);सागरान्तां -समुद्र के अन्त तक की;गां -पृथ्वी;

हरिष्यन्ति -छीन लेंगे;पाण्डवाः -पाण्डव:प्रहरति -प्रहार करता है;

युद्ध -युद्ध में पार्थरूपेण – अर्जुन रूप में शक्र: -इन्द्रः |

परुषवचनदक्ष! -कटु वचन बोलने में दक्ष, (कृष्ण);त्वद्वचोभिः –

तुम्हारे कहने से;दास्ये -दूंगा;तृणमपि – तिनका भी;पितृभुक्ते –

पिता द्वारा भोगे गए;वीर्यगुप्ते -पराक्रम से संरक्षित।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद

वासुदेव-हे दुर्योधन! क्या अर्जुन के पराक्रम को नहीं जानते?

दुर्योधन-नहीं जानता।

वासुदेव-हे (दुर्योधन) सुनो! विराटनगर में अर्जुन ने अकेले ही भीष्म

आदि को जीता था तथा अर्जुन ने ही तुम्हें आकाश में ले जाते हुए चित्रसेन से छुड़ाया था।


हे धृतराष्ट्रकुमार! तुम्हें मेरे कथन के अनुसार राज्य का आधा भाग दे

देना चाहिए अन्यथा पाण्डव (निश्चय ही) समुद्र के अन्त तक की धरती तुमसे छीन लेंगे।

दुर्योधन कैसे, पाण्डव कैसे छीन लेंगे।

कटुवचन बोलने में दक्ष हे कृष्ण! यदि युद्ध में स्वयं वायु देव भी भीम रूप में प्रहार करें तथा साक्षात् इन्द्र भी अर्जुन रूप में प्रहार करें तो भी (मैं) तुम्हारे कहने से पिता द्वारा भोगे गए, पराक्रम से संरक्षित अपने राज्य का तिनका भी नहीं दूंगा।


13 वासुदेव: भोः कुरुकुलकलङ्कभूत!

दुर्योधन: भोः गोपालक!

वासुदेव: भोः सुयोधन ! ननु क्षिपसि माम।

दुर्योधनः आः अनात्मज्ञस्त्वम्। अहं कथयामि यद्

भवविधैः सह न भाषे।

वासुदेव: भोः शठ! त्वदर्थात् अयं कुरुवंशः अचिरान्नाशमेष्यति।

भो भोः राजानः! गच्छामस्तावत्।

दुर्योधनः कथं यास्यति किल केशवः। भोः दुःशासन!

दूतसमुदाचारमतिक्रान्त: केशव: बध्यताम्।

मातुल! बध्यतामयं केशव:। कथं पराङ्मुखः

पतति। भवतु अहमेव पाशैर्बध्नामि (उपसर्पति)।

वासुदेव: कथं बद्धकामो मां किल सुयोधनः। भवतु,

सुयोधनस्य सामर्थ्यं पश्यामि (विश्वरूपमास्थित:)।


शब्दार्थ कुरुकूलकलभता-हे कुरुवंश के कलंक;भो: गोपालक-हे ग्वाले; क्षिपसि-आक्षेप करते हो;अनात्मज्ञः -अपने से अनभिज्ञासह -साथ;न भाषे -नहीं बोलता;शठ -मूर्ख;बध्यताम -बाँध दो;मातुल -मामा; पराङ्मुखः -उल्टे मुँह।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव हे कुरुवंश के कलंक!

दुर्योधन हे ग्वाले!

वासुदेव हे दुर्योधन! मुझ पर आक्षेप करते हो।

दुर्योधन अरे, तू स्वयं से अनभिज्ञ है। मैं कह देता हूँ कि तुझ जैसों से मैं नहीं बोलता।

वासुदेव हे मूर्ख! तेरे कारण यह कुरुवंश शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। हे, हे राजाओं! हम जाते हैं।

दुर्योधन केशव भला कैसे चला जाएगा! हे दुःशासन! दूत की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले केशव को बाँध दो। मामा! इस केशव को बाँध दो। (अरे आप) उल्टे मुँह क्यों गिर रहे हैं? अच्छा, इसे मैं ही बन्धन से बाँधता हूँ (समीप जाता है)।

वासुदेव क्या, दुर्योधन मुझे बाँधना चाहता है? अच्छा, देखू दुर्योधन की सामर्थ्य (विराटप धारण करते हैं)।


14 दुर्योधन:-भो दूत!

सृजसि यदि समन्ताद् देवमाया: स्वमायाः

प्रहरसि यदि वा त्वं दुर्निवारैस्सुरास्त्रैः।

हयगजवृषभाणां पातनाज्जातदो।

नरपतिगणमध्ये बध्यसे त्वं मयाद्य।।


आ: तिष्ठ इदानीम्। कथं न दृष्ट: केशव:? अहो ह्रस्वत्वं केशवस्य। आः तिष्ठ इदानीम कथं न दष्ट: केशव:! अहो दीर्घत्वं केशवस्य। कथं न दृष्टः केशवः! अयं केशवः। कथं सर्वत्र शालायां केशवा एव केशवा: दृश्यन्ते! किम् इदानीं करिष्ये! भवतु, दृष्टम्। भो राजानः! एकेन एक: केशवः बध्यताम्। कथं स्वयमेव पाशैर्बद्धाः पतन्ति राजानः। (निष्क्रान्ताः सर्वे)


शब्दार्थ सजसि -रच दो;समन्ताद -चारों ओर प्रहरसि -प्रहार करो;

हय -घोड़े,गजः -हाथियों वषभाणां -बैलों;पातनाज्जातदों – मारने से

उत्पन्न घमण्ड वाले,नरपतिगणमध्ये -राजाओं के मध्य;बध्यसे -बाँधूंगा;

आः -अरे;तिष्ठ -ठहर इदानीम -अब कथं -क्यों हस्वत्वं -सूक्ष्मता; ।

दीर्घत्वं -विशालता,शालायां -सभा में करिष्ये – करूँ पतन्ति -गिर रहे हैं; राजानः -राजागण:निष्क्रान्ताः सर्वे – सभी निकलते हैं।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन अरे दूत!

यदि तुम चारों ओर अपनी देवमाया रच दो, यदि तुम अबाध दिव्यास्त्रों से प्रहार

करो, घोड़े, हाथियों एवं बैलों को मारने से उत्पन्न घमण्ड वाले, आज मैं (इन) राजाओं

के मध्य तुम्हें बाँधूंगा।

अरे! अब ठहर! क्यों नहीं दिख रहा केशव? अरे! केशव की सूक्ष्मता! अरे! अब ठहर। केशव क्यों नहीं दिख रहा? अरे! केशव की विशालता। क्यों नहीं दिख रहा केशव? यह है केशव! क्या इस सभा में सर्वत्र केशव-ही-केशव दिख रहा है? अब मैं।

क्या करूँ? अच्छा, समझा। हे राजाओं! (आप में से) प्रत्येक एक केशव को बाँधे। क्या बन्धन में बँधे राजागण स्वयं ही गिर रहे हैं! (सभी निकलते हैं)


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


पाण्डवदूतः कः आसीत्?

उत्तर पाण्डवदूतः श्रीकृष्णः आसीत्।

श्रीकृष्ण कस्य समीपे दौत्येन गतः?

अथवा श्रीकृष्ण: दूतरूपेण कुत्र गतः?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य समीपे दौत्येन गतः।

वासुदेवः कस्य दौत्येन कुत्र गतः? .

उत्तर वासुदेवः युधिष्ठिरस्य दौत्येन दुर्योधनस्य समीपे गतः।।

दुर्योधनः कर्णं किम् अवोचत्?

उत्तर दुर्योधनः कर्णम् अवोचत्-सखे कर्ण! त्वमपि युधिष्ठिरस्य नारीमृदूनि वचनानि श्रोतुं कर्णो सज्जया

पद्मनाभः कः आसीत्?

उत्तर पद्मनाभः श्रीकृष्णः आसीत्।

सर्वे क्षत्रियाः कं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः?

उत्तर सर्वे क्षत्रियाः श्रीकृष्णं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः।

पूर्वम् श्रावितः कः स्मरणीय?

उत्तर पूर्वम् श्रावितः दण्डः स्मरणीय।

दुर्योधन: कैः सह मन्त्रयितुम इच्छामि?

उत्तर दुर्योधनः पार्थिवैः सह मन्त्रयितुम् इच्छामि।

कस्मात् दूतः आगतः?

उत्तर पाण्डवस्कन्धावारात् दूतः आगतः।

दुर्योधनः श्रीकृष्णं किम् अपृच्छत्?

उत्तर दुर्योधनः श्रीकृष्णं अपृच्छत् यत् तस्य भ्रातरः अपि कुशलिनः।

के महदुःखम् अनुभूतम्?

उत्तर पाण्डवाः महदुःखम् अनुभूतम्।

दीनाय किं न दीयते?

उत्तर दीनाय राज्यं न दीयते।

श्रीकृष्ण: दुर्योधनस्य किमपरं नाम वदति?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य अपरं नाम ‘सुयोधन’ इति वदति।।

केन विराटनगरे भीष्मादयः पराजिताः?

उत्तर अर्जुनेन विराटनगरे भीष्मादयः पराजिताः।

पाण्डवाः कां हरिष्यन्ति?

उत्तर पाण्डवाः गां हरिष्यन्ति।

दुर्योधनः पाण्डवान् किं न दास्यति? |

उत्तर दयोधनः पाण्डवान् तृणमपि न दास्याता

कः कुरुकुलकलङ्क भूतः?

उत्तर दुर्योधनः कुरुकुलकलङ्क भूतः।

दुर्योधनः गोपालकः कम् अकथयत्?

उत्तर दुर्योधनः गोपालकः श्रीकृष्णम् अकथयत्।

श्रीकृष्णः कस्य सामर्थ्यं पश्यति?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य सामर्थ्यं पश्यति।

श्रीकृष्णस्य कानि रूपाणि अभवन्?

उत्तर श्रीकृष्णस्य अनेकानि रूपाणि अभवन।

सर्वे राजानः कैः बद्धाः स्वयमेव पतन्ति?

उत्तर सर्वे राजानः पाशैः बद्धाः स्वयमेव पतन्ति।

दुर्योधनः कस्य पुत्रः आसीत्? –

उत्तर दुर्योधनः धृतराष्ट्रस्य पुत्रः आसीत्।


8-सुभाषितरत्नानि कक्षा-12

सुभाषितानि

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

प्रश्नोत्तर केवल कला वर्ग के छात्रों/छात्राओं के लिए।

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा. दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।

तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।।


शब्दार्थ भाषासु-भाषाओं में, मुख्या-मुख्य, गीर्वाणभारती-देववाणी (संस्कृत); तस्या-उसका; तस्मादपि-उससे भी अधिक,सुभाषितम्-सुन्दर उक्ति।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद (सभी) भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियों) हैं।


2.

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।


शब्दार्थ- सुखार्थी-सुख चाहने वाला, विद्या-विद्या, विद्यार्थी-विद्या प्राप्त करने वाला, त्यजेत्-छोड़ देनी चाहिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या (पाने की चाह) त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।


3.

 जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।

स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।


शब्दार्थ- जल-बिन्दु-निपातेन-जल की बूंद गिरने से, क्रमश:-एक के बाद एक, पूर्यते-भर जाता है; घट:-घड़ा; हेतु:-कारण, सर्वविद्यानां- सभी विद्याओं का,धर्मस्य-धर्म का, धनस्य-धन का,च-और।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - बूँद-बूँद जल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।


4.

 काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।


शब्दार्थ- काव्यशास्त्र-विनोदेन-काव्य और शास्त्र की चर्चारूपी मनोरंजन से, काल:-समय, गच्छति-जाता है, व्यतीत होता है, धीमताम् -बुद्धिमानों का, व्यसनेन -बुरी बादत से, मूर्खाणां-मुखों का, निद्रया-नींद से, कलहेन -विवाद से, वा-अथवा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा-झंझट में (व्यतीत होता है)।


5.

 न चौरहार्यं न च राजहार्य

न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं

विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।


शब्दार्थ- चौरहार्य-चोर द्वारा चुराया जा सकता है, राजहार्य-राजा द्वारा छीना जा सकता है, भ्रातृभाज्यं- भाईयों द्वारा बाँटा जा सकता है, भारकारि- बोझ बनता है, व्यये-खर्च करने पर, वर्द्धते एव -बढ़ता है, नित्यं -प्रतिदिन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है। ।

•विशेष (i) शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’ ।

(ii) इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है

“सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।

ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात।।”


6.

 परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।


शब्दार्थ परोक्षे-पीठ पीछे कार्यहन्तारं -कार्य को नष्ट करने वाले,प्रत्यक्षे-सामने प्रियवादिनम् -प्रिय बोलने वाले को वर्जयेत् -त्याग देनाचाहिए, तादृशम् -वैसे ही; विषकुम्भम् -विष के घड़े को; पयोमुखम् -मुख में या ऊपरी हिस्से में दूधवाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पीठ पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।


7.

 उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।

सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।


शब्दार्थ- उदेति -उदित होता है सविता -सूर्य, ताम्र: -लाल, एव -ही,  अस्तमेति -अस्त होता है, सम्पत्तौ -सुख में, विपत्तौ -दुःख में, एकरूपता – समरूप या एक-जैसा होना।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (द:ख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दु:ख में हतोत्साहित। ।


8.

 विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।

खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।


शब्दार्थ- विवादाय-वाद-विवाद के लिए,  मदाय -घमण्ड के लिए, परेषां -दूसरों को, परिपीडनाय-कष्ट पहुँचाने के लिए,खलस्य –दुष्ट की, साधो: -सज्जन की, विपरीतमेत -इसके विपरीत, ज्ञानाय-ज्ञान के लिए, दानाय-दान के लिए,रक्षणाय-रक्षा के लिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद- दृष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।


9.

 सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।

वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।


शब्दार्थ- सहसा -बिना विचार किए,  विदधीत -करना चाहिए, क्रियाम् -कार्य को अविवेक/अज्ञान, परमापदां -घोर संकट, पदम् –स्थान, वृणुते -वरण करती हैं, विमृश्यकारिणं -विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का, गुणलुब्धाः –गुणों की लोभी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- बिना सोचे-विचारे (कोई भी) कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले (व्यक्ति) का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अब यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।


10.

 वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।।

लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।


शब्दार्थ- वज्रादपि -वज्र से भी,मृदूनि -कोमल, कुसुमादपि -फूल से भी;लोकोत्तराणाम् –अलौकिक व्यक्तियों के चेतांसि -चित्त को, विज्ञातुमर्हति -जान सकता है।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- असाधारण पुरुषों (अर्थात् महापुरुषों) के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को (भला) कौन जान सकता है?


11.

 प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स: पुत्रो

यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।

तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्

एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।


शब्दार्थ- प्रीणाति-प्रसन्न करता है; यः-जो, सुचरितैः -अच्छे आचरण से, तत्-वह; कलत्रम्-स्त्री,  मित्रम्-मित्र, आपदि-आपत्ति में, समक्रियम्-समान व्यवहार वाला, पुण्यकृतो-पुण्यवान् व्यक्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला) चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।


12.

 कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी

कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।

शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां

धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः॥


शब्दार्थ- कामान्-इच्छाओं को दुग्धे पूर्ण करती है,

विप्रकर्षत्यलक्ष्मीम् अलक्ष्मी को दूर करती है, सूते-जन्म देती है,  हिनस्ति-नष्ट करती है, मातर-माता, मङ्गलाना- मंगलों की, धेनुं-गाय, सूनताम-सत्य एवं प्रिय।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती (अर्थात् पूर्ण करती) है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति (अर्थात् यश) को जन्म देती है एवं पाप का नाश करती है। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली गाय बताया गया है।


13.

व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः

न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतय: संश्रयन्ते।

विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं

द्रवति च हिमरश्मावुद्गते: चन्द्रकान्तः।।


शब्दार्थ- व्यतिषजति-मिलाता है, आन्तर:-आन्तरिक, कोऽपि-कोई भी, हेतु:-कारण, बहिरुपाधीन्-बाह्य कारणों पर, संश्रयन्ते-आश्रित होता है, विकसति- खिलता है, पतङ्गस्योदय-सूर्य के उदय होने पर,

पुण्डरी- कमल, द्रवति-पिघलती है, हिमरश्मावदगते- चन्द्रमा के निकलने पर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती: जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती है।


14.

 निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मी माविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।


शब्दार्थ- निन्दत्-निन्दा करे, नीतिनिपणा-नीति में दक्ष की, स्तवन्त- स्तुति करे, यथेष्टम् - इच्छानुसार, अद्यै-आज ही, न्याय्यात्-न्यायोचित, पथ-मार्ग से प्रविचलन्-िडोलते हैं, पदम्-पगभर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। ।

इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।


15.

 ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।

सा योनि: सर्ववैराणां सा हि लोकस्य नितिः।।


शब्दार्थ- ऋषयः-ऋषियों ने, राक्षसीमाह-राक्षसी कहा है, वाचम्-वाणी,उन्मत्तदप्तयो-मतवाले और अहंकारी की,योनि-उत्पन्न करने वाली, सर्ववैराण-सभी प्रकार के बैरों को,लोकस्य-लोक की; निति-विपत्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी (लोगों) की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो सभी प्रकार के वैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति (का हेतु) होती है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न-सुखार्थिनः किं त्यजेत्?

उत्तर- सुखार्थिनः विद्यां त्यजेत्।

प्रश्न-विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्?

अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत्?

उत्तर- विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।

प्रश्न-केन क्रमशः घटः पूर्यते?

उत्तर- जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः घटः पूर्यते।

प्रश्न-स्तोकं-स्तोकं कृत्वा केषां संचय भवति?

उत्तर- स्तोकं स्तोकं कृत्वा विद्या, धर्म, धनं च एतेषां त्रयाणां संचयं भवति।

प्रश्न-धीमतां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।

प्रश्न-मूर्खाणां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न-विद्याधनं कथं सर्वधनप्रधानम् अस्ति?

उत्तर- विद्याधनं व्यये कृते वर्धते, अस्मात् कारणात् सर्वधनप्रधानम् अस्ति।

प्रश्न-सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?

उत्तर- सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।

प्रश्न- कीदृशं मित्रं त्यजेत्?

उत्तर- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् एतादृशं मित्रं त्यजेत्।।

प्रश्न-भानुः उदिते समये कीदृशं भवति?

उत्तर- भानुः उदिते समये ताम्रः भवति।

प्रश्न-खलस्य विद्या किमर्थं भवति?

उत्तर- खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न-सहसा किं न कुर्यात्?

उत्तर- सहसा कार्यं न कुर्यात्।

प्रश्न-अज्ञानं केषां पदम् अस्ति?

उत्तर- अज्ञानं परमापदां पदम् अस्ति।

प्रश्न-लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?

उत्तर- लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि    कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न-सुपुत्रः कः भवति?

उत्तर-यः सुचरितैः पितरं प्रीणाति, सः सुपुत्रः भवति।

प्रश्न- सुकलत्रं का भवति?

उत्तर- या भर्तुरेव हितम् इच्छति सा सुकलत्रं भवति।

प्रश्न-पुण्डरीकं कदा विकसति?

उत्तर- पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

प्रश्न-के न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति?

उत्तर - धीराः न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति।

प्रश्न-ऋषय: केषां वाचं राक्षसीम् आहुः?

उत्तर- ऋषयः उन्मत्तानां वाचं राक्षसीम् आहुः।

प्रश्न-लोकस्य निर्ऋतिः कः?

उत्तर-लोकस्य निर्ऋतिः राक्षसीमाहुः अस्ति।


दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजज

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजी  अध्ययनों से पता चला है कि सफलता का सबसे अच्छा पूर्वानुमानकर्ता “दीर्घकालिक सोच” (Long-Term Thinking) है। जो ...