लेखिका: संगीता माथुर
‘‘मां, आज कढ़ी इतनी पतली क्यों बनाई है? खाने का सब ज़ायका ही चला गया है.’’ चम्मच से कढ़ी खाते सौरभ ने टिप्पणी की तो मायाजी चौंक गईं. उनकी नज़रें अनायास ही नववधू बेला की ओर उठ गई, जो सकपकाई-सी उन्हें ही ताक रही थी. सास को अपनी ओर देखते देख वह और भी घबरा गई.
‘‘म... मैंने बनाई है कढ़ी,’’ बेला सहमी-सी आवाज़ में बोली. सौरभ का खाते-खाते हाथ थम गया.
‘‘ओह, मुझे पता नहीं था. वैसे टेस्ट में तो अच्छी है! क्यों पिताजी? है न मां?’’ सौरभ बात संभालने का प्रयास कर रहा है यह किसी से छुपा न रह सका.
मायाजी ने गला खंखारकर कहा,‘‘बहू अभी नई है. हम लोगों का टेस्ट जानने में उसे वक़्त लगेगा. हम लोग खट्टी और गाढ़ी कढ़ी पसंद करते हैं, यह भला उसे कैसे पता होगा?’’
इसके बाद कोई कुछ नहीं बोला. सब फटाफट खाना गले के नीचे उतारने में लग गए. एक अदनी-सी कढ़ी ने सबके सोच की दिशा बदल दी थी.
बेटा-बहू अपने अपने काम पर निकल गए थे. दोनों खाना घर से खाकर जाते थे. ऑफ़िस में स्नैक्स आदि ले लेते थे. उन्हें यही ज़्यादा सुविधाजनक लगता था. मायाजी बाई के संग रसोई समेटने में लग गई थीं. उनका चेहरा उतरा हुआ था. महेशजी उनकी मनःस्थिति समझ रहे थे. कढ़ी बहू ने बनाई है, यह पता चलते ही बेटे के सुर कैसे बदल गए थे? हालांकि मायाजी ने भी स्थिति संभालने में बेटे को सहयोग ही किया था पर अंदर से वह कितना आहत हुई होगी, यह महेशजी समझ पा रहे थे. केवल बेटे को ही क्या दोष देना खुद महेशजी भी तो इस मामले में पीछे नहीं थे. मायाजी टेबल पर नाश्ता लगाकर उन्हें कितनी आवाज़ें देती रहती हैं लेकिन वे हैं कि अख़बार ख़त्म किए बिना हिलते तक नहीं हैं. कल नई नवेली बहू ने नाश्ता लगाकर उन्हें एक बार बुलाया और वे तुरंत अख़बार छोड़कर डाइनिंग टेबल पर विराजमान हो गए थे. मायाजी तो आंखें फाड़े उन्हें देखती रह गई थीं. हालांकि बोली कुछ नहीं. सिर्फ़ यही नहीं बहू के बनाए पोहे भी उन्होंने बिना नाक भौं चढ़ाए खा लिए थे. जबकि पूरी दुनिया जानती है कि उन्हें पोहे एकदम नापसंद हैं. यदि यही पोहे माया ने बनाए होते तो वे न केवल उन्हें चार बातें सुनाते वरन दूसरा नाश्ता भी बनवा लेते. ख़ैर, महेशजी को उस बात की इतनी कसक नहीं थी जितनी आज की बात की. कल के ब्याहे उनके बेटे को अपनी पत्नी की भावनाओं का इतना ख़्याल है और वे इतने सालों में भी अपनी पत्नी की भावनाओं की क़द्र नहीं कर पाए. बेचारी बोल नहीं रही, पर अंदर से कितना मायूस और टूटा हुआ महसूस कर रही होगी.
डोरबेल बजी तो महेशजी की विचारश्रृंखला भंग हुई. उनकी बड़ी साली ममता दी आई थीं. महेशजी ने राहत की सांस ली. चलो बहन से बतियाकर माया का मन हल्का हो जाएगा. उनसे तो वह कभी खुलकर कुछ कहती नहीं... पर उन्हें ख़ुद तो आगे होकर पूछना चाहिए, पत्नी की भावनाओं को समझना चाहिए. इतने सालों में महेशजी को कभी इतना अपराधबोध महसूस नहीं हुआ था, जितना आज हो रहा था. शिकायत उन्हें बेटे से नहीं अपने आप से थी. वे उसकी तरह एक अच्छे पति क्यों नहीं बन पाए?
महेशजी से औपचारिक दुआ सलाम कर ममता दी मायाजी को खोजती रसोई में घुस गई थीं. गैस पर गाढ़ी होने के लिए रखी कढ़ी खौल रही थी.
‘‘अरे वाह, कढ़ी बन रही है. तभी मैं कहूं इतनी भीनी-भीनी, खट्टी-खट्टी महक कहां से आ रही है?’’ कहते हुए ममता दी ने कढ़ी में कलछी घुमाई,‘‘अरे वाह, इसमें तो पकौड़े भी हैं. आज तो खाने में मज़ा आ जाएगा.’’
‘‘प्रणाम दीदी! आपके लिए थाली परोस दूं? हमने तो अभी-अभी खाया है.’’ अंदर आते हुए मायाजी ने पूछा.
‘‘अरे नहीं! अभी तो भरपेट नाश्ता करके निकली हूं. वो तो कढ़ी देखकर नीयत डोल गई थी... अरे तेरा मुंह क्यों उतरा हुआ है? तबियत तो ठीक है?’’ ममता दी उसकी कलाई, ललाट छूकर देखने लगी.
‘‘अरे नहीं, कुछ नहीं हुआ है. आओ उधर कमरे में बैठते हैं. अब बाक़ी का रमिया संभाल लेगी’’ मायाजी बहन से दिल का दर्द बांटना तो चाहती थीं पर अकेले में. बैठक में बैठे महेशजी से भी यह छुपा न रह सका. उनकी कसक और बढ़ गई थी.
‘‘महेशजी से कुछ कहासुनी हुई है क्या? उनका चेहरा भी मुझे लटका हुआ लग रहा है, ’’ कमरे में घुसते ही ममता दी पूछे बिना न रह पाईं.
‘‘अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. हमारे बीच कुछ नहीं हुआ. वो तो अभी खाना खा रहे थे तो...’’ मायाजी ने पूरा वाक़या बड़ी बहन के सम्मुख उगल दिया. साथ ही अपने दिल की बात भी शेयर करना नहीं भूलीं.
‘‘बहू की इज़्ज़त, बहू की भावनाओं का सबको ख़्याल है. अच्छी बात है. पर मैं तो घर की मुर्गी दाल बराबर हो गई. मैं भी इंसान हूं, मेरी भी भावनाएं हैं, मैं भी आहत हो सकती हूं, थक सकती हूं, इस बारे में कोई नहीं सोचता. जिसका जब जो मन हुआ मांग लिया, कह दिया, सुना दिया...’’
‘‘अरे तो तुझे तो इसमें ख़ुश होना चाहिए,’’ ममता दी बीच में ही बोल उठीं.
‘हें... इसमें ख़ुश होने की क्या बात है?’’ मायाजी हैरान थीं.
‘‘ख़ुश होने की ही तो बात है. पति और बेटे के साथ तेरा रिश्ता अपनेपन के उस स्तर तक पहुंच गया है, जहां तुम लोग कभी भी एक दूसरे को कुछ भी कह सुन लेते हो, मांग लेते हो. तुम लोगों को न तो एक-दूसरे की नाराज़गी का भय है, न घर छोड़कर चले जाने का. बल्कि यह विश्वास है कि दूसरे को बुरा भी लगा तो क्या? मना लेंगे. मैं तो ऐसे अपनेपन के लिए तरस रही हूं. तुझे तो पता ही है मेरे ससुराल का कितना बड़ा संयुक्त परिवार था. गृहस्थी के हज़ार झमेले थे. कभी जल्दी-जल्दी में कढ़ी में पकौड़े डालने रह जाते थे तो बिट्टू मुंह फुलाकर बैठ जाता था. खाना ही नहीं खाता था. आख़िर मुझे सब काम छोड़कर उसके लिए चार पकौड़े तलकर उसकी कढ़ी की कटोरी में छोड़ने पड़ते तब वह खाना खाता. संयुक्त परिवार तो समय के साथ छितर गया पर बेटे की आदतें वैसी ही रहीं. वह तरुण हो गया, मैं प्रौढ़ा हो गई पर उसका मुझसे उठापटक करवाना बंद नहीं हुआ. कपड़े मां ही निकालकर देगी, दूध इतना ही गरम होना चाहिए, न एक सेंटीग्रेड ज़्यादा और न एक सेंटीग्रेड कम...’’ ममता दी कहीं खो-सी गई थीं.
‘‘...फिर बिट्टू पढ़ने विदेश चला गया. वहीं नौकरी करने लगा. तब मुझे अहसास हुआ कि मैं यकायक बूढ़ी हो गई हूं. मेरी चुस्ती, स्फूर्ति तो उसके साथ ही चली गई थी.’’ ममता दी की आंखें डबडबा आईं तो मायाजी का भी मन भर आया.
‘‘...मैंने कढ़ी में पकौड़े डालने ही बंद कर दिए. पर तेरे जीजाजी कहां मानने वाले थे? बिट्टू की ही तरह मुझसे अलग से पकौड़े बनवाकर कढ़ी में डलवाते और प्यार से खिलाते. कहते,‘वो वहां ख़ुश है! मस्ती से खा पी रहा है! तुम्हारे बिना पकौडे़ की कढ़ी खाने से वो लौटने वाला नहीं है! उसे ख़ुश रहने दो और ख़ुद भी ख़ुश होकर जीना सीखो!’’’
‘‘ठीक ही तो कहते थे जीजू!’’
story-Kadhi Puran
‘‘जानती हूं. मेरा मन बहलाने, मुझे व्यस्त रखने के लिए कहते थे. वरना मन ही मन तो बिट्टू को मुझसे भी ज़्यादा मिस करते थे. मैं क्या समझती नहीं थी? पर सच कहती हूं तेरे जीजाजी क्या गए, जीने का मोह ही चला गया. मैंने तो कढ़ी बनाना ही छोड़ दिया. कौन अकेली जान के लिए इतनी माथाफोड़ी करे?’’
‘‘मैं खाना लाती हूं,’’ मायाजी ख़ुद बहन के साथ भावना में बहने लगीं तो बहाने से उठ खड़ी हुईं.
‘‘बाहर आ जाओ दीदी, यहां टेबल पर ही लगा दिया है सब कुछ... क्यों जी, आपके लिए चाय बना दूं? आज तो आपने चाय मांगी ही नहीं? वरना अब तक तो आप दो राउंड कर चुके होते हैं चाय के!’’ मायाजी ने शोख़ी से महेशजी से पूछा तो वे खिसिया से गए.
‘‘वो मैंने सोचा दोनों बहनें बातें कर रही हैं तो क्यों खलल डालूं?’’
‘‘अरे वाह आप तो बड़ा सोचने लगे मेरे लिए!’’ इठलाती मायाजी चाय बनाने रसोई में चली गईं तो महेशजी हैरानी से उन्हें देखते रह गए. स्त्रियों को समझना वाक़ई मुश्क़िल ही नहीं नामुमक़िन है.
कढ़ी पुराण इतने में ही समाप्त हो जाता तो गनीमत थी. पर यह लंबा खिंच गया. बेला का मूड इस वजह से पूरा दिन ख़राब रहा. शाम को वह ऑफ़िस से सीधे मायके पहुंच गई. मायका ऑफ़िस के पास ही था. पता चला मां तो बाज़ार गई है. भाई कॉलेज से लौटा ही था. बेला रसोई में जाकर उसका खाना गरम कर लाई.
‘‘कढ़ी? मां को पता है मुझे कढ़ी नहीं पसंद फिर क्यों बनाकर गई? मुझे खाना ही नहीं खाना. दीदी, मेरे लिए नूडल्स बना दो.’’
बेला ने एक दो बार समझाया पर फिर थक हारकर नूडल्स बना लाई.
‘‘यह कौन-सा फ़्लेवर बना दिया? मैं तो बारबेक्यू वाली खाता हूं.’’
‘‘तो बना ले अपने आप. यह नहीं, वो नहीं!’’ थकी हारी बेला भी तुनककर बैठ गई. भाई ख़ुद ही उठकर बना लाया. यही नहीं, बेला के लिए एक एक्स्ट्रा फ़ोर्क भी लेकर आया.
‘‘लो, खाकर देखो. बहुत टेस्टी है!’’ मज़े लेकर खाते भाई ने आग्रह किया तो बेला भी टूट