चुनावी बांड(इलेक्टोरल बॉन्ड) पर सख्त हुआ सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग से पूछा- ये चंदा किसका है
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड की व्यवस्था खत्म करने को लेकर दी गई एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की याचिका पर सुनवाई करते हुए सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया है कि वे इस बांड के जरिये हासिल किए गए चंदे का विवरण सीलबंद लिफाफे में निर्वाचन आयोग को 30 मई तक सौंपें। इसी के साथ चुनावी चंदे की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने को लेकर चुनावी बांड की वर्तमान व्यवस्था में भी अपारदर्शिता का मामला तूल पकड़ चुका है।
चूंकि राजनीतिक दल यह बताने के लिए बाध्य नहीं कि उन्हें किसने चुनावी बांड दिया? निर्वाचन आयोग और साथ ही चुनाव प्रक्रिया साफ-सुथरी बनाने के लिए सक्रिय संगठनों की मांग है कि चुनावी बांड खरीदने वाले का नाम सार्वजनिक किया जाए ताकि यह पता चल सके कि कहीं किसी ने किसी फायदे के एवज में तो चुनावी बांड के जरिये चंदा नहीं दिया? नि:संदेह चुनावी बांड के जरिये चंदा देने वालों की गोपनीयता बनाए रखने के पक्ष में यह एक तर्क तो है कि उन्हें वे राजनीतिक दल परेशान कर सकते हैं जिन्हें चंदा नहीं मिला, लेकिन यह आशंका दूर की जानी भी जरूरी है कि कहीं किसी लाभ-लोभ के फेर में तो चुनावी चंदा नहीं दिया जा रहा?
यह सही है कि बिना धन के राजनीतिक दलों का संचालन संभव नहीं है। छोटे-बड़े राजनीतिक दल चुनावों के दौरान पैसा पानी की तरह बहाते हैं। अगर चुनावी चंदे की पारदर्शी व्यवस्था नहीं बनती तो राजनीति के कालेधन से संचालित होने की आशंका को दूर नहीं किया जा सकता। राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता का अभाव किसी भी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं माना जा सकता है। ऐसे में किसी स्वस्थ लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के आय-व्यय सहित पूरी पारदर्शी कार्यप्रणाली की जरूरत आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
चुनाव में धन का खेल
चुनाव में लोग समाजसेवा के तथाकथित मकसद से उतरते हैं। सत्ता में आकर लोगों के कल्याण के लिए बेहतर नीतियों और योजनाओं का लोग सृजन कर सकें, राजनीति का रुख करने के पीछे राजनेता यही तर्क दे सकते हैं। अगर इसे सही माना जाए तो उनका आकलन भी जनकल्याण के पैमाने पर ही किया जाएगा। यानी जिसने इस क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया है उसके जीतकर आने में कोई संशय नहीं होना चाहिए। असलियत में ऐसा होता नहीं है। राजनीति में आकर काम करने वालों को अंगुलियों पर गिना जा सकता है। ऐसे में 534 लोगों को विजयश्री दिलाने के लिए अन्य संसाधनों का सहारा लेना पड़ता है। इन्हीं में से एक है धन।
सत्ता और साधन
सत्ता सचमुच बड़ी चीज होती है। सत्ता के आगे सब नतमस्तक तो दिखते हैं, उसे खुश करने के लिए पैर के अंगूठे पर भी खड़े होते दिखते हैं। सत्ता प्रसन्न होगी तभी वे ‘वरदान’ मांग सकेंगे। अब ये ‘वरदान’ निजी और कारोबारी समेत तमाम रूपों में हो सकता है। चुनावी चंदों को दिए जाने की प्रवृत्ति बताती है कि जिस दल की जब सरकार रहती है तो उसे मिलने वाले चंदे का ग्राफ ऊपर रहता है। विपक्ष में बैठे दलों को कमतर आंका जाता है। बाकी तो जनता जनार्दन है ही, वह सब जानती भी है।
नकदी की रिकॉर्ड जब्ती
चुनावों के दौरान सियासत से जुड़े हर क्षेत्र में धन का अंधाधुंध इस्तेमाल किया जाता है। मतदाताओं को नकदी के रूप में देने के लिए या फिर अन्य किसी रूप में। हर साल चुनावी मौसम में चुनाव आयोग बेनामी नकदी की भारी मात्रा में जब्ती करती है। इस बार इसका चलन कुछ ज्यादा ही दिख रहा है। पिछले दस अप्रैल तक 2519 करोड़ रुपये की नकदी व अन्य चीजें जब्त की जा चुकी हैं।
इनमें 655 करोड़ रुपये की नकदी भी है। शेष शराब, कीमती धातुएं, मुफ्त के उपहार आदि हैं। 1105 करोड़ रुपये के ड्रग्स और नशे से जुड़ी चीजें हैं। पिछले चुनाव यानी 2014 के लोकसभा चुनाव के इसी अवधि में हुई जब्ती 1200 करोड़ की यह दोगुना से अधिक है। धन के इस खेल में राजनीतिक दलों को मिलने वाले बेतहाशा चुनावी चंदों की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है।
क्या कहती है रिपोर्ट
पार्टियों की ऑडिट रिपोर्ट के अनुसार 2017-18 में कांग्रेस ने चंदे से कुल 199 करोड़ रुपये जुटाए जबकि इसी साल भाजपा के खाते में 1027 करोड़ रुपये आए। सत्ताधारी दल और विपक्षी दल के चंदे में यह असमानता पिछले 14 साल के शीर्ष पर है। 2005-06 में तत्कालीन सत्ताधारी दल कांग्रेस को भाजपा से 3.25 गुना ज्यादा चंदा मिला था। चंदे के इस अनुपात को भाजपा ने पहली बार 2016- 17 में बदला जब उसे कांग्रेस से 4.5 गुना अधिक चंदा मिला। 2017-18 में कांग्रेस से भाजपा के चंदे में 5.1 गुना बढ़ोतरी हुई।