सबसे छोटा

मैं पांच भाई-बहनों में सबसे छोटा था,
जब जिसका मन आता वही मुझे
धन कूट की तरह कूटता था,
बात बात पर हर कोई मुझे टोकता था,
बड़े की तानाशाही सब पर चलती थी,
पिता से ले के हम पर तक उतरती थी।
इसी कूट-काट और टोक-टाक से मन ऊब जाता था,
घर से भाग जाने का मन में ख्याल आता था,
फिर सोचता यह प्यार कहां पाऊंगा,
घर के बाहर तो कुत्ते सा दुत्कार जाऊंगा।
वहां मुझे अपनी गोद में कौन खिलाएगा,
सब के प्यार भरे स्पर्श का सुख कहां पाऊंगा,
और तो सब कप-प्लेट धुलवाते आते हैं,
हाथ पैर तोड़ कर भीख मंगवाते हैं,
बाहर से अच्छा अपना यह प्यारा घर है
क्योंकि यहां मार खाकर संस्कार तो पाते हैं।

पंचशील सिद्धांत

  

10- पंचशील सिद्धांता: कक्षा 12

पंचशील

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


पञ्चशीलमिति शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः। महात्मा गौतमबुद्धः एतान् पञ्चापि सिद्धान्तान् पञ्चशीलमिति नाम्ना

स्वशिष्यान शास्ति स्म। अत एवायं शब्द: अधुनापि तथैव स्वीक़तः। इमे सिद्धान्ताः क्रमेण एवं सन्ति-

अहिंसा 2. सत्यम् 3. अस्तेयम् 4. अप्रमादः 5. ब्रह्मचर्यम् इति।

शब्दार्थ शिष्टाचारविषयका:-शिष्टाचार सम्बन्धी; एतान्-इनको नाम्ना-नाम से; शास्ति स्म-उपदेश देते थे; अधुनापि-अब भी;

तथैव-उस ही प्रकारा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत के ‘पञ्चशील सिद्धान्ताः’ पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद पंचशील शिष्टाचार से सम्बन्धित सिद्धान्त हैं। महात्मा गौतम बुद्ध पंचशील नामक इन पाँचों सिद्धान्तों का अपने शिष्यों को

उपदेश देते थे, इसलिए यह शब्द आज भी उसी रूप में स्वीकारा गया है। ये सिद्धान्त क्रमशः निम्न प्रकार हैं-


अहिंसा 2. सत्य 3 . चोरी न करना 4. प्रमाद न करना 5. ब्रह्मचर्य


बौद्धयुगे इमे सिद्धान्ता: वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ता आसन्। परमद्य इमे सिद्धान्ताः राष्ट्राणां

परस्परमैत्रीसहयोगकारणानि, विश्वबन्धुत्वस्य, विश्वशान्तेश्च साधनानि सन्ति। राष्ट्रनायकस्य श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशीलसिद्धान्तानधिकृत्य एवाभवत्। यतो हि उभावपि देशौ बौद्धधमें निष्ठावन्तौ। आधुनिके जगति पञ्चशीलसिद्धान्ता: नवीनं राजनैतिकं स्वरूपं गृहीतवन्तः। एवं च व्यवस्थिता:-


1 किमपि राष्ट्रं कस्यचनान्यस्य राष्ट्रस्य आन्तरिकेषु विषयेषु कीदृशमपि व्याघातं न करिष्यति।


2 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं प्रभुसत्तां प्रादेशिकीमखण्डताञ्च सम्मानयिष्यति।


3 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं समानतां व्यवहरिष्यति।


4 किमपि राष्ट्रमपरेण नाक्रस्यते।


5 सर्वाण्यपि राष्ट्राणि मिथ: स्वां स्वां प्रभुसत्तां शान्त्या रक्षिष्यन्ति।

विश्वस्य यानि राष्ट्राणि शान्तिमिच्छन्ति तानि इमान् नियमानङ्गीकृत्य परराष्ट्रैस्सार्द्ध स्वमैत्रीभावं दृढीकुर्वन्ति।


शब्दार्थ इमे-ये; वैयक्तिकजीवनस्य-व्यक्तिगत जीवन के आसन्-थे; परमद्य-किन्तु आज; विश्वशान्तेश्च-और विश्वशान्ति के;

साधनानि-साधन; अधिकृत्य-अधिकार करके या आधार पर; यतो हि-क्योंकि, निष्ठावन्तौ-आस्था रखने वाले, जगति-संसार में;

गृहीतवन्तः-धारण कर लिया है; कस्यचनान्यस्य-अन्य किसी के राष्ट्रस्य-राष्ट्र की; व्याघात-हस्तक्षेपः प्रादेशिकीमखण्डताञ्च-और

प्रादेशिक अखण्डता का; सर्वाण्यपि-सभी; मिथ:-परस्पर; परराष्ट्रैस्सार्द्धम-दूसरे राष्ट्रों के साथ; स्वमैत्रीभावं-अपने मैत्री भावों ।

को; दृढीकुर्वन्ति-दृढ़ करते हैं (मजबूत करते हैं।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद बौद्धकाल में ये सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के उत्थान के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, किन्तु आज ये सिद्धान्त राष्ट्रों की परस्पर मैत्री एवं सहयोग के कारण हिता तथा विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के साधन हैं। राष्ट्र के नायक श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के प्रधानमन्त्रित्व काल में पंचशील के सिद्धान्तों को

स्वीकार करके ही चीन देश के साथ भारत की मित्रता हुई थी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्र बौद्ध धर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। आधुनिक जगत् में पंचशील के सिद्धान्तों ने नव नीतिक स्वरूप धारण कर लिया है तथा वे इस प्रकार निश्चित किए गए है- ।


1 कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक विषयों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।


2 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर प्रभुसत्ता तथा प्रादेशिक अखण्डता का

सम्मान करेगा।

3 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर समानता का व्यवहार करेगा।


4 कोई भी राष्ट्र दूसरे (राष्ट्र) से आक्रान्त नहीं होगा।


5 सभी राष्ट्र अपनी-अपनी प्रभुसत्ता की शान्तिपूर्वक रक्षा

करेंगे। विश्य के जो भी राष्ट्र शान्ति की इच्छा रखते हैं, वे

इन नियमों को अंगीकार (स्वीकार) करके दूसरे राष्ट्रों के

साथ अपने मैत्री-भाव को दृढ़ करते हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित है।


1 पञ्चशीलं कीदृशाः सिद्धान्ताः सन्ति?

उत्तर पञ्चशीलं शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः सन्ति।

2 गौतमबुद्धः कान् सिद्धान्तान् शिक्षयत्?

उत्तर गौतमबुद्धः पञ्चशीलमिति नाम्नां सिद्धान्तान स्वशिष्यान शिक्षयत्।

3 महात्मनः गौतमबुद्धस्य पञ्चशीलसिद्धान्ता: के सन्ति? |

अथवा गौतमबुद्धस्य सिद्धान्ताः के आसन्?

अथवा पञ्चशील सिद्धान्ताः के आसन्? उत्तर अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति पञ्चशीलसिद्धान्ताः सन्ति ।

4 क्रमेण के पञ्चशीलसिद्धान्ताः भवन्ति।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः क्रमेण अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति भवन्ति।

5 गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् केषु सिद्धान्तेषु अशिक्षय?

उत्तर गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् अहिंसा, सत्यम, अस्तेयम्, अप्रमादः, बह्मचर्यं च ऐषु सिद्धान्तेषु अशिक्षयत्।

6 पञ्चशीलसिद्धान्ताः कस्मिन् युगे प्रयुक्ताः आसन्? ।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः बौद्धयुगे प्रयुक्ताः आसन्।

7 बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः कस्य हेतोः प्रयुक्ताः आसन्?

उत्तर बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय

प्रयुक्ताः आसन्।

8 के सिद्धान्ता: वैयक्तिक जीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः

आसन्?

उत्तर पञ्चशील-सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः आसन्।

9 वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं केषु निहितः अस्ति?

उत्तर वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं पञ्चशील-सिद्धान्तेषु निहितः ।

अस्ति ।

10 चीन भारतयोमैत्री कदा सम्भूता?

उत्तर चीन भारतयोमैत्री श्री जवाहरलाल महोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले सम्भूता।

11 चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री कान् सिद्धान्तानधिकृत्य

अभवत्?

उत्तर चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशील सिद्धान्तानिधकृत्य

अभवत्।

12 कौ देशौ बौद्धधर्मे निष्ठावन्तौ?

उत्तर चीनभारतदेशौ बौद्धधर्मे

सफलता का मंत्र


 


सफलता का मंत्र : कई बार व्यक्ति जिस लक्ष्य को पाने के लिए इधर उधर भटक रहा होता है। उसे पाने का रास्ता और मौके उसके आस-पास ही छिपे होते हैं। इन अवसरों की अनदेखी के कारण व्यक्ति की कामयाबी का रास्ता लंबा और कठिन होने लगता है। हालांकि ऐसी गलती कोई भी व्यक्ति जानबूझकर नहीं करता है, यह तो बस नजरिए का फेर होता है। यही बात एकर्स ऑफ डायमंड की कहानी भी बताती है, जो कि एक सत्य घटना पर आधारित है।

यह कहानी एक किसान के बारे में है जो अफ्रीका में रहता था। उसने दूसरे किसानों कि ऐसी कहानियों के बारे में सुना जिन्होंने हीरों कि खान खोज कर लाखों कमाए थे। हीरे अफ्रीका महाद्वीप में पहले से ही प्रचुर मात्रा में खोजे जा चूके थे। यह किसान लाखों मूल्य के हीरों के विचार से इतना उत्साहित हुआ कि उसने अपना खेत ही बेच दिया। हीरे की खान की तलाश में यहां-वहां भटकने लगा। सारा अफ्रीका घूमने के बावजूद उसे कुछ नहीं मिला। समय गुजरता गया लेकिन हीरे कि तलाश पूरी न हो सकी। अंतत: वह टूट गया और नदी में कूदकर आत्मह्त्या कर ली।

इस दौरान जिस व्यक्ति ने उस किसान के खेत खरीदे थे, वह एक दिन खेत के पास से गुजर रहा था। वह व्यक्ति खेत के साथ बहती एक छोटी सी नदी को पार कर रहा था। अचानक नदी के नीचे से नीले और लाल रंग का उज्जवल प्रकाश चमका। सुबह के प्रकाश की किरण एक पत्थर पर पड़ी और वह इन्द्रधनुष की तरह चमक उठा। वह व्यक्ति नीचे झुका और पत्थर को उठा लिया और उसे घर ले आया। यह एक अच्छे आकार का पत्थर था। उसने सोचा की यह पत्थर अंगीठी के ऊपर के डेकोरेशन पीस की तरह अच्छा लगेगा और उसने इसे रख दिया।

कई हफ्ते बाद एक मेहमान उसके घर आया और उसने इस पत्थर को देखा और बड़ी नजदीकी से इसका मुआयना किया। उसने उस किसान से पूछा की उसे इस पत्थर का असली मूल्य पता है। किसान ने कहा नहीं। यात्री ने उसे बताया कि उसने अब तक का सबसे बड़ा हीरा पाया है। किसान को इस बात पर विश्वास नहीं हुआ। उसने किसान को बताया कि उस छोटी सी नदी के नीचे ओर भी बहुत सारे ऐसे हीरे होंगे। चलो, मैं तुम्हें दिखाता हूं। वे वहां गए और वहां से कुछ नमूने एकत्रित कर उन्हें आगे जांच के लिए भेज दिया।

मेहमान की बात सच निकली, यह पत्थर हीरे ही थे। उन्होंने पाया कि यह खेत हीरे से ढका हुआ है. यह खेत अब तक ज्ञात अफ्रीका और विश्व में खोजी गई सबसे कीमती, उपजाऊ और महंगी खान थी। इसे अफ्रीका महाद्वीप कि सबसे कीमती हीरे कि खान करार दिया गया। इसका नाम था किंबरले डायमंड माइन्स था। इसे पहले किसान ने बेच दिया था ताकि वह हीरे कि खान खोज सके। 

कहानी से सीख

  • जब तक किसान ने इस खेत को नहीं बेचा था वह हीरों की खदान पर बैठा था। अवसर हमारे कदमों के नीचे ही होते हैं इसके लिए हमें कहीं भटकने कि आवश्यकता नहीं। जरूरत है तो केवल इसे पहचानने कि। 
  • हम प्रत्येक लोग इस पल अपने अवसरों की खान पर खड़े हैं। अगर हम बुद्धिमानी और धैर्य से अपने काम को करें तो हम उस लक्ष्य को पा लेंगे जिसे हम ढूंढ रहे हैं।

प्रशिक्षित स्नातक विषय- कला /L. T. Grade Art Subject सफलता हेतु पठनीय पुस्तकें


प्रशिक्षित स्नातक विषय- कला /L T Art हेतु पठनीय पुस्तकें

1 - भारतीय कला और कलाकार - लेखक कुमारिल स्वामी
2 - भारतीय चित्रकला का इतिहास - लेखक अविनाश बहादुर वर्मा
3 - भारतीय चित्रांकन - लेखक डॉक्टर राम कुमार विश्वकर्मा
4 - कला के दार्शनिक तत्व - लेखक डॉ चिरंजीलाल
5 - भारतीय कला और कलाकार - लेखक ई0 कुमारिल स्वामी
6- भारतीय चित्रकला का उद्देश्य पूर्ण अध्ययन - लेखक डॉ शिवकुमार शर्मा तथा डॉक्टर अंबिका शर्मा
7 - भारतीय कला और कलाकार - लेखक ई0 कुमारिल स्वामी
8- आधुनिक चित्रकला का इतिहास- लेखक र0वि0 साखलकर
9- सौंदर्य- लेखक राजेंद्र बाजपेई
10 - भारतीय कला एवं पुरातत्व - लेखक डॉक्टर जय नारायण पांडे
11 - समकालीन भारतीय कला - लेखक डॉ ममता चतुर्वेदी
12 - भारत की समकालीन कला - प्राणनाथ मागो
13 - आधुनिक भारतीय चित्रकला के आधार स्तंभ - लेखक डॉ प्रेमचंद गोस्वामी
14 - भारतीय चित्रकला का इतिहास (प्राचीन) - लेखक डॉ श्याम बिहारी अग्रवाल
15 - भारतीय चित्रकला और मूर्तिकला का इतिहास - लेखक डॉ रीता प्रताप
16 - वृहद आधुनिक कला कोश - लेखक विनोद भरद्वाज
17 - कला विलास - लेखक आर0 ए0 अग्रवाल
18- कला और कलम- लेखक गिरिराज किशोर अग्रवाल
19- रूपांकन- लेखक आर0 ए0 अग्रवाल
20-कला और सौंदर्य समीक्षा शास्त्र-लेखक अशोक
21-कला के अंतर्दर्शन-लेखक र0 वि0 साखलकर
22-20-कला और सौंदर्य समीक्षा शास्त्र-लेखक अशोक
21-कला के अंतर्दर्शन-लेखक र0 वि0 साखलकर
22- रूपप्रद कला के मूलाधार - लेखक एस0 के 0 शर्मा आर0 एस0 अग्रवाल
23 - भारतीय एवं पाश्चात्य कला - लेखक डॉ सहला हसन
24- राजस्थानी चित्रकला- लेखक डॉ जयसिंह नीरज
25- भारतीय कला के आयाम- निहार रंजन राय
26- स्वतंत्र कला शास्त्र- लेखक कांति चंद्र पांडे
27- कला- लेखक कुमार विमल
28 कला- लेखक हंस कुमार तिवारी
29- कला निबंध - लेखक डॉ गिरिराज किशोर अग्रवाल
30 - भारतीय मूर्तिकला परिचय - लेखक गिरिराज किशोर अग्रवाल

प्रस्तुतकर्ता- प्रमोद कुमार सिंह(प्रवक्ता)
                   श्री शिवदान सिंह इण्टर कालेज,
                    इगलास, अलीगढ़
                    


















          

जिगोलो विवशता बेहयाई या ललक


एक पढ़ाकू लड़के के जिगोलो बनने की कहानी
23 सितंबर 2018

'तुमको मालूम है कि तुम कहां खड़े हो. यहां जिस्म का बाज़ार लगता है.'

मैं यानी एक मर्द, नीले गुलाबी बल्बों वाले इस कोठे में खुद को बेचने के लिए खड़ा था.

मैंने जवाब दिया, "हां दिख रहा है पर मैं पैसे के लिए कुछ भी करूंगा."

मेरे सामने अधेड़ उम्र की औरत...नहीं वो ट्रांसजेंडर थी. पहली बार उसे देखा तो डर गया कि ये कौन है. उसने मुझे कहा, 'बहुत एटीट्यूड है तेरे में. लेकिन इधर नहीं चलेगा.'

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दिन के नौ-दस घंटे एक आईटी कंपनी की नौकरी करने वाला मैं उस पल डरा हुआ था. लगा कि मेरा ज़मीर मर रहा है. मैं एक ऐसे परिवार से हूं, जहां कोई सोच भी नहीं सकता कि मैं ऐसा करूंगा. लेकिन मेरी ज़रूरतों ने मुझे इस ओर धकेल दिया.

मैंने पूछा, "मुझे कब तक रुकना होगा, कल ऑफ़िस है मेरा."

सिरीज़
एक नया माल...एक नया छैला
'जा जाकर ऑफ़िस ही कर ले. यहां क्या कर रहा है फिर.' ये जवाब पाकर मैं चुप हो गया. कुछ ही मिनटों में इस बाज़ार के लिए मैं एक नया माल...एक छैला हो गया.

वो ट्रांसजेंडर अचानक नरम होकर बोली, "तेरी तस्वीर भेजनी होगी, नहीं भेजी तो कोई बात नहीं करेगा."

ये सुनते ही मेरी हालत ख़राब हो गई. मेरी तस्वीर पब्लिक होने वाली थी. मैं सोच रहा था कि कोई रिश्तेदार देख लेगा तो क्या होगा मेरा भविष्य.

पहले दाईं तरफ से, फिर बाईं तरफ से और उसके बाद सामने से मेरी तस्वीर खींची गईं. इसके अलावा दो आकर्षक तस्वीरें भी मांगी गईं.

मेरे सामने ही वो तस्वीरें किसी को वॉट्स ऐप पर भेजी गईं. तस्वीरों के साथ लिखा था, 'नया माल है, रेट ज़्यादा लगेगा. कम पैसे का चाहिए तो दूसरे को भेजती हूं.'

मेरी बोली लग रही थी, जो अंत में पांच हज़ार रुपये में तय हुई.

इसमें मुझे क्लाइंट के लिए सब कुछ करना था. ये सब किसी फ़िल्म में नहीं, मेरे साथ हो रहा था. बहुत अजीब था.

मैं ज़िंदगी में पहली बार ये करने जा रहा था. बिना प्यार, इमोशंस के कैसे करता? एक अंजान के साथ करना होगा ये सोचकर मेरा दिमाग चकरा रहा था.

एक पीली टैक्सी में बैठकर मैं उसी दिन कोलकाता के एक पॉश इलाके के घर में घुसा. घर के भीतर बड़ा फ्रिज था, जिसमें शराब की बोतलें भरी हुई थीं. घर में काफी बड़ा टीवी भी था.

वो शायद 32-34 साल की शादीशुदा महिला थी. बातें शुरू हुईं और उसने कहा, ''मैं तो गलत जगह फँस गई. मेरा पति गे है. अमरीका में रहता है. तलाक दे नहीं सकती. एक तलाकशुदा औरत से कौन शादी करेगा. मेरा भी अलग-अलग चीज़ों का मन होता है, बताओ क्या करूं.''

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his choice
मजबूरी या शौक
हम दोनों ने शराब पी. उसने हिंदी गाने लगाकर डांस करना शुरू किया. हम दोनों डाइनिंग रूम से बेडरूम गए.

अब तक उसने मुझसे प्यार से बात की थी. काम जैसे ही खत्म हुआ , पैसे देकर बोली, "चल कट ले, निकल यहां से.''

उसने मुझे टिप भी दी. मैंने उससे कहा, "मैं ये सब पैसों की मजबूरी की वजह से कर रहा हूं."

उसने कहा, ''तेरी मजबूरी को तेरा शौक बना दूंगी.''

मेरी मजबूरी जो कोलकाता से सैकड़ों किलोमीटर दूर मेरे घर से शुरू हुई थीं.

मेरी लोअर मिडिल क्लास फैमिली को मैं अनलकी लगता था क्योंकि मेरे जन्म के बाद ही पिता की नौकरी चली गई. वक्त के साथ ये दूरियां बढ़ती गईं. मेरा सपना एमबीए करने का था लेकिन इंजीनियरिंग करने को मजबूर किया गया और नौकरी लगी कोलकाता में.

ऑफिस में सब बांग्ला ही बोलते. भाषा और ऑफिस पॉलिटिक्स की वजह से मैं परेशान रहने लगा. शिकायत भी की. लेकिन कुछ नहीं हुआ. बाथरूम जाकर रोता तो कार्ड के इन और आउट टाइम को नोट करके कहा जाता, 'ये सीट पर नहीं रहता.'

मेरा आत्मविश्वास ख़त्म होने लगा था . धीरे-धीरे डिप्रेशन ने मुझे घेर लिया. डॉक्टर के पास भी गया लेकिन परेशानियां ख़त्म नहीं हुईं.

ज़िम्मेदारियों और परेशानियों का गठ्ठर कंधों पर इतना भारी लगने लगा कि मैंने इंटरनेट पर सर्च करना शुरू किया. मुझे पैसे कमाने थे ताकि मैं एमबीए कर सकूं, घर पैसे भेज सकूं और कोलकाता की ये नौकरी छोड़कर भाग जाऊं.

इस बीच मुझे इंटरनेट पर मेल एस्कॉर्ट यानी जिगोलो बनने का रास्ता दिखा. ऐसा फ़िल्मों में देखा था. कुछ वेबसाइट्स होती हैं जहां जिगोलो बनने के लिए प्रोफाइल बनाई जा सकती हैं. लेकिन ये कोई जॉब प्रोफाइल नहीं था.

यहां जिस्म की बोली लगनी थी
प्रोफाइल लिखने में डर लग रहा था. पर मैं उस दहलीज़ पर खड़ा था, जहां से मेरे पास सिर्फ़ दो रास्ते बचे थे.

एक- दहलीज़ से पीछे हटकर सुसाइड कर लूं.
दूसरा- दहलीज़ के पार जाकर जिगोलो बन जाऊं.
मैंने दहलीज़ को लांघने का फ़ैसला कर लिया था.

मैं जिन औरतों से मिला, उनमें शादीशुदा तलाकशुदा, विधवा और सिंगल लड़कियां भी शामिल थीं. इनमें से ज़्यादातर के लिए मैं एक इंसान नहीं माल था. जब तक उनकी इच्छाएं पूरी न हो जातीं. सब अच्छे से बात करतीं. कहती कि मैं अपने पति को तलाक देकर तुम्हारे साथ रहूंगी. लेकिन बेडरूम में बिताए कुछ वक्त के बाद सारा प्यार ख़त्म हो जाता.

सुनने को मिलता
'चल निकल यहां से.'
'पैसा उठा और भाग'
और कई बार गालियां भी...

ये सोसाइटी हमसे मज़े भी लेती है और हम ही को प्रॉस्टीट्यूट कहकर गालियां भी देती है.

एक बार एक पति-पत्नी ने साथ में बुलाया. पति सोफे पर बैठा शराब पीते हुए हमें देखता रहा. मैं उसी के सामने पलंग पर उसकी पत्नी के साथ था.

ये काम दोनों की रज़ामंदी से हो रहा था. शायद दोनों की ये कोई डिज़ायर रही हो!

इसी बीच 50 साल से ज़्यादा उम्र की महिला भी मेरी क्लाइंट बनी. वो मेरी ज़िंदगी का सबसे अलग अनुभव था.

पूरी रात वो बस मुझसे बेटा-बेटा कहकर बात करती रहीं. बताती रहीं कि कैसे उनका बेटा और परिवार उनकी परवाह नहीं करता. वे उनसे दूर रहते हैं.

वो मुझसे भी बोलीं, "बेटा इस धंधे से जल्दी निकल जाओ, सही नहीं है ये सब.''

उस रात हमारे बीच सिवाय बातों के कुछ नहीं हुआ. सुबह उन्होंने बेटा कहते हुए मुझे तय रुपये भी दिए. जैसे एक मां देती है अपने बच्चे को सुबह स्कूल जाते हुए. मुझे वाकई उस महिला के लिए दुख हुआ.

फिर एक रोज़ जब मैंने शराब पी हुई थी और ज़िंदगी से थकान महसूस कर रहा था, मैंने मां को फोन किया.

उन्हें गुस्से में कहा, "तुम पूछती थी न कि अचानक ज़्यादा पैसे क्यों भेजने लगे. मां मैं धंधा करता हूं...धंधा."

वो बोलीं, "चुपकर. शराब पीकर कुछ भी बोलता है तू."

ये कहकर मां ने फोन रख दिया.

his choice, जिगोलो
मैंने मां को अपना सच बताया था लेकिन उन्होंने मेरी बात को अनसुना कर दिया. मेरे भेजे पैसे वक़्त से घर पहुंच रहे थे न... मैं उस रात बहुत रोया. क्या मेरी वैल्यू बस मेरे पैसों तक ही थी? इसके बाद मैंने मां से कभी ऐसी कोई बात नहीं की.

मैं इस धंधे में बना रहा, क्योंकि मुझे इससे पैसे मिल रहे थे. मार्केट में मेरी डिमांड थी. लगा कि जब तक कोलकता में नौकरी करनी पड़ेगी और एमबीए में एडमिशन नहीं ले लूंगा, तब तक ये करता रहूंगा.

लेकिन इस धंधे में कई बार अजीब लोग मिलते हैं. शरीर पर खरोंचे छोड़ देते थे.

ये निशान शरीर पर भी होते थे और आत्मा पर भी. और इस दर्द को दूसरा जिगोलो ही समझ पाता था, सोसाइटी चाहे जैसे देखे.

इस प्रोफेशन में जाने का मुझे कोई अफ़सोस नहीं है.

मैंने एमबीए कर लिया और इसी एमबीए के दम पर आज कोलकाता से दूर एक नए शहर में अच्छी नौकरी कर रहा हूं. खुश हूं. नए दोस्त बने हैं, जिनको मेरे अतीत के बारे में कुछ नहीं मालूम. शायद ये बातें मैं कभी किसी को नहीं बता पाऊंगा.

हम बाहर जाते हैं, फ़िल्म देखते हैं. रानी मुखर्जी की 'लागा चुनरी में दाग' फ़िल्म मेरी फेवरेट है. शायद मैं उस फ़िल्म की कहानी से खुद को रिलेट कर पाता हूं.

हां अतीत के बारे में सोचूं तो कई बार चुभता तो है. ये एक ऐसा चैप्टर है, जो मेरे मरने के बाद भी कभी नहीं बदलेगा.

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तुलसीदास कृत दोहावली कक्षा -11

दोहावली 
हरे चरहिं तपही बरे जरत फरे पसारहिं हाथ |
 तुलसी स्वारथ मीत सब परमार्थ रघुनाथ || 1

भावार्थ:- अर्थात तुलसीदास जी ने कहा है कि जब घोर कलियुग आएगा तब मनुष्य इतना स्वार्थी हो जायेगा कि जहाँ उसे लाभ और अपना फायदा दिखेगा वो उसी काम को करेगा और मानवता लुप्त होती चली जायेगी | तथा मनुष्य जी कथनी और करनी में बड़ा अंतर आ जायेगा, और मनुष्य को ही मनुष्य का चरित्र समझ में नहीं आएगा कि क्या सही है और क्या गलत | और तो और तुलसीदास जी तो यह भी कह गए कि मनुष्य का कोई मित्र नहीं होगा, सब मित्र, सगा सम्बन्धी स्वार्थ के पीछे है, जब स्वार्थ खत्म तो सबकुछ समाप्त | अत: तुलसीदास जी ने कहा है कि सब स्वार्थ के नाते है और सबसे बड़ा परमार्थ तो रघुनाथ ही है और मनुष्य को उनका स्मरण करते रहना चाहिए |


मान राखिबो,माँगिबो, पियसों नित नव नेहु।
तुलासी तीनिउ तब फबैं जो जातक मत लेहुं।। 2

शब्दार्थ -
प्रसंग - इस दोहे में कभी नहीं चातक की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए कहा है-
- व्याख्या सम्मान की रक्षा करना मांगना और प्रिय से नित्य नया-नया प्रेम करना यह तीन बातें तब शोभा देती हैं जब चातक का सिद्धांत स्वीकार किया जाए। तात्पर्य है कि जैसे चातक केवल अपने प्रिय बादल से ही मांगता है और केवल स्वाति नक्षत्र की बूंद ही पीता है उस भूल की प्राप्ति के लिए वह बादल से नित्य नया-नया प्रेम जोड़ता है उसी प्रकार व्यक्ति को भी केवल अपने प्रिय से ही मांगना चाहिए। उसकी इच्छाएं अल्प होनी चाहिए और इच्छा पूर्ति के लिए प्रिय से नया-नया प्रेम जोड़ना चाहिए। तभी उसके जीवन में सफलता और प्रेम की अनन्यता सिद्ध हो सकती है।
काव्य सौंदर्य - भाषा - ब्रजभाषा, शैली - मुक्तक, अलंकार - अनुप्रास एवं आन्योक्ति, रस- शांत, छंद- दोहा।
प्रश्न- 1-  प्रस्तुत दोहे के पाठ और कवि का नाम लिखिए अथवा दोहे का संदर्भ लिखिए।
उत्तर-1-प्रस्तुत दोहा महाकवि गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित काव्य दोहावली से लिया गया है जो पाठ्यपुस्तक में दोहावली शीर्षक के नाम से उद्धृत है।
प्रश्न - 2 - इस दोहे में इसकी विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है?
उत्तर - 2 - इस दोहे में चातक की विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है।
प्रश्न-3- कौन सी बातें कब शोभा देती हैं?
उत्तर-3- यहां कभी के द्वारा यह कहा गया है कि सम्मान की रक्षा, करना मांगना और अपने प्रिय से नित नया नया प्रेम करना- यह तीनों बातें तब शोभा देती हैं जब चातक का सिद्धांत स्वीकार किया जाए।
प्रश्न - 4 - यहां चातक के संबंध में क्या कहा गया है?
उत्तर - 4 - यहां चातक के संबंध में यह कहा गया है कि जातक केवल अपने प्रिय बादल से ही मांगता है। वह केवल स्वाति नक्षत्र की बूंद ही पीता है और उस बूंद की प्राप्ति के लिए वह बादल से नित्य नया-नया प्रेम जोड़ता है।
प्रश्न-5- तुलसीदास के अनुसार व्यक्ति का जीवन कब सफल हो सकता है?
उत्तर- तुलसीदास जी के अनुसार व्यक्ति का जीवन तब सफल हो सकता है जब व्यक्ति केवल अपने प्रिय से ही कुछ मांगे, अपनी इच्छाओं को अल्प रखें और इच्छा पूर्ति के लिए अपने प्रिय से नया नया प्रेम जोड़े।


नहिं जाचत नहिं संग्रही सीस नाइ नहिं लेइ।
ऐसे मानी मागनेहि को बारिद बिन देइ।। 3
शब्दार्थ -जाचत - मांगना,संग्रही-
प्रसंग - इस दोहे में कभी नहीं स्वाभिमानी चातक का वर्णन किया है।

व्याख्या- तुलसीदास कहते हैं कि यह चातक अपने मुख से तो माँगता नहीं और यदि कोई देता है तो आवश्यकता से अधिक ग्रहण नहीं करता। यह कभी इकट्ठा करके नहीं रखता और कभी सिर झुकाकर भी नहीं लेता। ऐसे स्वाभिमानी चातक को बादल के बिना कौन दे सकता है? अर्थात अनन्त जल से परिपूर्ण बादल ही उसकी मौन याचना को समझता है और उसे पूर्ण करता है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि प्रभु का सच्चा भक्त पहले तो कुछ माँगता ही नहीं, फिर यदि प्रभु की कृपा से उसे सांसारिक सुख-सम्पदा प्राप्त हो भी जाती है तो वह उसे स्वाभिमान के साथ ग्रहण करता है। तुलसीदास जी कहते हैं कि स्वाभिमानी भक्त को परमात्मा के अतिरिक्त कौन दे सकता है। स्वामीजी चातक-पक्षी के माध्यम से स्वाभिमानी और एकनिष्ठ भक्तों के गुणों पर प्रकाश डालना चाहते हैं।
काव्य सौंदर्य - भाषा - ब्रजभाषा, शैली - मुक्तक, अलंकार - एवं अन्योक्ति, रस - शांत, छंद - दोहा।

प्रश्न-1- प्रस्तुत दोहे के पाठ और कवि का नाम लिखिए अथवा दोहे का संदर्भ लिखिए।
उत्तर-1- पूर्ववत
प्रश्न-2- इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने किसका वर्णन किया है?
उत्तर-2- गोस्वामी तुलसीदास ने स्वाभिमानी चातक का वर्णन किया है।
प्रश्न-3- चातक की मांगने और एकत्र करने से संबंधित किस विशेषताओं का उल्लेख किया गया है?
उत्तर-3- चातक की मांगने और एकत्र करने से संबंधित इस विशेषता का उल्लेख किया गया है कि जातक अपने मुख से तो मांगता नहीं है और यदि कोई कुछ देता है तो वह आवश्यकता से अधिक लेता नहीं साथ ही वह कभी एकत्र करके भी नहीं रखता और कभी सिर झुका कर भी नहीं लेता।
प्रश्न - 4 - चातक और स्वाति नक्षत्र की बूंद का क्या संबंध बताया गया है?
उत्तर - 4 - चातक और स्वाति नक्षत्र की बूंद का यह संबंध है कि जब स्वाति नक्षत्र की बूंद नीचे की तो वो सीधे चातक के मुंह में ही आती हैं।
प्रश्न - 5 - स्वाभिमानी चातक की याचना को कौन समझता है?
उत्तर-5- स्वाभिमानी चातक नाको अनंत जल से परिपूर्ण बादल समझता है और उसकी याचना को पूर्ण करता है।



चरन चोंच लोचन रँगौ चलौ मराली चाल।
छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल।।


आपु आपु कहँ सब भलो,अपने कहँ कोई कोई।
 तुलसी सब कहँ जो भलो,सुजन सराहिय सोई।। 5

शब्दार्थ -आपु - स्वयं को, अपने - स्वजन, सुजन- सज्जन व्यक्ति, सराहिय- सराहना करते हैं।

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने यह स्पष्ट किया है कि पूर्व पार करने वाले व्यक्ति की ही संसार में सराहना होती है।
व्याख्या- अपने लिए तो सभी भले होते हैं और सभी अपने लिए भलाई का कार्य करने में लगे रहते हैं, किंतु कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो स्वयं का भला करने के साथ ही अपने मित्र एवं संबंधियों के भले के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि इनसे भी श्रेष्ठ भी व्यक्ति होते हैं जो सभी को भला मानकर उनकी भलाई करने में लगे रहते हैं किस प्रकार के व्यक्तियों को ही सज्जन व्यक्तियों के द्वारा सराहना की जाती है।
काव्य सौंदर्य- भाषा- ब्रजभाषा, अलंकार- अनुप्रास, रस- शांत, छंद- दोहा।

प्रश्न-1- प्रस्तुत दोहे के पाठ और कवि का नाम लिखिए अथवा दोहे का संदर्भ लिखिए।
उत्तर-1- पूर्ववत,
प्रश्न-2- अपने विषय में सब लोगों का दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर-2- अपने विषय में सब लोगों का दृष्टिकोण यह होता है कि वह बड़े भले हैं।
प्रश्न-3-  तुलसीदास ने संसार में सबसे श्रेष्ठ किसे माना है?
उत्तर-3- तुलसीदास ने संसार में सबसे श्रेष्ठ उसे माना है जो सभी को भला मानकर सब की भलाई करता है।
प्रश्न -4- सज्जन किस की प्रशंसा करते हैं?
उत्तर - 4 - जो सबको भला मानकर सब की भलाई में लगा रहता है, सज्जन उसकी प्रशंसा करते हैं।


 ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥6

शब्दार्थ -भेषज - औषधि,पट - वास्तु,कुजोग -कुसंग, सुजोग- सत्संग

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने सत्संग की महिमा का गुणगान किया है।
व्याख्या- ग्रह, औषध, पानी, वायु तथा वस्त्र आदि को यदि अच्छी संगति मिलती है तो यह अच्छे हो जाते हैं और बुरी संगति पाकर यह बुरे बन जाते हैं इस रहस्य को अच्छे लक्षण वाले गुणवान व्यक्ति ही जान पाते हैं।
काव्य सौंदर्य - भाषा - ब्रजभाषा, शैली - मुक्तक, अलंकार - अनुप्रास, रस - शांत, छंद - दोहा।

जो सुनि समुझि अनीतिरत,जागत रहै जु सोई।
उपदेसिबो जगाइबो, तुलसी उचित न होई।। 7

शब्दार्थ -अनीतिरत - अनीति में लगा हुआ, जु-जो, उपदेसिबो- उपदेश देकर।

प्रसंग- प्रस्तुत दोहे में यह स्पष्ट किया गया है कि जानबूझकर कुमार पर लगे हुए व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने की चेष्टा करना निरर्थक है।

व्याख्या-, जो सही मार्ग के बारे में सुनकर और समझ कर भी अनीति पूर्ण कार्यों में लगा रहता है, जो जानबूझकर भी अंकित कार्य करता रहता है और जो जागते हुए भी सोता रहता है; तुलसीदास जी के अनुसार ऐसे व्यक्ति को उपदेश देकर जगाने का प्रयास करना व्यर्थ सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्तियों को कितना भी उपदेश दे लीजिए वह सन्मार्ग पर नहीं आते।

काव्य सौंदर्य- भाषा- ब्रजभाषा, अलंकार- अनुप्रास, रस- शांत, छंद- दोहा।

प्रश्न-1- प्रस्तुत दोहे के पाठ और कवि का नाम लिखिए अथवा दोहे का संदर्भ लिखिए।
उत्तर-1- पूर्ववत
प्रश्न-2-'जागत रहै जु सोई' का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-2--'जागत रहै जु सोई' का अर्थ है जो जागते हुए भी सोता रहता है अर्थात जो उचित और अनुचित का ज्ञान होने पर भी उसके अनुरूप आचरण करने से उदासीन बना रहता है वह व्यक्ति जागते हुए भी सोता रहता है।
प्रश्न-3- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने कैसे व्यक्त की आलोचना की है?
उत्तर-3- प्रस्तुत दोहे में गोस्वामी तुलसीदास ने ऐसे व्यक्ति की आलोचना की है, जो जानबूझकर अनुचित कार्य करता है।
प्रश्न-4- कैसे व्यक्ति को उपदेश देकर जगाया जा सकता है?
उत्तर-4- जो व्यक्ति जानबूझकर अनुचित कार्य नहीं करता और अपने आचरण के प्रति सजग रहता है, उसे उपदेश देकर जगाया जा सकता है।
 प्रश्न-5- तुलसीदास जी ने किस बात को उचित नहीं माना?
उत्तर-5- जो व्यक्ति जानबूझकर अंकित कार्य करता है और सदाचार का ज्ञान तथा उसके हानि लाभ को समझते हुए भी दुराचार का कार्य करता है ऐसे व्यक्ति को उपदेश देने को गोस्वामी तुलसीदास जी ने उचित नहीं माना है।


बरषत, हरषत लोग सब, करषत लखै न कोई।
तुलसी प्रजा सुभाग ते, भूप भानु सो होई॥8

शब्दार्थ -करषत - खिंचते हुए या ग्रहण करते हुए,  लखै - देखता है, भूप-राजा।

प्रसंग - गोस्वामी तुलसीदास जी ने सूर्य के माध्यम से अच्छे राजा का वर्णन किया है।

व्याख्या- प्रस्तुत दोहे में तुलसीदास जी ने सूर्य के माध्यम से अच्छे राजा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सूर्य जब पृथ्वी से जल को ग्रहण करता है, तो उसे कोई नहीं देखता परन्तु वह सूर्य जब जल बरसाता है, तब लोग प्रसन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार सूर्य के समान न्यायपूर्ण ढंग से कर ग्रहण करने वाला और उस कर के रूप में प्राप्त धन को प्रजा के हित में व्यय करने वाला राजा किसी देश की प्रजा को सौभाग्य से मिलता है। गोस्वामी तुलसीदास जी का मत है कि राजा को प्रजा से उतना ही कर ग्रहण करना चाहिए, जो न्याय पूर्ण हो। साथ ही कर-रूप में प्राप्त धन को उसे ऐसे कार्य में लगाना चाहिए जिससे प्रजा का कल्याण हो।

काव्य सौंदर्य - भाषा - ब्रजभाषा, अलंकार - अनुप्रास, रस - शांत, छंद - दोहा।

प्रश्न-1- प्रस्तुत दोहे के पाठ और कवि का नाम लिखिए अथवा दोहे का संदर्भ लिखिए?
उत्तर-1- पूर्ववत
प्रश्न-2- सूर्य के किस कार्य को कोई नहीं देख पाता है?
उत्तर-2- सूर्य जब धरती से जल सोखता है तो उसके इस कार्य को कोई नहीं देखता है।
प्रश्न-3- सूर्य किस कार्य कार्य को देखकर सब लोग प्रसन्न होते हैं?
उत्तर- सूर्य जब पृथ्वी पर जल बरसाता है तो उसके इस कार्य को देखकर सब लोग प्रसन्न होते हैं।
प्रश्न-4- दोहे में कैसे राजा को उत्तम सिद्ध किया गया है?
उत्तर-4- दोहे में सहज और परोक्ष सहज और परोक्ष रूप से कर ग्रहण करने वाले का और  प्रत्यक्ष रूप से प्रजा का कल्याण करके कल्याण करके उसे प्रसन्न करने वाले राजा को उत्तम सिद्ध किया गया है ।



मंत्री, गुरु अरु बैद जो ,प्रिय बोलहिं भय आस | राज धर्म तन तीनि कर, होइ बेगिहीं नास || 9

 शब्दार्थ -
प्रसंग - प्रस्तुत दोहे में चापलूस अथवा भयभीत मंत्री, वैद्य और गुरु को विनाश का कारण बताया गया है।

 अर्थ : गोस्वामीजी कहते हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु —ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से (हित की बात न कहकर ) प्रिय बोलते हैं तो (क्रमशः ) राज्य,शरीर एवं धर्म – इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है


    

सफलता का मन्त्र

         


       स्वामी विवेकानंद का बहुत लोकप्रिय कथन है 'उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक अपने लक्ष्य को न प्राप्त कर लो'। इस बात से प्रेरणा लेने की जगह कई बार लोग एक-दो बार असफल होने पर अपने लक्ष्य को पाने के लिए किए जाने वाले प्रयासों को छोड़कर ही बैठ जाते हैं। इसके विपरीत अगर हम अपनी कोशिशें जारी रखें तो हमें सफल होने से कोई नहीं रोक सकता है। यही बात इस कहानी में भी बताई गई है।

      एक प्रयोग में एक रिसर्च बायोलॉजिस्ट ने एक बड़े से टैंक में शार्क मछली को रखा और फिर उसी टैंक में छोटी मछलियों को भी डाल दिया। शार्क ने छोटी मछलियों को खाना शुरू कर दिया और कुछ ही घंटों में सभी छोटी मछलियां शार्क का आहार बन चुकी थीं। हर बार यही होता। बायोलॉजिस्ट ने अब अपने प्रयोग में थोड़ा परिवर्तन किया और एक मजबूत फाइबर स्लाइड को उस टैंक में डाल कर टैंक को दो भागों में बांट दिया। एक भाग में शार्क और दूसरे भाग में छोटी मछलियों को रखा। आदतन शार्क ने छोटी मछलियों पर हमला करना चाहा तो वे उस स्लाइड से टकरा गईं। शार्क ने प्रयास नहीं छोड़ा और हमला करती रही।

      यह प्रयोग कुछ हफ्तों तक जारी रहा। शार्क ने हमला करना जारी रखा, लेकिन उसके प्रयास में लगातार कमी आती गई। फिर एक समय ऐसा आया कि शार्क ने यह मान लिया कि वह छोटी मछलियों को नहीं खा सकती। उसने प्रयास करना ही छोड़ दिया। बायोलॉजिस्ट ने अब फाइबर की स्लाइड को वहां से हटा दिया। लेकिन यह क्या, शार्क को तो इससे कोई फर्क हीं नहीं पड़ा। उसने यह मान लिया था कि एक दीवार है, एक अवरोध है, जिसे वह पार नहीं कर सकती। उसने प्रयास करना ही छोड़ दिया अब छोटी मछलियां आराम से उसी टैंक में तैर रहीं थी और उसे शार्क से कोई खतरा भी नहीं था।

इस कहानी से मिलती है सीख-

         हममें से कई लोगों के साथ अक्सर ऐसा होता है। हम प्रयास करना ही छोड़ देते हैं। कोई रुकावट नहीं होने के बावजूद हमें ऐसा लगता है कि अवरोध है, जिसे पार नहीं किया जा सकता। यकीन मानिए, अगर किसी चीज को पाने के लिए हम ईमानदारी से लगातार प्रयास जारी रखते हैं, तो वह हमें जरूर मिलती है।

 


4- ऋतुवर्णनम् (ऋतुओं का वर्णन)

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का

सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


वर्षा

1.

 स्व नैर्घनानां प्लवगा: प्रबुद्धा विहाय निद्रां चिरसन्निरुद्धाम्।

अनेकरूपाकृतिवर्णनादा: नवाम्बुधाराभिहता: नदन्ति।।

शब्दार्थ- स्वन-गर्जना से, प्लवगा: - मेंढक, प्रबदा-जागे हुए, विहाय- त्यागकर, निद्रा नींद को; चिरसन्निरुद्धाम बहुत समय से रोकी हुई, अनेकरूपाकृतिवर्ण-अनेक रूप,आकृति, वर्ण, नादा - स्वर वाले,नवाम्बुधाराभिहता:-(नव +अम्बु -धारा +अभिह्ता:)- नवीनं जलधारा से प्रताड़ित होकर, अभिहता-प्रताड़ित होकर (चोट खाकर); नदन्ति -बोल रहे हैं |

सन्दर्भ

अनुवाद- अनेक रूप, आकृति, वर्ण और स्वर वाले, बादलों  की गर्जना से बहुत समय तक रुकी हुई नींद को त्यागकर जागे हुए मेंढक नई जल की धारा से चोट खाकर बोल रहे हैं।


2.

मत्ता गजेन्द्राः मुदिता गवेन्द्रा: वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः।                                                         रम्या नगेन्द्रा: निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः।।

शब्दार्थ- मत्ता- मस्त हो रहे हैं, गजेन्द्रा- हाथी, मुदिता-प्रसन्न हो रहे हैं, गवेन्द्रा-विजार/सांड,वनेषु-वनों में, विक्रांततारा:-अधिक पराक्रमी, मगेन्द्रा:-शेर; रम्या- सुन्दर, नगेन्द्रा- पर्वत, निभृता- निश्चल या शान्त; नरेन्द्रा राजा; प्रक्रीडितो- खेल रहे हैं,वारिधरै: -बादलों से, सुरेन्द्रा- इन्द्रा|

सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद- हाथी मस्त हो रहे हैं, साँड (आवारा पशु) प्रसन्न हो रहे हैं, वनों में शेर अधिक शक्तिशाली/पराक्रमी हो रहे हैं, पर्वत सुन्दर हैं, राजा शान्त हो गए हैं और इन्द्र बादलों से खेल रहे हैं।


3.

 वर्ष प्रवेगा: विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाता: समुदीर्णवेगा:।

प्रनष्टकूला: प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः।।

शब्दार्थ - वर्ष प्रवेगा: -वर्षा की झड़ी, विपुला: - अधिक / घनी, पतन्ति- पड़ रही हैं, प्रवान्ति- बह रही है, वाता: -वायु, समुदीर्णवेगा: - अधिक वेग वाली (तेज); प्रनष्टकूला: - किनारों को तोड़कर,  प्रवहन्ति- बह रही है। शीघ्रं- तेजी से, नद्यो- नदिया, विप्रतिपन्नमार्गा-अपना मार्ग बदलकर।

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद-  वर्षा की घनी /अधिक झड़ी पड़ रही है, तेज हवा बह रही है, किनारों को तोड़कर, अपना रास्ता बदलकर नदियाँ तीव्रता से जल बहा रही हैं।


4.

 घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनमभ्युपैति।

नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः।।

शब्दार्थ - घनोपगूढं- बादलों से ढका हुआ, गगनं -आकाश, भास्कर:-सूर्य, दर्शनमभ्युपैति (दर्शन +अभ्युपैति)- दिखाई दे रहा है,  जलौधै- जल की बाढ़ से, धरणी-पृथ्वी, वितृप्ता-तृप्त हो गई,  तमोविलिप्ता-   तमः - अन्धकार; विलिप्ता. लिपी-

सन्दर्भ -प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद- नभ मेघों से ढका है, इस कारण न तारे और न सूर्य दिखाई दे रहा है। धरती नई जल की बाढ़ से तृप्त हो गई है। अन्धकार से घिरी हुई दिशाएँ चमक नहीं रही हैं।


5.

 महान्ति कूटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।

महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैर्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः।।


शब्दार्थ - महान्ति -ऊँची, कूटानि- चोटियाँ; महीधारणां- पर्वतों की, धाराविधौतानि-जल की धाराओं से धुले, विभान्ति - शोभित हो रहे हैं, विपुलै-विशाल, प्रपातैः -झरनों से, लम्बमानैः - लटकते हुए।

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद - पहाड़ों (पर्वतों) की ऊँची-ऊँची चोटियाँ (शिखर) लटकते हुए मोतियों क बड़े हारों के सदृश अर्थात् बड़े-बड़े प्रपातों (झरनों) से अधिक सुशोभित हो रही हैं।


हेमन्तः

6.अत्यन्त-सुख सञ्चारा मध्याह्ने स्पर्शत: सुखाः।

दिवसाः सुभगादित्याः छायासलिलदुर्भगाः।


शब्दार्थ - मध्याह्न दोपहर में; स्पर्शत: स्पर्श से; सुखा. सुख देने वाले; दिवसा दिन; सुभगा सुन्दर; आदित्या. सूर्य; छाया छाया; सलिल जल (पानी); दुर्भगा. कष्ट देने वाले।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम् नामक पाठ के ‘हेमन्त’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद- (इस ऋतु में) दिन अधिक सुख देने वाले, इधर-उधर आने-जाने के योग्य हैं। दोपहर के समय (सूर्य की किरणों के स्पर्श से) दिन सुखदायी हैं, सूर्य के कारण सुख देने वाली शीतकाल के कारण दुःखदायी है, क्योंकि अधिक शीतलता के कारण छाया और जल प्रिय नहीं लगते।


7 खजूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः।

शोभन्ते किञ्चिदालम्बा: शालय: कनकप्रभाः।।

शब्दार्थ खर्जर खजूर (एक प्रकार का वृक्ष) पुष्पाकतिभिः-पुष्प की आकृति के समानशिरोभिः धान की बालों वाले पर्णतण्डलै. चावलों से भरी; शोभन्ते शोभित हो रहे हैं, किञ्चिदालम्बा. कुछ झुके हुए; शालयः धान; कनकप्रभा. सुनहरी कान्ति वाले (सोने के समान चमक वाले)।

सन्दर्भ- प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद- खजूर के फूल के समान आकृति वाले, चावलों से पूर्ण बालों से कुछ झुके हुए, सोने के समान चमक वाले धान शोभित हो रहे हैं।

8. एते हि समुपासीना विहगा: जलचारिणः।-

नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम्॥


शब्दार्थ- एते ये; समुपासीना पास बैठे हुए; विहगा: पक्षी;

जलचारिण-जलचर; ननहीं; अवगाहन्ति प्रवेश कर रहे हैं।

सलिलं जल; अप्रगल्भा. कायर; इव समान (तरह); आवहम युद्ध में।


सन्दर्भ -प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।


अनुवाद- जल के समीप बैठे जल में रहने वाले ये पक्षी जल में उसी प्रकार प्रवेश नहीं कर रहे हैं, जिस प्रकार कायर (व्यक्ति) रणभूमि में प्रवेश नहीं करते।


9. अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः।

प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा: वनराजयः।।


शब्दार्थ - अवश्यायतमोनद्धाओस के अन्धकार से बँधे हुए; नीहार कोहरा; तमसाधुन्ध; आव्रता. ढकी; प्रसप्ता सोई हुई-सी; लक्ष्यन्ते प्रतीत हो रही हैं; विपुष्पा- फूलों से रहित; वनराजयः वृक्षों की पंक्तियाँ।

सन्दर्भ-प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।

अनुवाद ओस के अन्धकार से बँधी, कुहरे की धुन्ध से ढकी, बिना फूलों – की वृक्षों की पंक्तियाँ सोई हुई-सी लग रही हैं।


वसन्तः

10.सुखानिलोऽयं सौमित्रे काल: प्रचुरमन्मथः।

गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः॥


शब्दार्थ सुखानिल-सुखद वायुवाला; सौमित्रे हे लक्ष्मण! काला

समय; प्रचुरमन्मथा अत्यधिक काम को उद्दीप्त करने वाला;

गन्धवान् सुगन्ध से युक्त; सुरभिर्मासो चैत्र मास; जातः- उत्पन्न

हुए; पुष्पं फूल; द्रुम-वृक्षा


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’

नामक पाठ के ‘वसन्तः’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद हे लक्ष्मण! सुखद समीर वाला यह समय अति कामोद्दीपक है। सौरभयुक्त इस वसन्त माह में वृक्ष, फूल और फलों से युक्त हो रहे हैं।


11.पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम्।

सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्ष तोयमुचामिव।।


शब्दार्थ पश्य देखो; रूपाणि रूपों को पुष्पशालिनाम फूलों से शोभित; वनानां वनों की; सृजतां कर रहे हैं; पुष्पवर्षाणि-फूलों की वर्षा; तोयमचामिव बादलों के समान।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद हे लक्ष्मण! जिस प्रकार बादल वर्षा की सृष्टि करते हैं, उसी प्रकार फूल बरसाते हुए फलों से शोभायमान वनों के विविध रूपों को देखो।


12 प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधा काननद्रुमाः।

वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम्।।

शब्दार्थ प्रस्तरेषु-पत्थरों पर; रम्येषु-सुन्दर; विविधा–अनेक प्रकार

के काननदुमा:-जंगली वृक्ष, वायुवेगप्रचलिता:-हवा के वेग से हिलने के कारण; पुष्पैरवकिरन्ति-फूल बिखेर रहे हैं; गाम्-पृथ्वी को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वायु-वेग से हिलने के कारण अनेक प्रकार के जंगली वृक्ष सुन्दर पत्थरों एवं धरा पर पुष्प बिखेर रहे हैं।


13 अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः।

षट्पदैरनुकूजद्भिः वनेषु मदगन्धिषु।।

शब्दार्थ अमी-ये; पवनविक्षिप्ता-हवा से हिलाए गए; विनदन्तीव-

बोल-से रहे हैं; पादपाः-वृक्ष; षट्पदैः-भौरों से; अनुकूजदिभः-गूंजते हुए; वनेषु-वनों में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद हवा के द्वारा हिलाए गए ये वृक्ष मोहक सुगन्ध वाले वनों में गूंजते हुए भौंरों, से बोल रहे हैं।


14 सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान समन्ततः।

हाटकप्रतिसञ्छन्नान् नरान् पीताम्बरानिव।।

शब्दार्थ सुपुष्पितांस्तु अच्छी तरह फूले हुओं को; पश्य-देखो;

एतान्–इनको; कर्णिकारान-कनेर के वृक्षों को; समन्तत:-सब

ओर से; हाटकप्रतिसञ्छन्नान्–सोने से ढके हुए; नरान् मनुष्यों

को; पीताम्बरानिव-पीताम्बर धारण किए हुए की तरह।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद हे लक्ष्मण! पीले पुष्पों से लदे हुए कनेर के वृक्षों को देखो। इन्हें देखने से ऐसा लगता है कि मानो मनुष्य स्वर्ण आभा वाले पीताम्बर को ओढ़कर बैठे हुए हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


घनानां स्वनैः के प्रबुद्धाः? |

उत्तर घनानां स्वनैः प्लवगाः प्रबुद्धाः।

वर्षौ कां विहाय प्लवगाः नदन्ति?

उत्तर वर्षौ निद्रां विहाय प्लवगा: नदन्ति।

वर्षाकाले के मत्ता भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गजेन्द्राः मत्ता भवन्ति।

वर्षाकाले गवेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गवेन्द्राः मुदिता भवन्ति।

वर्षाकाले नगेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले नगेन्द्राः रम्या भवन्ति।

वर्षौ गगनं कीदृशं भवति?

उत्तर वर्षौ गगनं घनोपगूढम् अन्धकारपूर्णं च भवति।

वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना केन कृता?

उत्तर वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना मुक्तया कृता।

हेमन्तऋतौ दिवसाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर हेमन्तऋतौ दिवसाः अत्यन्तः सुखसञ्चाराः सुभगादित्या च भवन्ति।

हेमन्ते के शोभन्ते?

उत्तर हेमन्ते शालयः शोभन्ते।

हेमन्ते जलचारिणः कस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति?

उत्तर हेमन्ते जलचारिणः शीतस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति। हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः कथं प्रतीयन्ते?

उत्तर हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः प्रसुप्ताः इव प्रतीयन्ते।

कः कालः प्रचुरमन्मथः भवति?

उत्तर वसन्तकालः प्रचुरमन्मथः भवति।

कः मासः सुरभिर्मासः भवति?

उत्तर चैत्रः मासः सुरभिर्मासः भवति।

वसन्तकाले वृक्षाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वसन्तकाले वृक्षाः पुष्पफलयुक्ता भवन्ति।

काननद्रुमः कैः गाम् अवकिरन्ति?

उत्तर काननद्रुमः पुष्पैः गाम् अवकिरन्ति।

के गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति?

उत्तर काननद्रुमाः गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति।

वसन्तौ कीदृशाः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव प्रतीयन्ते?

उत्तर वसन्तौ पुष्पिताः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव प्रतीयन्ते।

3-आत्मज्ञ एव सर्वज्ञ: कक्षा-12

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य दोनों) से एक-एक गद्यांश व श्लोक दिए जाएँगे, जिनका सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1 याज्ञवल्क्यो मैत्रेयीमुवाच-मैत्रेयि! उद्यास्यन् अहम् अस्मात् स्थानादस्मि। ततस्तेऽनया कात्यायन्या विच्छेदं करवाणि इति।

मैत्रेयी उवाच-यदीयं सर्वा पृथ्वी वित्तेन पूर्णा स्यात् तत् किं तेनाहममृता स्यामिति। याज्ञवल्क्य उवाच-नेति।

यथैवोपकरणवतां जीवनं तथैव ते जीवनं स्यात्। अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन इति। सा मैत्रेयी उवाच-येनाहं नामता स्याम

किमहं तेन कुर्याम्? यदेव भगवान् केवलममृतत्वसाधनं जानाति, तदेव मे ब्रहि। याज्ञवल्क्य उवाच-प्रिया न: सती त्वं प्रियं

भाषसे। एहि, उपविश, व्याख्यास्यामि ते अमृतत्व-साधनम्।

शब्दार्थ उद्यास्यन्-ऊपर जाने वाला; अहम् मैं; अस्मात्-इससे स्थानात्-स्थान से; अस्मि-.: अनया-इससे; कात्यायन्या-

कात्यायनी से; विकछेद-बँटवारा करवाणि-कर+इयं-यहः उवाच-कहा; सर्वा-सम्पूर्ण, पृथ्वी धरा; वित्तेन-धन से पूर्णा-

परिपूर्ण: स्यात्-हो जाए; अमृता-अमर; स्याम् हो जाऊँगी; उपकरण-धनधान्यादि; जानाति-जानते हैं। तदेक-वही; में-मुझे

बूहि-बताएँ न:-हमारी; प्रियं-प्रिय; भाषसे बोल रही हो।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक संस्कृत के ‘आत्मज्ञ एव सर्वज्ञः नामक पाठ से उधृत है।।


अनुवाद याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा, “मैत्रेयी! मैं इस स्थान (गृहस्थाश्रम) से ऊपर (पारिव्राज्य आश्रम) जाने वाला हूँ। अतः तुम्हारी सम्पत्ति का इस (अपनी) दूसरी पत्नी कात्यायनी से बँटवारा कर दूं।” मैत्रेयी ने कहा, ” यदि सारी पृथ्वी धन से परिपूर्ण हो जाए तो भी क्या मैं उससे अमर हो जाऊँगी?” याज्ञवल्क्य बोले-नहीं। तुम्हारा भी जीवन वैसा ही हो जाएगा जैसा साधन-सम्पन्नों का जीवन होता है। सम्पत्ति से अमरता की आशा नहीं है। मैत्रेयी बोली, “मैं जिससे अमर न हो सकूँगी (भला) उसका क्या करूँगी? भगवन्! आप जो अमरता का साधन जानते हैं केवल वही मुझे बताएँ।” याज्ञवल्क्य ने कहा, “तुम मेरी प्रिया हो और प्रिय बोल रही हो। आओ, बैठो, मैं तुमसे अमृत तत्त्व के साधन की व्याख्या करूँगा।’


2 याज्ञवल्क्य उवाच-न वा अरे मैत्रेयि! पत्युः कामाय पति: प्रियो भवति। आत्मनस्तु वै कामाय पतिः प्रियो भवति। न वा अरे,

‘जायायाः कामाय जाया प्रिया भवति, आत्मनस्तु वै कामाय जाया प्रिया भवति। न वा अरे, पुत्रस्य वित्तस्य च कामाय पुत्रो वित्तं

वा प्रियं भवति। आत्मनस्तु वै कामाय पुत्रो वित्तं वा प्रियं भवति। न वा अरे, सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति, आत्मनस्तु वै

कामाय सर्व प्रियं भवति। तस्माद् आत्मा वा अरे मैत्रेयि! दृष्टव्य: दर्शनार्थं श्रोतव्य:, मन्तव्य: निदिध्यासितव्यश्च। आत्मनः

खलु दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति।

शब्दार्थ न-नहीं; वा-अथवा; अरे-अरी; पत्यु:-पति की; कामाय-इच्छा के लिए; आत्मन:-अपनी; भवति-होता हैजायाया:-

पत्नी का; वित्तं-धन; सर्वस्य-सब की; तस्माद-इसलिए; दृष्टव्यः-देखने योग्य है; श्रोतव्य:-सुनने योग्य है; मन्तव्य:-मनन करने योग्य है; निदिध्यासितव्यश्च ध्यान करने योग्य; खलु-निश्चय ही।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद याज्ञवल्क्य बोले, “अरी मैत्रेयी! (पत्नी को) पति, पति की

कामना (इच्छापूति) के लिए प्रिय नहीं होता। पति तो अपनी ही कामना के लिए प्रिय होता हा अरी! न ही (पति को) पत्नी, पत्नी की कामना के लिए प्रिय होती है, (वरन्) अपनी कामना के लिए ही पत्नी प्रिय होती है।

अरी! पुत्र एवं धन की कामना के लिए पुत्र एवं धन, प्रिय नहीं होते,

(वरन्) अपनी ही कामना के लिए पुत्र एवं धन प्रिय होते हैं। सबकी कामना के लिए सब प्रिय नहीं होते, सब अपनी ही कामना के लिए प्रिय होते है।” “इसलिए हे मैत्रेयी! आत्मा ही देखने योग्य है। दर्शनार्थ, सुनने योग्य है, मनन करने योग्य तथा ध्यान करने योग्य है। आत्मदर्शन से अवश्य ही यह सब ज्ञात हो जाता है।”


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


याज्ञवल्क्य: मैत्रेयीं किम् उवाच?

उत्तर याज्ञवल्क्य: मैत्रेयीं उवाच-“मैत्रेयि! अहम् अस्मात् स्थानात्

उद्यास्यन् अस्मि।”

पृथ्वी केन पूर्णा स्यात्?

उत्तर पृथ्वी वित्तेन पूर्णा स्यात्।

केन अमृतत्त्वस्य आशा न अस्ति?

उत्तर वित्तेन अमृतत्त्वस्य आशा न अस्ति।

भगवान् किं जानाति?

उत्तर भगवान् अमृतत्त्वसाधनं जानाति।

याज्ञवल्क्यः मैत्रेयीं कस्य विषयस्य व्याख्यां कृतवान्?

उत्तर याज्ञवल्क्यः मैत्रेयीं अमृतत्त्व-साधनस्य व्याख्यां कृतवान्।

याज्ञवल्क्यस्य प्रिया का अस्ति?

उत्तर याज्ञवल्क्यस्य प्रिया मैत्रेयी अस्ति।

कस्य कामाय पतिः प्रियं न भवति?

उत्तर पत्युः कामाय पति: प्रियं न भवति।

कस्याः कामाय जाया प्रिया न भवति?

उत्तर जायायाः कामाय जाया प्रिया न भवति।

कस्य कामाय पुत्रं वित्तं च प्रियं भवति?

उत्तर आत्मनः कामाय पुत्रं वित्तं च प्रियं भवति।

कस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति?

उत्तर आत्मनः कामाय सर्वं प्रियं भवति।

कस्य दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति?

उत्तर आत्मन: दर्शनेन इदं सर्वं विदितं भवति।

सांसारिकवस्तूनि जनाय कथं रोचन्ते?

उत्तर सांसारिकवस्तूनि जनाय आत्मने कामाय रोचन्ते।


10- पंचशील सिद्धांता: कक्षा 12

पंचशील

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


पञ्चशीलमिति शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः। महात्मा गौतमबुद्धः एतान् पञ्चापि सिद्धान्तान् पञ्चशीलमिति नाम्ना

स्वशिष्यान शास्ति स्म। अत एवायं शब्द: अधुनापि तथैव स्वीक़तः। इमे सिद्धान्ताः क्रमेण एवं सन्ति-

अहिंसा 2. सत्यम् 3. अस्तेयम् 4. अप्रमादः 5. ब्रह्मचर्यम् इति।

शब्दार्थ शिष्टाचारविषयका:-शिष्टाचार सम्बन्धी; एतान्-इनको नाम्ना-नाम से; शास्ति स्म-उपदेश देते थे; अधुनापि-अब भी;

तथैव-उस ही प्रकारा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत के ‘पञ्चशील सिद्धान्ताः’ पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद पंचशील शिष्टाचार से सम्बन्धित सिद्धान्त हैं। महात्मा गौतम बुद्ध पंचशील नामक इन पाँचों सिद्धान्तों का अपने शिष्यों को

उपदेश देते थे, इसलिए यह शब्द आज भी उसी रूप में स्वीकारा गया है। ये सिद्धान्त क्रमशः निम्न प्रकार हैं-


अहिंसा 2. सत्य 3 . चोरी न करना 4. प्रमाद न करना 5. ब्रह्मचर्य


बौद्धयुगे इमे सिद्धान्ता: वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ता आसन्। परमद्य इमे सिद्धान्ताः राष्ट्राणां

परस्परमैत्रीसहयोगकारणानि, विश्वबन्धुत्वस्य, विश्वशान्तेश्च साधनानि सन्ति। राष्ट्रनायकस्य श्रीजवाहरलालनेहरूमहोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशीलसिद्धान्तानधिकृत्य एवाभवत्। यतो हि उभावपि देशौ बौद्धधमें निष्ठावन्तौ। आधुनिके जगति पञ्चशीलसिद्धान्ता: नवीनं राजनैतिकं स्वरूपं गृहीतवन्तः। एवं च व्यवस्थिता:-


1 किमपि राष्ट्रं कस्यचनान्यस्य राष्ट्रस्य आन्तरिकेषु विषयेषु कीदृशमपि व्याघातं न करिष्यति।


2 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं प्रभुसत्तां प्रादेशिकीमखण्डताञ्च सम्मानयिष्यति।


3 प्रत्येकराष्ट्रं परस्परं समानतां व्यवहरिष्यति।


4 किमपि राष्ट्रमपरेण नाक्रस्यते।


5 सर्वाण्यपि राष्ट्राणि मिथ: स्वां स्वां प्रभुसत्तां शान्त्या रक्षिष्यन्ति।

विश्वस्य यानि राष्ट्राणि शान्तिमिच्छन्ति तानि इमान् नियमानङ्गीकृत्य परराष्ट्रैस्सार्द्ध स्वमैत्रीभावं दृढीकुर्वन्ति।


शब्दार्थ इमे-ये; वैयक्तिकजीवनस्य-व्यक्तिगत जीवन के आसन्-थे; परमद्य-किन्तु आज; विश्वशान्तेश्च-और विश्वशान्ति के;

साधनानि-साधन; अधिकृत्य-अधिकार करके या आधार पर; यतो हि-क्योंकि, निष्ठावन्तौ-आस्था रखने वाले, जगति-संसार में;

गृहीतवन्तः-धारण कर लिया है; कस्यचनान्यस्य-अन्य किसी के राष्ट्रस्य-राष्ट्र की; व्याघात-हस्तक्षेपः प्रादेशिकीमखण्डताञ्च-और

प्रादेशिक अखण्डता का; सर्वाण्यपि-सभी; मिथ:-परस्पर; परराष्ट्रैस्सार्द्धम-दूसरे राष्ट्रों के साथ; स्वमैत्रीभावं-अपने मैत्री भावों ।

को; दृढीकुर्वन्ति-दृढ़ करते हैं (मजबूत करते हैं।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद बौद्धकाल में ये सिद्धान्त व्यक्तिगत जीवन के उत्थान के लिए प्रयुक्त किए जाते थे, किन्तु आज ये सिद्धान्त राष्ट्रों की परस्पर मैत्री एवं सहयोग के कारण हिता तथा विश्वबन्धुत्व एवं विश्वशान्ति के साधन हैं। राष्ट्र के नायक श्री जवाहरलाल नेहरू महोदय के प्रधानमन्त्रित्व काल में पंचशील के सिद्धान्तों को

स्वीकार करके ही चीन देश के साथ भारत की मित्रता हुई थी, क्योंकि दोनों ही राष्ट्र बौद्ध धर्म में निष्ठा रखने वाले हैं। आधुनिक जगत् में पंचशील के सिद्धान्तों ने नव नीतिक स्वरूप धारण कर लिया है तथा वे इस प्रकार निश्चित किए गए है- ।


1 कोई भी राष्ट्र किसी दूसरे राष्ट्र के आन्तरिक विषयों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करेगा।


2 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर प्रभुसत्ता तथा प्रादेशिक अखण्डता का

सम्मान करेगा।

3 प्रत्येक राष्ट्र परस्पर समानता का व्यवहार करेगा।


4 कोई भी राष्ट्र दूसरे (राष्ट्र) से आक्रान्त नहीं होगा।


5 सभी राष्ट्र अपनी-अपनी प्रभुसत्ता की शान्तिपूर्वक रक्षा

करेंगे। विश्य के जो भी राष्ट्र शान्ति की इच्छा रखते हैं, वे

इन नियमों को अंगीकार (स्वीकार) करके दूसरे राष्ट्रों के

साथ अपने मैत्री-भाव को दृढ़ करते हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित है।


1 पञ्चशीलं कीदृशाः सिद्धान्ताः सन्ति?

उत्तर पञ्चशीलं शिष्टाचारविषयकाः सिद्धान्ताः सन्ति।

2 गौतमबुद्धः कान् सिद्धान्तान् शिक्षयत्?

उत्तर गौतमबुद्धः पञ्चशीलमिति नाम्नां सिद्धान्तान स्वशिष्यान शिक्षयत्।

3 महात्मनः गौतमबुद्धस्य पञ्चशीलसिद्धान्ता: के सन्ति? |

अथवा गौतमबुद्धस्य सिद्धान्ताः के आसन्?

अथवा पञ्चशील सिद्धान्ताः के आसन्? उत्तर अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति पञ्चशीलसिद्धान्ताः सन्ति ।

4 क्रमेण के पञ्चशीलसिद्धान्ताः भवन्ति।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः क्रमेण अहिंसा, सत्यम्, अस्तेयम्, अप्रमादः, ब्रह्मचर्यम् इति भवन्ति।

5 गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् केषु सिद्धान्तेषु अशिक्षय?

उत्तर गौतमबुद्धः स्वशिष्यान् अहिंसा, सत्यम, अस्तेयम्, अप्रमादः, बह्मचर्यं च ऐषु सिद्धान्तेषु अशिक्षयत्।

6 पञ्चशीलसिद्धान्ताः कस्मिन् युगे प्रयुक्ताः आसन्? ।

उत्तर पञ्चशीलसिद्धान्ताः बौद्धयुगे प्रयुक्ताः आसन्।

7 बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः कस्य हेतोः प्रयुक्ताः आसन्?

उत्तर बौद्ध युगे इमे सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय

प्रयुक्ताः आसन्।

8 के सिद्धान्ता: वैयक्तिक जीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः

आसन्?

उत्तर पञ्चशील-सिद्धान्ताः वैयक्तिकजीवनस्य अभ्युत्थानाय प्रयुक्ताः आसन्।

9 वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं केषु निहितः अस्ति?

उत्तर वैयक्तिक जीवनस्य उत्थानं पञ्चशील-सिद्धान्तेषु निहितः ।

अस्ति ।

10 चीन भारतयोमैत्री कदा सम्भूता?

उत्तर चीन भारतयोमैत्री श्री जवाहरलाल महोदयस्य

प्रधानमन्त्रित्वकाले सम्भूता।

11 चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री कान् सिद्धान्तानधिकृत्य

अभवत्?

उत्तर चीनदेशेन सह भारतस्य मैत्री पञ्चशील सिद्धान्तानिधकृत्य

अभवत्।

12 कौ देशौ बौद्धधर्मे निष्ठावन्तौ?

उत्तर चीनभारतदेशौ बौद्धधर्मे

7- महर्षि दयानन्दः (महर्षि दयानन्द) कक्षा 12

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे श्रीकर्षणतिवारीनाम्नो धनाढ्यस्य औदीच्यविप्रवंशीयस्य धर्मपत्नी शिवस्य पार्वतीव भाद्रपदमासे नवम्यां तिथौ गुरुवासरे मूलनक्षत्रे एकाशीत्युत्तराष्टादशशततमे (1881) वैक्रमाब्दे पुत्ररत्नमजनयत्।। जन्मतः दशमे दिने ‘शिवं भजेदयम्’ इति बुद्धया पिता स्वसुतस्य मूलशङ्कर इति नाम अकरोत् अष्टमे वर्षे चास्योपनयनमकरोत्। त्रयोदशवर्ष प्राप्तवतेऽस्मै मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्। पितुराज्ञानुसारं मूलशङ्करः

सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्। रात्रौ शिवालये स्वपित्रा समं सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत् शिवलिङ्गस्य चोपरि

मूषिकमेकमितस्तत: विचरन्तं दृष्ट्वा शङ्कितमानस: सत्यं शिवं सुन्दरं लोकशङ्करं शङ्करं साक्षात्कर्तुं हृदि निश्चितवान्। ततः

प्रभृत्येव शिवरात्रे: उत्सव: ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना श्रीमद्दयानन्दानुयायिनाम् आर्यसमाजिनां मध्ये प्रसिद्धोऽभूत्।।


शब्दार्थ सौराष्ट्रमान्-सौराष्ट्र प्रान्त में प्राग्रे गाँव में धनाढ्यस्म-धनिक की; औदीच्यविप्रवंशीयस्म् औदीच्य ब्राह्मण वंश के;

पार्वतीव-पार्वती की तरह; गुरुवास-गुरुवार को अजनय-जन्म दिया; जन्मत-जन्म से; दशमे दिने-दशवें दिन; इति-ऐसा;

बुद्धय-विचार कर, उपनय-यज्ञोपवीत; रात्र-रात्रि में विलोक्य-देखकर; मूषिकर-चूहा; इतस्तत-इधर-उधर; विवर-

घूमता हुआ; दृष्ट्वम्-देखकर; ह-िहृदय में ततः प्रभृत्येक-तब से लेकर ही; शिवरात्रे-शिव रात्रि का; नाम्ना-नाम से; मध्ये

बीच में।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘महर्षिर्दयानन्दः’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद सौराष्ट्र-प्रान्त के टंकारा नामक ग्राम में उत्तरी ब्राह्मणवंश के श्रीकर्षण तिवारी नामक धनसेठ की पत्नी ने, (भगवान) शिव की पत्नी पार्वती की भाँति विक्रम सम्वत् 1881 के भाद्रपद मास की नवमी तिथि, गुरुवार को मूल नक्षत्र में पुत्ररत्न को जन्म दिया। ‘यह (भगवान) शिव को भजे’ ऐसा विचार कर पिता ने जन्म के दसवें दिन अपने पुत्र का नाम ‘मूलशंकर’ रखा तथा आठवें वर्ष में इनका यज्ञोपवीत संस्कार किया। तेरह वर्ष पूर्ण होने पर मूलशंकर को पिता ने शिवरात्रि का व्रत रखने के लिए कहा। पिता की आज्ञा के अनुसार मूलशंकर ने व्रत के समस्त विधान (पूर्ण) किए।

रात्रि में शिवालय में अपने पिता संग सबको सोया देख ये स्वयं जागे बैठे रहे तथा शिवलिंग पर एक चूहे को इधर-उधर घूमता देख इनका मन सशंकित हो उठा। (इन्होंने) सत्यम् शिवम्-सुन्दरम् लोक मंगलकारी (भगवान) शंकर का साक्षात्कार करने का हृदय में निश्चय किया। तभी से लेकर श्रीमान दयानन्द के अनुयायी आर्यसमाजियों में शिवरात्रि का उत्सव ‘ऋषिबोधोत्सव’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विशेष महर्षि दयानन्द को ज्ञान प्राप्त होने को ‘ऋषिबोधोत्सव’ नाम से जाना जाता है।


2 यदा अयं षोडशवर्षदेशीयः आसीत् तदास्य कनीयसी भगिनी

विचिकया पञ्चत्वं गता। वर्षत्रयानन्तरमस्य पितृव्योऽपि दिवङ्गतः।

द्वयोरनयोः मृत्युं दृष्ट्वा आसीदस्य मनसि-कथमहं कथंवायं लोक:

मृत्युभयात् मुक्तः स्यादिति चिन्तयतः एवास्य हृदि सहसैव

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः। एकस्मिन् दिवसे अस्तङ्गते भगवति भास्वति मूलशङ्करः गृहमत्यजत्।

शब्दार्थ यदा-जब; अयं-यह षोडशवर्षदेशीयः-सोलह वर्ष के ।

आसीत्-थे; कनीयसी-छोटी; भगिनी-बहन; विचिकया-हैजे से;

द्वयोरनयो:-इन दोनों की; दृष्ट्वा -देखकर; मनसि-मन में; चिन्तयत:- सोचते हुए; हदि-हृदय में; सहसैव-अचानक ही, प्रदीप:-दीपक; प्रज्वलित:-जल उठा; एकस्मिन् दिवसे-एक दिन; भगवति भास्वति- भगवान सूर्य; गृहमत्यजत्-गृह-त्याग कर दिया। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद जब ये लगभग सोलह वर्ष के थे, (तब) इनकी छोटी बहन की मृत्यु हैजे से हो गई। तीन वर्षों के उपरान्त इनके चाचा भी स्वर्ग सिधार गए। इन दोनों की मृत्यु देख इनके मन में (प्रश्न) उठा कि मृत्यु के भय से कैसे मुझे और कैसे इस जग को मुक्ति मिल सकती है? ऐसा विचार करते हुए इनके हृदय में सहसा वैराग्य का दीपक जल उठा। एक दिन भगवान सूर्य के अस्त होने के उपरान्त

मूलशंकर ने घर त्याग दिया।


3 सप्तदशवर्षाणि यावत् अमरत्वप्राप्त्युपायं चिन्तयन् मूलशङ्करः ग्रामाद् ग्राम, नगरान्नगरं, वनाद् वनं, पर्वतात् पर्वतमभ्रमत् परं नाविन्दतातितरां तृप्तिम्। अनेकेभ्यो विद्वद्भ्यः व्याकरण-वेदान्तादीनि शास्त्राणि योगविद्याश्च अशिक्षत्। नर्मदातटे च पूर्णानन्दसरस्वतीनाम्न: संन्यासिनः सकाशात् संन्यासं गृहीतवान् ‘दयानन्दसरस्वती’ इति नाम च अङ्गीकृतवान्।

शालार्थ सप्तदशवर्षाणि-सत्रह वर्ष:यावत-तक: अमरत्व-अमरता

प्राप्त्युपायं-प्राप्ति के उपाय; चिन्तयन्-विचार करते हुए; अतितरां-

अधिक; विद्वद्भ्यः-विद्वानों से; अशिक्षत्-सीखी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद मूलशंकर सत्रह वर्ष तक अमरता प्राप्ति के उपाय पर विचार करते हुए गाँव-गाँव, शहर-शहर, वन-वन, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, किन्तु अधिक सन्तुष्टि नहीं पा सके। अनेक विद्वानों से व्याकरण, वेदान्त आदि शास्त्र तथा योग-विद्या सीखी। (इन्होंने) नर्मदा नदी के तट पर ‘पूर्णानन्द सरस्वती’ नाम के संन्यासी से

संन्यास ग्रहण कर ‘दयानन्द सरस्वती’ नाम अंगीकार किया।


4 क्रमेण च मथुरानगरादागतेभ्य: जनेभ्यः दण्डिविरजानन्दस्वामिनः पुण्यं यशः श्रावं-श्रावं सप्तदशैकोन-विंशतिशततमे वैक्रमाब्दे असौ भगवत: श्रीकृष्णस्य जन्मभुवं मथुरानगरीमगच्छत्। तत्र गुरुकल्पवृक्षं, वेदवेदाङ्गप्रवीणं, विलोचनमपि आगमलोचनं, साधुस्वभावं गुरुं विरजानन्दमभ्यगच्छत् भक्त्या प्रणम्य च विद्याध्ययनस्य औत्सुक्यं. न्यवेदयत्।

शब्दार्थ क्रमेण-क्रमशः; च-और; जनेभ्य:-मनुष्यों से; पुण्यं-पवित्र;

आवं-श्रावं-बार-बार सुनकर; जन्मभुवं-जन्मभूमि; अगच्छत्-गए;

तंत्र-वहाँ; गुरुकल्पवृक्षं-गुरुरूपी कल्पवृक्ष; विलोचनम-नेत्रहीन;

आगमलोचनम् -शास्त्र या ज्ञान रूपी नेत्रों वाले भक्त्या-भक्तिपूर्वक; प्रणम्य-प्रणाम करके, विद्याध्ययनस्य-विद्याध्ययन की; औत्सुक्यम्- उत्सुकता।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद और एक के बाद एक मथुरा नगर से आने वाले मनुष्यों से दण्डी विरजानन्द स्वामी की पावन कीर्ति को बार-बार सुनकर ये 1916 विक्रम संवत् में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा नगरी गए। वहाँ गुरुरूपी कल्पवृक्ष, वेद-वेदाङ्ग में प्रवीण आँखों से अन्धे होते हुए भी, ज्ञानरूपी आँखों वाले, साधु

स्वभाव वाले गुरु विरजानन्द के पास गए और भक्तिपूर्वक प्रणाम करके विद्याध्ययन की इच्छा व्यक्त की।


5 गुरु: विरजानन्दोऽपि कुशाग्रबुद्धिमिमं दयानन्दं त्रीणि वर्षाणि यावत् पाणिनेः अष्टाध्यायीमन्यानि च शास्त्राणि अध्यापयामास। समाप्तविद्यः दयानन्दः परमया श्रद्धया गुरुमवदत्-भगवन् ! अहम् अकिञ्चनतया तनुमनोभ्यां समं केवलं लवङ्गजातमेव समानीतवानस्मि। अनुगृहणातु भवान् अङ्गीकृत्य मदीयामिमां गुरुदक्षिणाम्। ।

शब्दार्थ कुशाग्रबुद्धिमिमं-तीव्र बुद्धिवाले; त्रीणि-तीन; वर्षाणि-वर्ष,

यावत-तक; अन्यानि च-और दूसरे; शास्त्राणि-शास्त्र; अध्यापयामास- अध्ययन कराया; श्रद्धया-श्रद्धा से; गुरुमवदत्-गुरु से कहा; । अकिञ्चनतया-धनहीन होने के कारण; तनमनोभ्यां-शरीर और मन; सम-साथ; लवङ्ग-लौग; समानीतवानस्मि-लाया हूँ: अनुग्रहणातु- अनुगृहीत करें; भवान् -आप; अङ्गीकृत्य-स्वीकार करके; मदीयाम-मेरी:

इमां-इस; गुरुदक्षिणाम्-गुरु-दक्षिणा को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु विरजानन्द ने भी इस कुशाग्रबुद्धि वाले दयानन्द को तीन वर्षों तक पाणिनी की अष्टाध्यायी एवं अन्य शास्त्रों का अध्ययन कराया। विद्योपार्जन पूर्ण कर दयानन्द ने (अपने) परम श्रद्धेय गुरु से कहा, “भगवन! मैं दरिद्र होने के कारण (आपके लिए) तन-मन से मात्र कुछ लौंग लाया हूँ। आप मेरी इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कर मुझे अनुगृहीत (कृतज्ञ) करें।”


6 प्रीत: गुरुस्तमभाषत-सौम्य! विदितवेदितव्योऽसि, नास्ति किमपि

अविदितं तव। अद्यत्वेऽस्माकं देश: अज्ञानान्धकारे निमग्नो वर्तते,

नार्यः अनाद्रियन्ते, शूद्राश्च तिरस्क्रियन्ते, अज्ञानिनः पाखण्डिनश्च

पूज्यन्ते। वेदसूर्योदयमन्तरा अज्ञानान्धकारं न गमिष्यति। स्वस्त्यस्तु ते, उन्नमय पतितान्, समुद्धर स्त्रीजाति, खण्डय पाखण्डम्, इत्येव

मेऽभिलाष: इयमेव च मे गुरुदक्षिणा।


शब्दार्थ प्रीत:-प्रसन्न होकर; अभाषत-कहा; अद्यत्वे-आजकल;

अस्माकं-हमारे; निमग्नो-डूबा; वर्तते-है; नार्य:-स्त्रियों का;

अनाद्रियन्ते-अपमान किया जाता है; शूद्राश्च-और शूद्रों का;

तिरस्क्रियन्ते-तिरस्कार किया जाता है; अज्ञानिन:-मूर्ख पाखण्डिनश्च- और पाखण्डी; पूज्यन्ते-पूजे जाते हैं; अन्तरा-बिना; स्वस्त्यस्तु ते-तुम्हारा कल्याण हो; उन्नमय-उठाओ; पतितान्-पतितों को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु ने प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहा, “सौम्य! तुम जानने योग्य (सभी) बातें जान चुके हो, अब तुम्हें कुछ भी अज्ञात नहीं। इन दिनों हमारा राष्ट्र अज्ञानरूपी अन्धकार में डूबा हुआ है, (आज यहाँ) नारियों का अनादर किया जाता है, शूद्र तिरस्कृत किए जाते हैं और अज्ञानी व पाखण्डी पूजे जाते हैं। अज्ञानरूपी अन्धकार बिना वेदरूपी सूर्य के उदित हुए दूर नहीं होगा। तुम्हारा कल्याण हो, पतितों को (ऊँचा) उठाओ, स्त्री-जाति का उद्धार करो, पाखण्ड का खण्डन (नाश) करो, यह मेरी अभिलाषा है और यही मेरी गुरुदक्षिणा है।” ।


7 .गुरुणा एवम् आज्ञप्त: महर्षिर्दयानन्दः एतद्देशवासिनो जनान्

उद्धर्तुं कर्मक्षेत्रेऽवतरत्। सर्वप्रथमं हरिद्वारे कुम्भपर्वणि

भागीरथीतटे पाखण्डखण्डिनीं पताकामस्थापयत्। ततश्च

हिमाद्रिं गत्वा त्रीणि वर्षाणि तप: अतप्यत्। तदनन्तरमयं

प्रतिपादितवान्- ऋग्यजुसामाथर्वाणो वेदाः नित्या ईश्वर

कृर्तृकाश्च, ब्राह्मण-क्षत्रिय- वैश्य-शूद्राणां गुण-कर्मस्वभावैः

विभागः न तु जन्मना, चत्वारः एव आश्रमाः, ईश्वरः एकः एव,

ब्रह्म-पितृ-देवातिथि-बलि-वैश्वदेवाः पञ्च महायज्ञा नित्यं

करणीयाः। ‘स्त्रीशूद्रौ वेदं नाधीयाताम्’ अस्य वाक्यस्य असारतां

प्रतिपाद्य सर्वेषां वेदाध्ययनाधिकार व्यवस्थापयत्। एवमयं

पाखण्डोन्मूलनाय वैदिक धर्मसंस्थापनाय च सर्वत्र भ्रमति स्म।

एवमार्यज्ञानमहादीपो देवो दयानन्दः यावज्जीवनं

देशजात्युद्धाराय प्रयतमानः तदर्थं स्वजीवनमपि दत्तवान्

मुक्तिञ्चाध्यगच्छत् एवमस्य महर्षेः जीवनं

नूनमनुकरणीयमस्ति।


शब्दार्थ गुरुण-गुरु से; एवम् इस प्रकार; आज्ञप्त:-आज्ञा ।

पाए हुए; उद्धर्तु-उद्धार करने के लिए; भागीरथीतटे-गंगा के

किनारे पर पाखण्डखण्डिनी-पाखण्ड का नाश करने वाली;

पताकाम्-ध्वजा को; हिमादि-हिमालय पर; गत्वा-जाकर;

सर्वत्र-सब जगह; भ्रमति स्म-घूमते रहे; महादीपो-महान् दीपक;

यावज्जीवन-जीवन-पर्यन्त प्रयतमानः-प्रयत्न करते हुए;

तदर्थ-उसके लिए; दत्तवान् दे दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुरु से इस प्रकार आज्ञा प्राप्त करके महर्षि दयानन्द इस देश के निवासी मनुष्यों के उद्धार के लिए कर्मक्षेत्र में कूद पड़े। सर्वप्रथम हरिद्वार में कुम्भपर्व पर गंगा के किनारे पाखण्ड का नाश करने वाली पताका (ध्वजा) को स्थापित किया। उसके बाद हिमालय पर्वत पर जाकर तीन वर्ष तक तप किया।

इसके बाद उन्होंने प्रतिपादित किया कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद नित्य हैं और ईश्वर द्वारा रचित हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का विभाजन गुण, कर्म और प्रकृति के अनुरूप है, न कि जन्म से। आश्रम चार ही हैं। ईश्वर एक ही है। ब्रह्म, पितृ, देव, अतिथि तथा बलिवैश्वदेव ये पाँच महायज्ञ प्रतिदिन ही करने चाहिए। “स्त्री और शूद्र को वेद नहीं पढ़ने चाहिए”-इस वाक्य की सारहीनता का प्रतिपादन करके सभी के लिए वेद को पढ़ने के अधिकार की व्यवस्था की। इस तरह ये पाखण्ड की समाप्ति के लिए और वैदिक धर्म की स्थापना के लिए सब जगह घूमते रहे। इस प्रकार आर्य-ज्ञान के महान् दीप देव दयानन्द ने सम्पूर्ण जीवन देश और जाति के उद्धार के लिए कोशिश करते हुए उसके लिए अपना जीवन भी अर्पित कर दिया और मोक्ष प्राप्त किया। इस प्रकार इन महर्षि का जीवन निश्चित रूप से अनुकरणीय है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महर्षेः दयानन्दस्य जन्मः कस्मिन् स्थाने/ग्रामे अभवत?

अथवा महर्षेः दयानन्दस्य जन्मभूमिः कुत्र आसीतो.

अथवा मूलशङ्करस्य जन्म कुत्र अभव?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य जन्म सौराष्ट्रप्रान्ते टङ्कारानाम्नि ग्रामे अभवत्।

महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम किम् आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य पितुः नाम श्रीकर्षणतिवारी आसीत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् मासे अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म भाद्रपदमासे अभवत्।

मूलशङ्करस्य जन्म कस्मिन् दिने नक्षत्रे च अभवत्?

उत्तर मूलशङ्करस्य जन्म गुरुवासरे मूलनक्षत्रे च अभवत्।

दयानन्दस्य जनकः ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कथं कृतवान्?

उत्तर ‘शिवं भजेत अयं’ इति विचार्यं दयानन्दस्य जनक: ‘मूलशङ्करः’ इति नाम कृतवान्।

महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं किं नाम आसीत्?

उत्तर महर्षेः दयानन्दस्य बाल्यकालिकं मूलशङ्करः इति नाम आसीत्।

अष्टमे वर्षे कस्य उपनयनम् अभवत्?

उत्तर अष्टमे वर्षे दयानन्दस्य उपनयनम् अभवत्।

कस्मै पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्?

उत्तर मूलशङ्कराय पिता शिवरात्रिव्रतमाचरितुम् अकथयत्।

शिवरात्रेः व्रतं क: अकरोत्?

उत्तर शिवरात्रेः व्रतं मूलशङ्करः अकरोत्।

कस्य आज्ञानुसारं मूलशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्?

उत्तर पितुः आज्ञानुसारं मूलयशङ्करः सर्वमपि व्रतविधानमकरोत्।

मूलशङ्करः कान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्?

उत्तर मूलशङ्करः सर्वान् निद्रितान् विलोक्य स्वयं जागरितोऽतिष्ठत्।

शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः किम् अचिन्तयत्?

उत्तर शिवलिङ्गे मूषकं विचरन्तं दृष्ट्वा मूलशङ्करः लोकशङ्करं शङ्करं प्राप्तुम् अचिन्तयत्।

शिवरात्रेः उत्सव: केन नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्?

उत्तर शिवरात्रेः उत्सवः ‘ऋषिबोधोत्सवः’ इति नाम्ना प्रसिद्धः अभवत्।

दयानन्दस्य भगिनी कथं पञ्चत्वं गता?

उत्तर दयानन्दस्य भगिनी विषूचिकया पञ्चत्वं गता।

वर्षत्रयानन्तरं कस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गत:?

उत्तर वर्षत्रयानन्तरं मूलशङ्करस्य पितृव्यः अपि दिवङ्गतः।

लोकः कस्मात् मुक्तः स्यात्?

उत्तर लोकः मृत्युभयात् मुक्तः स्यात्।

मूलशङ्करस्य हृदये वैराग्यं कथम् उत्पन्नम्?

उत्तर स्वभगिन्याः पितृव्यस्य च मृत्युं दृष्ट्वा मूलशङ्करस्य हृदयो

वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

कस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः?

उत्तर दयानन्दस्य हृदये वैराग्यप्रदीपः प्रज्वलितः।

मूलशङ्करः गृहं कदा अत्यजत्?

उत्तर मूलशङ्करः अस्तङ्गते भगवति भास्वति गृहम् अत्यजत्।

मूलशङ्करः कति वर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रम?

उत्तर मूलशङ्करः सप्तदशवर्षाणि पर्वतादिकम् अभ्रमत्।

मूलशङ्कर: मथुरानगरं किमर्थम् अगच्छत्?

उत्तर मूलशङ्करः विरजानन्दस्य यशं श्रुत्वा मथुरानगरम् अगच्छत्।

महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः कः आसीत्?

अथवा विरजानन्दः कस्य गुरुः आसीत्?

‘उत्तर विरजानन्दः महर्षेः दयानन्दस्य गुरुः आसीत्।।

कः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः गुरुः दयानन्दं व्याकरणम् अध्यापयामास।

विरजानन्दः कं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास?

उत्तर विरजानन्दः दयानन्दं महानुभावं शास्त्राणि अध्यापयामास।

समाप्तविद्यः दयानन्दः कस्मै लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्?

उत्तर समाप्तविद्यः दयानन्दः गुरवे लवङ्जातं गुरुदक्षिणाम् अददात्।

दयानन्दः कीदृशः प्रदीपः प्रज्वलितः? ।

उत्तर दयानन्दः ज्ञानमयप्रदीपः प्रज्वलितः।

कतयः आश्रमाः सन्ति?

उत्तर चत्वारः आश्रमाः सन्ति।

कः एकः एव अस्ति?

उत्तर ईश्वरः एकः एव अस्ति।

कतयः महायज्ञाः नित्यं करणीया?

उत्तर पञ्च महायज्ञाः नित्यं करणीया।

महर्षिर्दयानन्दः कस्मै भ्रमति स्म?

‘उत्तर महर्षिर्दयानन्दः वैदिक-धर्म संस्थापनाय भ्रमति स्म।

9-महामना मदनमोहन मालवीय कक्षा-12


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्य भाषा व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्य पाठ व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिंदी में करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विन: मदनमोहनमालियासिस जन्म प्रयागे प्रतिष्ठित-परिवारेऽभवत। अस्य पिता पंडितवर्जनाथमालवीयः संस्कृतस्य सम्मानः विद्वान् आसीत्। अयं प्रयागे एव संस्कृतपाठशालाएँ राजकीयविद्यालये म्योर-सेण्ट महा महाविद्यालये च शिक्षा प्राप्ति अत्रैव राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरब्धवान्। युवक: मालवीय: स्वावलीन प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहय्स। अतः अस्य सुह्रदः तं प्राड्विवाकपदवी प्राप्य देशस्य श्रेष्ठतरं सेवां स्लुं अविवन्तः। तद् टाइपम अयं विधिपरीक्षामुत्तिरी

प्रयागस्थे उच्चन्यायालये प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स। चेतावनी: प्रकष्टज्ञानेन, मधुरालापेन, उदार वाक्यहारेन चायं

शीघ्रमेव मित्राणां न्यायाधीशानाञ्च सम्मानभभगमम्भवत्।

शब्दार्थ प्रयाग -प्रयाग में प्रतिष्ठित -सम्मानित सम्मान्यः -सम्माननीय प्राप्य -प्रकाश द्वारा, आरभवन -प्रारम्भ किया; अमोहयत् -मोह लिया: प्राविवपदन्थ -वकील की पदवी प्राविवाकमन -वकालत: वार्ता: -कानून के न्यायाधीशानाञ्च-और

न्यायाधीशों के


सन्दर्भ प्रस्तुत गद और हमारी पाठ्य-पुस्तक संस्कृत 'के' महामना मालवीयः 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित व्रजनाथ

मालवीय संस्कृत के मान्य विद्वान थे। में उन्होंने प्रयाग में ही संस्कृत पाठशाला, राजकीय विद्यालय और म्योर-सेण्ट महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर यहीं राजकीय विद्यालय में अध्यापन प्रारम्भ किया। युवा मालवीय ने अपने प्रभावपूर्ण (ओजस्वी) भाषण से लोगों का मन मोह लिया। अतः उनके शुभचिन्तकों ने उन्हें अधिवक्ता (वकील) की पदवी प्राप्त कर राष्ट्र की श्रेष्ठतम (सर्वोच्च) सेवा करने के लिए प्रेरित किया।

उसी के अनुसार वह विधि (कानून) की परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग स्थित उच्च न्यायालय में वकालत प्रारम्भ कर दी। विधि के उत्कृष्ट

ज्ञान, मृदु बातचीत और (अपने) उदार व्यवहार से शीघ्र ही ये मित्र और न्यायाधीशों के सम्मान के पात्र बन गए।


2 महापुरुषा: लौकिक-प्रलोभनेषु बन्धः नियतलक्ष्यान्न कद अन्यं भ्रश्यन्। देशसेवानुरक्तोऽयं युवा उच्चन्यायालयस्य परिधौ

स्थातुं नाशम्। पंडित मोतीलाल नेहरू-लालाजपतरायप्रभज्ञानगरी: अन्यैः राष्ट्रनायकैः सह सोन्पि देशस्य स्वन्त्रतासङ्ग्रामेऽवतीर्णः। देहल्यां त्रयोविंशतितमे कागग्रेस वसधिवेशनेम्यम् अध्यक्षपदमलवान। रेटेडवान्। रोलट एक्ट '

इत्यादिवासी विरोधेजस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आङग्लशासका: भीता: जाता है। बहुवरं कारागारे निक्षपादोऽपि अयं वीर:

देशसेवावर्तं न नित्यजत


शब्दार्थ महापुरुषा: -महान् पुरुष, लौकिक -संसारिक प्रलोभनेषु -प्रलोभनों में (लालच में), बन्धः -बँधकर या फँसकर;

नियतलक्ष्यान्न -नियम (निश्चित) लक्ष्य से नहीं; अयंन्ति -विवर्तित होते हैं, देशसेवनुरक्तोदेशयंम् -देशसेवा में अनुरक्त यह;

परिधौ -सीमा में भीता: जाता है -भयभीत हो गए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महापुरुष सांसारिक प्रलोभनों में फँसकर निश्चित लक्ष्य से

कदापि विचलित नहीं होते। राष्ट्रसेवा में लीन यह युवक उच्च न्यायालय की सीमा में नहीं बँध गया। पंडित मोतीलाल नेहरू, लाला लाजपतराय जैसे अन्य राष्ट्रनायकों सहित ये भी देश के स्वतन्त्रता संगमम में कूद पड़े। दिल्ली में कांग्रेस के तेईसवें अधिवेशन में उन्होंने अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। रोलट एक्ट के

विरोध में उनके ओजस्वी भाषण को सुनकर अंग्रेज शासक भयभीत हो उठे। कई बार जेल जाने के पश्चात भी इस वीर ने राष्ट्रसेवा-व्रत का त्याग नहीं किया।


3 हिंदी-संस्कृताङ्ग्ल भाषासु अस्य समान: अधिकारः आसीत्।

हिंदी-हिन्दु-हिन्दुस्थानस्थानमुतथय अयं निरन्तरं प्रयत्नमकरोत्।

शिक्षायैव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति अत: श्रीमालवीयः

सनाहं काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य संस्थापनमकारोत् । अस्य

निर्माणाय अयं जनान् धनम् अयाचत् जनाश्च महित्यस्मिन् ज्ञानयज्ञे

प्रबन्ण धनम्स्मै प्रयच्छन्, तेन स्तोयं विशाल: विश्वविद्यालयः

भारतीयानां दानशीलतायाः श्रीमालवीय यशः च प्रतिमूर्तिरिव

विभाति। साधारण संगतिको ,षि जनः महतोत्साहेन, मनस्वितया,

पौरुषेण चतीयमपि कार्यं स्लुं संपः इत्यदर्शयत्

मनीषिमूर्धन्यः मालवीयः। एतदर्थमेव जनास्तं महामना इत्युपधिना

अभिधातुमारब्धवन्तः।


शब्दार्थ उत्थानाय-उत्थान के लिए: अयं-इसने निरन्तर लगातार

शिक्षक-शिक्षा से ही; नवीन-नया; उदेती-उदय होता है। प्रम्बम्-

बहुत-सा, संभाव्य-दिया, प्रतिमूर्ति-और-सा:

साधारण स्थिति-को वालाधि-साधारण स्थिति वाला भी।

अभिधातुमारभधवन्त-सम्बोधित करना प्रारम्भ कर दिया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद इन्हें हिन्दी, संस्कृत एवं अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। में वह, हिन्दू और हिन्दुस्तान के उत्थान के लिए निरन्तर प्रयत्न किया। शिक्षा से ही राष्ट्र और समाज में नव-प्रकाश का उदय होता है, इसलिए श्री मालवीय जी ने वाराणसी (बनारस) में काशी हिन्दूविश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके निर्माण के लिए उन्होंने लोगों से धन माँगा। यह महाज्ञान-यज्ञ में। लोगों ने उन्हें पर्याप्त धन दिया। उनकी रचना यह विशाल विश्वविद्यालय भारतीयों की दानशीलता और श्री मालवीय जी के यश (ख्याति) की प्रतिमूर्ति के रूप में शोभयमान है।


विद्वानों में श्रेष्ठ मालवीय जी ने यह दिखा दिया कि साधारण स्थिति वाला भी महान् उत्साह , विचारशीलता और पुरुषार्थ से असाधारण कार्य करने में सक्षम होता है, इसलिए लोगों ने उन्हें 'महामना' उपाधि से सम्बोधित करना आरम्भ कर दिया।


4 महामना विद्वान बाड़, धामिको नेता, पटुः पत्रकारश्चासीत्स। परमस्य सुगुण: जनसेवव आसीत्। यत्र कुत्र अन्य अयं जनंग दुःखितान पीड्यमानंश्चाप्यत् तत्रैव सः शीघ्रमेव उपस्थितः, सर्वविधं साहाय्य्च अकरोट। प्राणिसेवा अस्य स्वभाव एवासी। अद्यास्माकं मध्येऽनुपस्थितो महापि महामना मालवीयः स्वयशसोऽमूर्तरूपेण प्रकाशं वित्तरं अन्धे तमसि निमग्नान् जनगण सन्मार्ग दर्शयन् स्थान-स्थाने, जने-जने उपस्थित एव।


शब्दार्थ पटु-निपुण; जनसेवव-जन सेवा ही; कुरत स्थान-कहीं भी;

जनंग-मनुष्यों को पीड्यमानंग-पीड़ितों को तत्रैव-वहीं; अद्य-आज;

वितरन-बाँटते हुए; अन्धे-अंत अन्धकार में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद महामना विद्वान् वक्ता, धार्मिक नेता एवं कुशल पत्रकार थे, किन्तु जनसेवा ही इनका सर्वोच्च गुण था। ये जहाँ कहीं भी लोगों को दुःखी और पीड़ित देखते हैं, वहाँ शीघ्र उपस्थित होकर सब प्रकार की सहायता करते थे। प्राणियों की सेवा ही इनका स्वभाव था। आज हमारे बीच अनुपस्थित होकर भी महामना मालवीय

अमूर्तरूप से अपने यश का प्रकाश बाँटते हुए आंतरिक अन्धकार में डूबे हुए लोगों को सन्मार्ग दिखाने वाले हुए स्थान-स्थान पर जन-जन में उपस्थित हैं।


5.जयन्ती ते महाभागा जन-सेवा-परायनाः।

जरामृत्युभयं नास्ति येषां कीर्तित्नो: क्वचित् ।।


शब्दार्थ जयन्ती-जय हो जन-सेवा-परायः-जन सेवा में देखो रहने

वाले, जरामृत्युभ-जरावस्था और मृत्यु का भय; नस्ति-नहीं है;

कीर्तितनो-यश रूपी शरीर को क्वचित्-कहीं भी।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक 'संस्कृत भाषदर्शिका' के 'महामना। मालवीय: 'पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद जन-सेवा में परायण (तत्पर) वे व्यक्ति (महापुरुष) जयशील होते हैं,। जिनके यश्रुपी शरीर को कहीं भी पुराना और मृत्यु का भय नहीं है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि जो लोग अपना जीवन जनकल्याण के लिए। समर्पित कर देते हैं, उनकी कीर्ति मृत्यु के बाद भी जीवित रहता है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाते हैं, जिसमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लेखन होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


महामन्विनः मदनमोहनमाल कन्यास्य जन्म कुत्र अभवत्?

या मदनमोहनमालवीयस जन्म कुत्र अभवत्?

उत्तर मदनमोहनमालवीयस जन्म प्रयागनगरे अभवत्।

श्रीमालियासिस पितु: किं नाम आसीत्?

या महामना मालवीयः कस्य पुत्रः आसीत्?

उत्तर श्रीमालवीयस पितुः नाम पंडितवर्जनाथमालवीय: इति आसीत्।

मदनमोहनमालवीय: कुत्र अध्यापनम् आरभधवन?

उत्तर मदनमोहनमालवीय: राजकीय विद्यालये अध्यापनम् आरभधवन।

मालवीय: केन जनानन मनांसी अमोहय?

उत्तर मालवीय: प्रभावपूर्णभाषणेन जनानन मनांसी अमोहयत्।

मालवीय: काम् परीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: विधिपरीक्षाम् उत्तीर्णम् अकर्त्त।

मालवीय: कुत्र प्राड्विवाक्रीमुन शूमारम्भ?

उत्तर मालवीय: प्रयागस्थे उच्चन्यायाल प्राड्विवाकमन स्लुमारभत्स।

मालवीय: कीन्द्रशः पुरुषः आसीत्?

उत्तर मालवीय: मधुरभाषी, उदार: पुरुष: च आसीत्।

मालवीय: कास्मिन् वर्षे काङग्रेसिस अध्यक्ष: अभवत्?

उत्तर मालवीय: त्रियोविंशतितमे वर्षे कागग्रेसस्य अध्यक्षः अभवत्।

मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा के भीता: जाता है?

उत्तर मालवीयस ओजस्विभाषणं श्रुतवा आशलशासका: भीता: जाता है।

मालवीय: कंस: कं न नजत्स?

उत्तर मालवीयः क्षेत्रः देशसेवावरतं न अत्यजत्।

कासु भाषासु मालवीयमहोदयस्य समानः अधिकारः आसीत्?

उत्तर हिंदी-संस्कृत-आङग्ल-भाषासु मालवीय अथस्य समान:। अधिकार: आसीत्।

मालवीयस कासु समानम् अधिकार: आसीत्?

उत्तर मालवीयस सर्वासु भाषासु समानम् अधिकारः आसीत्।

मालवीय: केशम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त?

उत्तर मालवीय: हिंदी-हिंदूस्थानानम उत्थानाय प्रयत्नम् अकर्त्त।

की एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति?

उत्तर शिक्षया एव देशे समाजे च नवः प्रकाशः उदेति।

महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे कस्य विश्वविद्यालयस

संस्थापनमकरोट?

या काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक: कः आसीत्? |

या श्रीमालवीय: कस्य विश्वविद्यालयवास स्थापनम् अकर्त?

उत्तर महामना मालवीय: वाराणसी-नगरे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय संस्थापनमकरोट।

शिक्षाया: क्षेत्रे श्रीमालवीय: किमकरोट?

उत्तर शिक्षाया: कृते श्रीमालवीय: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

संस्थापनमकरोट।

काशीविश्वविद्यालय: कस्य यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति?

उत्तर काशीविश्वविद्यालय: मालवीयस यशः प्रतिमूर्तिरिव विभाति।

जन: कागरी: असाधारणमपि कार्यं स्लुं ज्ञानः?

उत्तर जन: महता उत्साहेन, मनस्वितया, पौरुषेण चतीयमपि कार्य स्लुं सम्मः।

जना: तं केन उपाधिना अभिधातुमारभधवन्?

उत्तर जना: तं 'महामना' इति उपाधिना अभिधातुमारभध्वं।

श्रीमाल्यस्य चरित्रे कः सर्वोच्चगुणः आसीतु?

उत्तर श्रीमाल्यस्य चरित्रे सुपगुणः जन-सेवा आसीत्।

प्राणिसेवा कस्य स्वभाव: आसीत्?

उत्तर प्राणिसेवा मालवीयस स्वभाव: आसीत्।

5- जातक-कथा कक्षा-12

गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व श्लोक का सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


उलूकजातकम्

अतीते प्रथमकल्पे जना: एकमभिरूपं सौभाग्यप्राप्त। सर्वाकारपरिपूर्ण पुरुष राजानमकुर्वन्। चतुष्पदा अपि सन्निपत्य एक सिंह राजानमकुर्वन्। ततः शकुनिगणा: हिमवत्-प्रदेशे एकस्मिन् पाषाणे सन्निपत्य ‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च।

अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः’ इति उक्तवन्तः। अथ ते

परस्परमवलोकयन्त: एकमुलूकं दृष्ट्वा ‘अयं नो रोचते’ इत्यवोचन्।

शब्दार्थ जातक-जन्म: जातक कथा-भगवान बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ बीते-बीते; प्रथा को -प्रथम कल्प में – मनुष्यों ने अभिल्य-विद्वान्; सौभाग्यशप्त-सौभाग्यशाली; चतपदा -चौपायों (जानवरों ने) ने गि-भी निगा – इकट्ठे होकर; शकुनिगणा:-पक्षीगण; हिमपत-प्रदेशे-हिमालय प्रदेश में पायाणे-चट्टान पर; मनष्य-मनुष्यों में प्रारक -जाना जाता है; तथा-उसी प्रकार; पूनः-फिर; अन्तरे-बीच में जराजको-बिना राजा के स्थापयिता-स्थापित करना चाहिए;

एकमुलूक-एक उल्लू को: दृष्ट्वा-देखकरा


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘जातक-कथा’ पाठ के ‘उलूकजातकम्’ खण्ड से उद्धृत है।


अनवाद प्राचीनकाल में प्रथम युग के लोगों ने एक विद्वान सौभाग्यशाली एवं सर्वगुणसम्पन्न पुरुष को राजा बनाया। चौपायों (पशुओं) ने भी इकट्ठे होकर एक शेर को (जंगल का) राजा बनाया। उसके बाद हिमालय प्रदेश में एक चट्टान पर एकत्र होकर पक्षीगणों ने कहा, “मनुष्यों में राजा जाना जाता है और चौपायों में भी, किन्तु हमारे बीच कोई राजा नहीं है। बिना राजा के रहना उचित नहीं। (हमें भी) एक को राजा के पद पर बिठाना चाहिए।” तत्पश्चात् उन सबने एक-दूसरे पर दृष्टि डालते हुए एक उल्लू को देखकर कहा, “हमें यह पसन्द है।” ।


2 अथैक: शकुनिः सर्वेषां मध्यादाशयग्रहणार्थं त्रिकृत्व: अश्रावयत्। ततः एकः काकः उत्थाय ‘तिष्ठ तावत्’, अस्य एतस्मिन्

राज्याभिषेककाले एवं रूपं मुखं, क्रुद्धस्य च कीदृशं भविष्यति। अनेन हि क्रुद्धेन अवलोकिता: वयं तप्तकटाहे प्रक्षिप्तास्तिला:

इव तत्र तत्रैव धङक्ष्यामः। ईदृशो राजा मह्यं न रोचते इत्याह-

न मे रोचते भद्रं व: उलूकस्याभिषेचनम्।

अक्रुद्धस्य मुखं पश्य कथं क्रुद्धो, भविष्यति।।

स एवमुक्त्वा ‘मह्यं न रोचते’, ‘मह्यं न रोचते’ इति विरुवन् आकाशे उदपतत्। उलूकोऽपि उत्थाय एनमन्वधावत्। तत आरभ्य

तौ अन्योन्यवैरिणौ जातौ। शकुनयः अपि सुवर्णहंसं राजानं कृत्वा अगमन्।

शब्दार्थ अथ तत्पश्चात्, एक:-एक; शकनिः-पक्षी ने सर्वेषां सभी के

मध्यात्-बीच से; आशय-मत; गहणार्थ-जानने के लिए; त्रिकृत्व-तीन बार; अश्रावयत-सुनाया (घोषणा की); काक:-कौए ने उत्थाय- उठकर तिष्ठ-ठहरो: तावत-जरा राज्याभिषेककाले राज्य अभिषेक के समय: तप्तः-गर्म: कटाहे- कढ़ाई में प्रक्षिप्तास्तिला-डाले गए तिल; तत्रैक-वही; धडक्ष्याम:-जल जाएँगे; ईदृशो-ऐसा; महां-मुझे न रोचते अच्छा नहीं लगता नहीं, मे मुझे रोचते-अच्छा लगता है; उलूकस्याभिषेचनम् उल्लू का राज्याभिषेक: अकुद्धस्य-

क्रोधहीन का; पदेखो, क-कैसा; भविष्यति होगा; एवमुक्त्वा ऐसा कहकर; विरुवन-चिल्लाता हुआ; आकाशे-आकाश में उदपतन-उड़ गया; एनमन्वधावत्- उसका पीछा किया; तत-तब से; आरभ्य-लेकर; वैरिणौ जाती-शत्रु हो गए; शकुनयः-पक्षी; सुवर्णहंस-सुवर्ण हंस को; कृत्वा-बनाकर; अगमन-चले गए। ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद तत्पश्चात् सबका विचार जानने के लिए एक पक्षी ने तीन बार सुनाया (घोषणा की) तब एक कौआ उठकर बोला, “थोडा ठहर, (जब) राज्याभिषेक के समय इसका ऐसा मुख है तो क्रोधित होने पर भला कैसा होगा! इसके क्रोधित होकर देखने पर

तो हम सब गर्म कड़ाही में डाले गए तिलों-सा जहाँ-के तहाँ जल जाएँगे। मुझे ऐसा राजा नहीं पसन्द।” इस प्रकार कहा-आप सभी के द्वारा इस उल्लू को राजा बनाना मुझे अच्छा नहीं लगता। इस समय इसका मुख क्रोधहीन है, तब ही यह इतना विकत दिखाई दे रहा

है. तो क्रोध आने पर कैसा दिखाई देगा। ऐसा कहकर वह ‘मुझे नहीं पसन्द, मुझे नहीं पसन्द’, चिल्लाता हुआ आकाश में उड़

गया। उल्लू ने भी उसका पीछा किया। तभी से वे दोनों परस्पर शत्र बन गए। सुवर्ण हंस को राजा बनाकर पक्षीगण भी चल पड़े।


नृत्यजातकम्

3 अतीते प्रथमकल्पे चतुष्पदा: सिंह राजानमकुर्वन्। मत्स्या: आनन्दमत्स्यं, शकुनयः सुवर्णहंसम्। तस्य पुन: सुवर्णराजहंसस्य दुहिता हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत्। सः तस्यै वरमदात् यत् सा आत्मनश्चित्तरुचितं स्वामिनं वृणुयात् इति। हंसराज: तस्यै वरं दत्त्वा हिमवति शकुनिसङ्के । संन्यपतत्। नानाप्रकाराः हंसमयूरादयः शकुनिगणाः समागत्य एकस्मिन्

महति पाषाणतले संन्यपतन्। हंसराज: आत्मनः चित्तरुचितं स्वामिकम् आगत्य वृणुयात् इति दुहितरमादिदेश। सा शकुनिसङ्के अवलोकयन्ति मणिवर्णग्रीवं चित्रप्रेक्षणं मयूरं दृष्ट्वा ‘अयं मे स्वामिको भवतु’ इत्यभाषत्। मयूर: ‘अद्यापि तावन्मे बलं न पश्यसि’ इति अतिगण लज्जाञ्च त्यक्त्वा तावन्महत: शकुनिसङ्घस्य मध्ये पक्षौ प्रसार्य नर्तितुमारब्धवान्। नृत्यन् चाप्रतिच्छन्नोऽभूत्। सुवर्णराजहंस: लज्जित:


‘अस्य नैव ह्रीः अस्ति न बर्हाणां समत्थाने लज्जा। नास्मै

गतत्रपाय स्वदुहितरं दास्यामि’ इत्यकथयत्।

हंसराजः तदैव परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय ।

दुहितरमददात्। मयूरो हंसपोतिकामप्राप्य लज्जित: तस्मात्

स्थानात् पलायितः। हंसराजोऽपि हृष्टमानस: स्वगृहम्

अगच्छत्।


शब्दार्थ चतुष्पदा:-चौपायों ने; मत्स्या:-मछलियों ने दहिता-

पुत्री; अतीक्-अधिक, रूपवती-सुन्दर; तस्यै-उसे (उसके लिए);

वरमदात्- वर दिया; आत्मनश्चित्तरुचितं-अपने मनपसन्द,

वृणुयात्-वरण करे; दत्त्वा-देकर; हिमवति-हिमालय पर;

शकुनिसड़धे-पक्षियों के समूह में संन्यपतत-उतरा, मणिवर्णग्रीवं-

नीलमणि के रंग की गर्दन वाले चित्रप्रेक्षणं- रंग-बिरंगे पंखों

वाले प्रतिच्छन्न-बिना ढका (नग्न): ही:-विनय: बर्हाणां-पंखों

को; गतत्रपाय-लज्जाहीन को; परिषन्मध्ये-सभा के बीच में;

भागिनेयाय- भांजे के लिए।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के

‘जातक-कथा पाठ के ‘नृत्यजातकम’ खण्ड से उदधत है।।


अनुवाद प्राचीनकाल के प्रथम युग में पशुओं ने शेर को राजा

बनाया। मछलियों ने आनन्द मछली को तथा पक्षियों ने सुवर्ण हंस को। इस सुवर्ण हंस की पुत्री हंसपोतिका अति रूपवती थी। उसने उसे वर (अर्थात् अधिकार) दिया कि वह अपने मन के अनुरूप पति का वरण करे। उसे वर देकर हंसराज पक्षियों के समूह में हिमालय पर उतरा। विविध प्रकार के हंस, मोर आदि पक्षी आकर एक विशाल चट्टान के तल पर एकत्र हो गए। हंसराज ने अपनी पुत्री को आदेश दिया कि वह आए और अपने मनपसन्द पति का वरण करे।

“यह मेरा स्वामी हो”-उसने (हंसपोतिका ने) पक्षी-समूह पर दृष्टि

डालते हुए मणि के रंग-सदृश गर्दन तथा रंग-बिरंगे पंखों वाले मोर को देखकर कहा। “आज भी तुम मेरी शक्ति को नहीं देखती” (अर्थात् अब तक तुम्हें मेरे पराक्रम का आभास नहीं है), यह कहकर मोर ने अति गर्व-सहित लज्जा को त्यागकर पक्षियों के उस विशाल समूह के मध्य नृत्य करना प्रारम्भ किया और नृत्य करते-करते नग्न हो गया। (यह देख) सुवर्ण राजहंस ने लज्जित होकर कहा, “इसे न तो संकोच (विनय) है और न पंखों को ऊपर करने में लज्जा। इस निर्लज्ज को मैं अपनी बेटी नहीं दूंगा।” उसी सभा के मध्य हंसराज ने अपनी पुत्री अपने भांजे हंसपोत को दे दी। हंसपुत्री को न पाने पर मोर लज्जित होकर उस स्थान से भाग गया। हंसराज भी प्रसन्न मन से अपने घर चला गया।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


जना: एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर जनाः एकं सुन्दरं सौभाग्यप्राप्तं पुरुषं राजानम् अकुर्वन्।

चतुष्पदाः कं राजानम् अकुर्वन?

उत्तर चतुष्पदाः एकं सिंह राजानमकुर्वन्।

शकुनिगणाः सन्निपत्य किम् व्यचारयन्?

उत्तर शकुनिगणाः सन्निपत्य व्यचारयन्-‘मनुष्येषु राजा प्रज्ञायते तथा चतुष्पदेषु च। अस्माकं पुनरन्तरे राजा नास्ति। अराजको वासो नाम न वर्तते। एको राजस्थाने स्थापयितव्यः।’ ।

के एकम् उलूकं राजानं कर्तं विचारम अकरोत?

उत्तर शकुनिगणा: एकम् उलूकं राजानं कर्तुं विचारम् अकरोत्।

काकस्योक्तिः किम् आसीत्?

उत्तर काकस्य उक्तिः आसीत् यत-ईदृशो राजा मध्यं न रोचते।

काकः कस्य विरोधम् अकुर्वन्?

उत्तर काकः उलूकस्य विरोधम् अकुर्वन्।

आकाशे कः उदपत?

उत्तर आकाशे काकः उदपतत्।

अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः कं राजानम् कुर्वन्?

उत्तर अतीते प्रथम कल्पे चतुष्पदाः एकं सिंह, राजानम् कुर्वन्।

काः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर मत्स्याः आनन्दमत्स्यं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कस्य दुहिता आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका सुवर्णराजहंसस्य दुहिता आसीत्।

अन्ते शकुनिगणाः कं राजानम् अकुर्वन्?

उत्तर अन्ते शकुनिगणाः सुवर्णहंसं राजानम् अकुर्वन्।

हंसपोतिका कीदृशी आसीत्?

उत्तर हंसपोतिका अतीव रूपवती आसीत् ?

हंसराजः कस्यै वरम् अद्दात्?

उत्तर हंसराजः स्वदुहितायै वरम् अददात्।

का मयूरं पतिम् अचिनोत्?

उत्तर हंसपोतिका मूयरं पतिम् अचिनोत्।

कः शकुनिसधे नृत्यम् अकरोत्?

उत्तर मयूरः शकुनिसचे नृत्यम् अकरोत्।

कः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्?

उत्तर मयूरः पक्षौ प्रसार्य नर्तितुम् आरभत्।

हंसराज: कस्मै स्वदुहितरं न दास्यति।।

उत्तर हंसराजः गतत्रपाय स्वदुहितरं न दास्यति।

राजहंसः परिषन्मध्ये कस्मै दुहितरम् अद्दात्?

उत्तर राजहंसः परिषन्मध्ये आत्मनः भागिनेयाय हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।

राजहंसः कस्मै दुहितरम् अददात्?

उत्तर राजहंसः हंसपोतकाय दुहितरम् अददात्।।

हंसपोतकेन सह कस्याः विवाहः अभवत्?

उत्तर हंसपोतकेन सह हंसपोतिकायाः विवाहः अभवत्।

मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य कीदृशः अभवत्?

उत्तर मयूरः हंसपोतिकाम् अप्राप्य लज्जितः अभवत्।

परिषन्मध्यात् कः पलायित:?

उत्तर परिषन्मध्यात् मयूर: पलायितः।

हंसराजः हृष्टमानसः कुत्र अगच्छत्?

उत्तर हंसराजः हृष्टमानस: स्वगृहम् अगच्छत्।

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजज

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