खुद ही खुद से, कब तक द्वंद करें हम
कैसे खुद को निर्द्वन्द करे हम।
खुद हमसे हुुुआ गुनाह इंसान हम भी हैं,
नाखुुुश खुद ही खुद से कब तक रहे हम।
लोगोों के हज़ारों चेहरे , सारे हृदय मेंं रहते हैंं
किससे करें वफादारी और किससे वेवफाई।
खुद के सिवा कोई हमज़ुबां नहीं
खुद के सिवाय करें भी तो किस से ग़िला करें
खुद ने खुद से क़सम उदास न रहने की कसम ली
जब तू न हो तो कैसे ये आरजू करें।
मर्द को दर्द नहींं होता
एक वो दिन, जिस दिन
मैं खूब रोया भरपूर रोया,
पहली बार,पहले प्यार के लिए।
मेरा प्यार,पालक का प्यार
मुझसे हमेशा के लिए जुदा हो गया था,
उन्होंने मुझे अंतिम दर्शन न करने दिया,
उन लोगो ने उनसे मुझे मिलने न दिया,
मैं रोता था, वो हँसते थे,
क्या वो क्रूर थे या मैं निरीह था?
उनके पास सत्ता थी, सम्पदा थी।
उन्हें सम्पत्ति की चाहत थी,
मुझे शांति की अभिलाष
आज तक मैं जान न पाया
उनकी क्रूरता और मेरी निरीहता ने
मुझे खूब रोदन करवाया।
मैंने तो रामायण को ही समझा था
क्योंकि
प्यार बांटा तो रामायण लिखी गयी,
सम्पत्ति ने महाभारत युद्ध करवाया।
संपत्ति बटवारे पे महाभारत युद्ध हुआ
मैंने कभी महाभारत नहीं चाहा,
कुरु वंश के कुल कलंक
कौन कौरव है, कौन पांडव है,
किसके कौरव, किसके पांडव
यह अनुत्तरित और टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर फैला षडयंत्रो का जाल है।
प्रतिज्ञा पूर्ण करने को शकुनि ने चली चाल है
धर्मराज ने छोड़ी नहीं जुए की लत है|
हर हाल में द्रोपदी ही अपमानित है|
बिना कृष्ण के आज महाभारत होना है,
कोई राजा बने, जनता को तो रोना है|
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मैं कई बार,
बार-बार ये सोचता हूँ,
खुद में खुद को ही खोजता हूँ l
क्यों ये मुहब्बत की बात ही
मैं बार-बार ख्यालों से उतार कर
कागज पे क्यों लिखता हूँ l
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मुल्क में फैली गरीबी,
नौजवानों की बेराजगारी,
इज्जत पे लगे पैबंद नहीं दिखते l
कहीं हिन्दू कहीं मुसलमान,
कहीं राम कहीं सलमान,
कहीं मुलायम, कहीं माया
हर जगह रावण का है साया।
आठ साल की गुड़िया भी,
गुड और बैड टच को जानने लगी है,
जिंदगी भी कैसे-कैसे गुल खिलाने लगी है।
ये सब राजनीति का खेल,
सबको आगे बढ़ने की पेलम-पेल है।
इस देश का बुरा हाल,
कहीं ड्रग्स पे, कहीं मन्दिर पे,
कहीं जात पे, कहीं हाथ पे,
हर जगह फैला है बवाल ।
तालों और हवालतो में बंद सवाल,
अमीरों ने लुटे देश के कितने माल,
धर्म का हर जगह फैला जाल,
निजी स्वार्थ के लिए
जात-पात के ओढ़े सब खाल
अगड़े और पिछड़ों में हो गया बवाल,
राम ने ब्राह्मण रावण को मारा,
राम ने शुद्र शम्बूक को मारा,
राम ने अबला स्त्री सीता को घर से निकला,
ये सबको नहीं दिखता l
आवो अब रावण का नहीं
राम का पुतला जलाते है।
उनके आदर्शों को धूल-मिट्टी में मिलते है।
प्यार बांटा तो रामायण लिखी गयी
संपत्ति बांटी तो महाभार लिखी गयी
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कुत्ते के गायब हो जाने पर
एक शख्स ने
अपने कुत्ते के गायब हो जाने पर
पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई,
अखबारों में विज्ञापन दिया,
और ईनाम की घोषणा की है।
कुत्ता ढूंढने वाले को
5000 रुपये का नकद ईनाम दिया जाएगा.
खबर को पढ़ कर,
एक बीमार पुत्र का बाप
जिसे बेटे की इलाज के लिए पैसे की जरूरत थी,
पैसे की आस में तथा कुत्ते की तलाश में
वो पहुँचा वृद्ध आश्रम,
उसने वहां एक कुत्ते से कुत्ते की फ़ोटो मिलाई,
उसे अपने पुत्र के बचने की आश आई,
कुत्ते के मालिक ने बताया -
इसे मैं अपने पोते के लिए लाया।
मेरे यहाँ आने के कुछ दिनों बाद
इसने भी अपनी स्वामी भक्ति निभाई
पुत्र ने पुत्र धर्म को गवाया।
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नारी तुम प्रेम हो,
आस्था हो, विश्वास हो,
श्रद्धा हो, पीयूष स्रोत हो,
टूटी हुई उम्मीदों की एकमात्र आस हो,
नफरत की दुनियॉ में मात्र तुम्हीं प्यार हो,
प्यासों की प्यास हो,
उठो, आओ,उठो
अपने अस्तित्व को सम्भालो,
केवल एक दिन ही नहीं
हर दिन नारी दिवस मना लो।
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अजीब सौदागर है यह वक्त भी,
वक्त हर वक्त चलता रहता है,
यह लौटकर नहीं आता,
जहां से गुजर जाता है,
जवानी का लालच देकर
बचपन ले जाता है,
अमीरी का लालच देकर
जवानी छीन लेता है।
ये वक्त बे वक्त भी आता है,
यह बड़ा बलवान है
टिक ना सका कोई इसके आगे
शक्तिशाली हो या धनवान
है वक्त बड़ा बलवान
वक्त ने ज्ञानी रावण को शक्तिशाली बनाया
शनि औऱ कुबेर को भी हराया ।
वक्त ने ही कैकेयी को सिंहनी बनाया,
वक्त ने ही राम को वनवास दिलाया।
वक्त ने ही सीता से लक्ष्मणरेखा लंघवाई।
और सीता का अपहरण करवाया,
अजेय बालि भी वक्त का शिकार बना
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बहुत दिनों के बाद मिले
सोचा था एक साथ मिले
तो कुछ अपना दर्द बयां करता
वे दर्दे दास्तां अपनी सुनते ही रह गए
उन्हें देखते रह गए
वे अपनी दास्तान गुनगुनाते ही गए
उनके दर्द दास्तान को सुनते-2,
मेरे दर्द का सैलाब शांत हो गया
फिर मेरे जेहन में ख्याल आया
दुनिया में दर्द और भी हैं
मेरे दर्द के सिवाय।
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फूलों के ढेरों में वह सजी हुई
पुष्पगुच्छ सी लगती थी
लज्जा और संकोच से
ग्रीवा झुकती थी
मुख्य मंडल उसका रक्त वर्ण सा
उन्नत वक्ष कहां छुपते थे
कानों के कुंडल दोलित होकर
विद्युत की भांति चमक उठते थे
सारे गम सब भूल गए उस क्षण
मुझको कुछ भी याद नहीं था
काश यह क्षण स्थिर रहते
सांसे अविरल चलती रहती
जीवन का सार समझ जाता
यू आंखें चार किए रहता।
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उड़ते हुए पन्नों को
पेपरवेट से दबाने का प्रयास
कितना सार्थक / कितना निरर्थक
काश इसी तरह
मेरी भावनाएं/ मेरा अतीत
तुम्हारे उपेक्षारूपी पेपरवेट से
दबाई जा सकती।
किसी तरह जहर सी जिंदगी
रद्दी के टुकड़ों की तरह
जलाई जा सकती।
पेपरवेट की आवश्यकता स्वता ही
अनावश्यकता में परिवर्तित हो जाती।
दिनांक 28-1-92
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वर्तमान चेतना
अब आईने में मैं जब भी देखता हूं
अपना चेहरा,
वर्तमान कुछ नजर नहीं आता,
नजर आती है तो
एक धुंधली सी परछाई के साथ,
बचपन की चंद सुखद स्मृतियां।
गांव के हरे भरे खेत
खेतों के पार जंगल और पहाड़,
बकरियों और भेड़ों के झुंड,
आकाश में विचरण करते स्वतंत्र पक्षी,
लबालब भरे ताल तलैया।
यह सब अपने थे, और इन्हीं के बीच
विचरण करता था मैं,
मृग शावक की भांति,
बापू और भैया के कंधों पर सुनना
राजा-रानी और परियों की कहानियां,
जुजु और भकाउं के डर से
मां की गोद में चिपकना।
आईना हटते ही,
निकल आता हूं,
मां की गोद से,
जवानी के कदमों द्वारा
अब नहीं दिखते हरे-भरे के,
उन्हें खा गए- सत्ता की लोलुप नेता
तितर बितर हो गई हैं,
बकरियों और भेड़ों के झुंड,
लोकतंत्र का लबादा ओढ़े
भेड़ियों के डर से,
उड़ते हुए पक्षी
घोसले में बैठकर,
देखते हैं भयक्रांत निगाहों से बाज को,
जो वर्दी और शक्ति की मद में उन्हें खाता है,
लबालब भरे ताल-तालाब भी हैं
पर उनमें घुल गया है
महंगाई का धीमा जहर,
बापू का कंधा भी अब
महंगाई के बोझ से गया है,
फिर भी ढोते हैं महंगाई के साथ मुझे
जीवन मेरा जीवन,
मेरे जैसे लोगों का जीवन
सिमट कर रह गया है
अखबारों के वांटेड कॉलम तक।
जिंदगी दौड़ती है
सवारी गाड़ी की तरह,
एक दफ्तर से दूसरे दफ्तर
रोटी की तलाश में,
जिंदगी ढोती है डिग्रियों का बोझ
ईसा के सलीब की तरह है,
ये बेरोजगारी भरी जिंदगी देती है
सीरियल भरे कमरे की घुटन
कुंठा और संत्रास
कभी कभी खुद को नकारने वाला पागलपन।
मैं अब भी मृग हूं,
मगर मृग मरीचिका में फंसा हुआ।
फरवरी 1992
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मैं पांच भाई-बहनों में सबसे छोटा था,
जब जिसका मन आता वही मुझे
धन कूट की तरह कूटता था,
बात बात पर हर कोई मुझे टोकता था,
बड़े की तानाशाही सब पर चलती थी,
पिता से ले के हम पर तक उतरती थी।
इसी कूट-काट और टोक-टाक से मन ऊब जाता था,
घर से भाग जाने का मन में ख्याल आता था,
फिर सोचता यह प्यार कहां पाऊंगा,
घर के बाहर तो कुत्ते सा दुत्कार जाऊंगा।
वहां मुझे अपनी गोद में कौन खिलाएगा,
सब के प्यार भरे स्पर्श का सुख कहां पाऊंगा,
और तो सब कप-प्लेट धुलवाते आते हैं,
हाथ पैर तोड़ कर भीख मंगवाते हैं,
बाहर से अच्छा अपना यह प्यारा घर है
क्योंकि यहां मार खाकर संस्कार तो पाते हैं।