6- नृपतिदिलीप: (राजा दिलीप) कक्षा-12


प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्य और व श्लोक दिए जाते हैं, जिसमें से एक गद्य पाठ व एक श्लोक का सन्दर्भ सहित हिंदी में करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1. शिवस्वतो मनु म माननीयो मनीषिणाम्।

आसीन्महीक्षितामाद्यः प्रणवश्चन्दसामिव ।।


शब्बार्थ माननीय-पूज्य; मनीषिणाम् विद्वानों में; आसीत-था, थे; विपक्षिताम-राजाओं में आद्य: -प्रथम;

प्रणवश्छन्दसामिव-वेदों में ओ (म (ऊ) की तरह।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक प्रस्तुत संस्कृत ’के र्द नृतिर्दिलीपः’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद वैवस्वत नाम के राजा, में विद्वानों पूज्य, वेदों में ओम () की तरह राजाओं में प्रथम हुए।


2 तदन्वये शुद्धिमति: प्रसूता: शुद्धिमित्रः।

दिलीप इति राजेन्दुरिन्दुः क्षीरनिधाविव ।।

शब्दार्थ तनन्वये उनके वंश में शुद्धिमति-शुद्धि से युक्त, प्रसूत: -उत्पन्न हुआ; राजेन्दुरिन्दुः-राजाओं में श्रेष्ठ; क्षीरनिधाविय-

जैसे क्षीर सागर में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उनके (मनु के) पवित्र वंश में बहुत अधिक शुद्ध बुद्धियुक्त, राजाओं में श्रेष्ठ दिलीप, क्षीरसागर में शशि के समान उत्पन्न हुए (पैदा हुए)।


३ भीमकान्तैर्नृपगुणैः स बभूवोपजीविनाम्।

अध्र्यश्चैभिगम्यश्च यादोरलैरिवार्णव: ।।

शब्दार्थ भीमकान्तै: -भयंकर और मनोहर, उपजीविनाम -श्रित जनों को; अध्यात्मश्चभिगम्यश्च -अनुक्रमणीय और आश्रय

योग्य: यादगारः-भयंकर जल जन्तु और रत्नों से; अर्णवः-समुद्रा


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद जल जन्तुओं के कारण उल्लंघन न करने योग्य तथा रत्नों के कारण अवगाहन करने योग्य समद्र की तरह वे राजा दिलीप भी। भयानक और उदारता आदि गुणों के कारण मनुष्यों के लिए अनतिक्रमणीय और आश्रय के योग्य थे।


4. रेखामात्रमपि वर्णान्नादामनोर्वर्त्मन: परम्।

न व्यतियुः प्रजास्तस्य नियतर्मानिविवित्तयः ।।


शब्दार्थ रेखामात्रमपि-जरा भी (किञ्चिद केवल भी) वर्णान्नद-

प्रचलित; आमनोर्वमन:-मनु के समय से चले आए मार्ग से;

नेमिवित्सय: -परम्परा और लीक पर चलने वाला।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उनकी (राजा दिलीप की) प्रजा ने मनु द्वारा निर्दिष्ट (प्रचलित उत्तम) मार्ग का (उसी प्रकार) रेखामात्र भी उल्लंघन नहीं किया, जैसे कुशल (रथ) सारथी पहिये को मार्ग से रेखामात्र भी विचलित नहीं करते । यहाँ कहने का आशय यह है कि राजा दिलीप के शासनकाल में प्रजा परम्परा का पालन करने वाली, सन्त और मनु के बताए मार्ग अर्थात् सुमार्ग का अनुकरण करने

वाली थी।


5 आकारतृशप्रज्ञः प्रज्ञाय सदृशागमः।

आगमः सदृशारम्भ अरम्भत्ृशोदयः ।।

शब्दार्थ आकारताश-रूप के अनुरूप प्रज्ञः -सुद्धि वाले; प्रज्ञाय- बुद्धि से; सदृशागमः-शास्त्रों में परिश्रम करने वाले; आगमः-वेद-शास्त्रों के अनुकूल कार्य को शुरू करने वाले; आरम्भद्रृशोदय: -शुरू किए गए कार्यों के अनुसार फल वाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद (सुन्दर दिखने वाले राजा दिलीप अपनी) आकृति के अनुरूप बुद्धिमान, बुद्धि के अनुरूप शास्त्रों के ज्ञाता, शास्त्रानुकूल (शुभ कार्य) प्रारम्भ। करने वाले और उसका उचित परिणाम पाने वाले थे।


6 प्रजानामेव पाद्यार्थं स ताभ्यो बलिमग्रृहीत्।

सहस्त्रगुणमुत्त्रस्त्रुमादते हि रसं रविः ।।

शब्दार्थ प्रजानामेव-प्रजा की ही; भूत्यार्थ-भलाई के लिए; स-वह

(दिलीप); ताभ्यो-उनसे; बलिमगृहीत्-कर लेता था।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वे (राजा दिलीप) प्रजा के कल्याणार्थ ही उनसे कर ग्रहण करते थे । जैसे-सूर्य सहस्रगुणा (जल) प्रदान करने के लिए (पृथ्वी से) जल ग्रहण करता है।


सेनापरिच्छदस्तस्य द्वयमेवार्थम्।

शास्त्रवैश्वकुण्ठिता बुद्धिमौर्वी धनुषी चताता ।।

शब्दार्थ सेना-सेना; परिच्छदस्तस्य-उसका साधन; द्वयमेव-दो ही;

अर्थ अनुपम-अर्थ का साधन; शास्त्र-शास्त्रों में अकान्ठिता- पैनी;

मौर्वी- प्रत्यंचा ( डोरी); आर्ची-आर्च ; च-और; आतंक-चढ़ी हुई।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उस नृप दिलीप की सेना तो उसका साधन मात्र थी। उसके अर्थ के साधन दो ही थे, शास्त्रों में प्रखर बुद्धि और धनुष पर चढ़ी डोरी प्रत्यंचा।


8 तस्य संवत्मन्त्रस्य गुढाकारेस्यहिलस्य च।

फलानुमेया तत्वम्भा: संस्कारः प्राक्तना इव ।।

शब्दार्थ तस्य-उसका, उसका; संवत-गुप्त; मन्त्रस्य-मन्त्रणा वाले की, गुढकार-गुप्त आकार; संकेत-संकेत-संकेत; पासे- जानने योग्य; संस्कार: -संस्कारों के प्राक्त-पूर्व जन्म के।

सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद गुप्त मन्त्रणा (विचार) करने वाले, गुप्ताकृति और इशारे वाले उस नृप दिलीप के कार्यों की शुरुआत पूर्व जन्म के संस्कारों सदृश फल से ही जानने योग्य था ।


9 जुगोपरसमानमत्रस्तो प्रेषित धर्ममनातुरः।

अग्रीध्नुरादे सोऽर्थमसक्तः सुखमन्वभूत् ।।

शब्दार्थ जगोप-रक्षा करते थे: आत्मानम-स्वयं को (शरीर की);

अत्रस्त: -ज्ञानभय वाला; प्रेषित-सेवा करते थे धर्मम्-धर्म का;

अनातुर: -बिना घबराए हुए: अध्न-लालच के बिना, असक्त: -आसक्ति राहत, सुखमन्वभूत्-सुख का अनुभव करते थे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद नृप दिलीप, निर्भय होकर अपने तन की रक्षा करते थे बिना घबराए हुए धर्म का अर्जन करते थे , बिना धन एकत्रित करते थे लालच और विषयों में अनासक्त होकर सुखों का भोग करते थे।


10 ज्ञानाने मौनं क्षमा शक्तौ शेषगे श्लाघाविपर्ययः।

बहु गुणु प्रबंधित्वत् तस्य सप्रसवा इव ्वा

शब्दार्थज्ञान -ज्ञान रहना; मौनं-चुप (शान्त); शक्ती-शक्ति रहने

पर; क्षमा-क्षमा करना; श्लाघविपर्ययः-प्रशंसा रहित (बिना प्रशंसा के); गुणानु प्रबंधित्वत-गुण से अनुबन्ध के कारण; तस्य-उसके; सप्रवा- सहोदर; इव-तरह (जैसे)।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- उनमें) ज्ञान रहने पर मौन रहना, शक्ति रहना पर क्षमा करना और बिना प्रशंसा के त्याग (दान) करना-जैसे विरोधी गुणों के साथ -साथ रहना के कारण उनके ये गुण एक साथ जन्मे लग रहे थे।


11 औसत परिशुद्धता विषयैर्विद्यानां परदेशेश्वरन: ।।

तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरसा विना ।।

शब्दार्थ अनाधिकृत-भौतिक जगत् की वस्तुओं के प्रति आभाव न होने वाले की विषयैर्विद्यानां-विषयविद्याओं में पारध्वन: -पगामी; तस्य-उसका, उसका धर्मार्थ-धर्म में प्रेम; आसीत्-था, वृद्धत्वं-वृद्ध; जरसा-वृद्धावस्था के बिना ही।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद भौतिक जगत की वस्तुओं के प्रति अनासक्त रहने वाले सभी विद्याओं में रक्षा और धर्म-ल उस नृप हृदयीप का वृद्ध अवस्था न होने पर भी बुढ़ापा ही था।


१२ प्रजानन् विनयाधानाद् रक्षणाद् भरणादपि ।।

स पिता पितरिस्तासँ केवल जन्महेतवः ।।


शब्दार्थ प्रजानां-प्रजा में विनय: -नमता; रतनदाद-रक्षा करने के

कारण; भरणादपि-पालन-पोषण करने के कारण भी: स-वे; पिता- दिलीप: पितरिस्तासँ-उनके (प्रजा के) पिता; केवल-केवल;

जन्महेतयः-जन्म के कारण।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद प्रजा में विनय को स्थापित करने के कारण, रक्षा करने के कारण और भरण-पोषण करने के कारण वह (नप दिलीप) उन प्रजा जनों का पिता था। उनके पिता तो केवल जन्म का कारण थे।


13. दुदोहर स यज्ञाय शस्यय मघवा दिवम्।

सम्पद्विनिमयेनो भू दधातुर्भुवनवर्यम् ।।


शब्दार्थ दुदोहदोहन किया; गाम-अर्थ का; शशम् अन्न के लिए;

मधा-इन्द्र; दिवम्-स्वर्ग; सम्पद-सम्पत्ति के अनमये अंतःक्रिया-प्रदान

से; उभौ-दोनों; दधतु-धारण करते थे या सँदलते थे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वे (राजा दिलीप) यज्ञ करने के लिए पृथ्वी का दोहन करते थे और इन्द्र अन्न के लिए स्वर्ग का । वे दोनों संपादकों के आपसी लेन-देन से दोनों लोकों का भरण-पोषण करते थे।


14 उद्वेषो सम्पि सम्मतः शिष्टस्तस्यार्तस्य यथौषधम्।

तत्र्यो दानव: प्रिसप्यासीदगुलीवोरगक्षता ।।

शब्दार्थ द्वेषो -पि-शत्रु भी; शिष्ट- सज्जन, सभ्य; आक्त्रिया-रोगी र्त

; तान्य-त्याग योग्य; दुष्ट-दुष्ट स्वभाव वाला: प्रिय-प्रिय व्यक्ति; इ-समान; उरगक्षता-शप द्वारा सहनसी गया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद उन्हें सज्जन शत्रु भी उसी प्रकार स्वीकार्य था जैसे

रोगी को औषधि तथा दुष्ट प्रियजन भी उसी प्रकार त्याज्य था जैसे

सर्प से डसी हुई अँगुली।


15. स वेलावप्रवलक परिधिकृत-सागराम्।

अनन्यशासामुर्वी शशासकपुरीमिव ।।


शब्दार्थ स-वह (वह); वेला-समुद्रतट; वम दुर्ग का

परकोटा; परिधीय खाई; अन्य दूसरों का; उर्वीम्-पृथ्वी;

शशास-शासन किया।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


पूर्ण पृथ्वी पर राजा दिलीप ने एक छत्र शासन

किया। उनके द्वारा इस समुद्रतटरुपी पृथ्वी पर जिसकी चारों ओर

गहरी खाई हो, ऐसे सम्पूर्ण पृथ्वी पर एक नगर के समान शासन

किया।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाते हैं, जिसमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लेखन होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


१.मनिषीं माननीयः कः आसीत्?

उत्तर मनीषिणम माननीयः वैवस्वत मनुः आसीत् ।।


2. केकश माननीय: राज्ञ: दिलीप: आसी?

उत्तर मनीषीं माननीयः राज्ञः हृदीपः आसीत्।


10. वसाक्षिताम् आद्यः कः आसीत्?

उत्तर वसाक्षिताम् आद्यः वैवस्वत मनुः आसीत्।


4.दिलीप: कस्य अन्वय प्रसूतः?

उत्तर हृदीप: वैवस्वतमनोः अन्वय प्रसूतः।


5. नानृप: दिलीप: कस्मिन् शशिव पृथिव्यां तो?

उत्तर नृप: हृदयीप: क्षीरसागरे शशिव पृथिव्यां जातः ।।


6.दिलीप: किमर्थं बलिमग्रही?

उत्तर दिलीप: प्रजानांगत्यर्थम् और बलिम् अग्रित्।


7.अरव: जलं किमर्थम् आदते?

उत्तर रवि: जल सहस्रगुणं वर्षितुम् आदते।


8.ज्ञाने कीद्रशं भवेत?

उत्तरायनाने मौन भवेत्।


9.दिलीप: कां यज्ञाय दुदोह?

उत्तर दिलीप: गां यज्ञाय दुदोह।


१०। इन्द्रः कस्मै दिवं दुदोह?

उत्तर इन्द्रः शस्ये दिवं दुदोह।


11. कः दिवं शस्ये दुदोह?

उत्तर मघवा दिवं शस्याय दुदोह।


12. श्रेणी: अपि कः तस्यायः?

उत्तर प्रियः अपि दानवः तस्य्यः।


13.दिलीप: कस्य प्रदेशवासी राजा आसीत?

या दिलीप: कां शशासक?

उत्तर दिलीप: वेलावप्रवल आप परिखिदासगराम् उर्वी शशासक।


14.नृप: दिलीप: कीद्श: शासक: आसीत्?

उत्तर नृपः हृदीपः प्रजावत्सलः शासकः आसीत्।


15.दिलीपे के गुणा: सन्ति?

उत्तर नृपः हृदिपे, वीरता, नीति नैपुण्यं, धैर्य, इत्यादिः बहुः सन्ति।


16. कः प्रजायाः तनयेव पालनं दोति स्म?

उत्तर नृप: हृदयीप: प्रजायाः तनयेव पालनं दोति स्म।


17. नानृप: दिलीप: कुत्र राजा आसीत?

उत्तर नृप: हृदीप: अयोध्याया: नृप: आसीत्।


18. नानृप: दिलीप: केशमापनं दोति स्म?

उत्तर नृपः हृदीपः सज्जनान् मातं दोति स्म।


19. नानृप: दिलीप: कस्य नियमानुसारं अनुसरणं दोति स्म?

उत्तर नृप: हृदयीप: धर्मस्य नियमानुसारं पालनं दोति स्म।


20. देशवासी प्रगतये किम् आवश्यकम् अस्ति?

'उत्तर देशस्य प्रकृत्यैल्पम् आवश्यकम् अस्ति ।।


21. नृपः हृदीपः कीद्शः शासकः आसीत्?

उत्तर नृपः हृदीपः सर्वगुणसम्पन्नः शासकः आसीत्।


4- ऋतुवर्णनम

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का

सन्दर्भ-सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


वर्षा

1.

 स्वनैर्घनानां प्लवगा: प्रबुद्धा विहाय निद्रां चिरसन्निरुद्धाम्।

अनेकरूपाकृतिवर्णनादा: नवाम्बुधाराभिहता: नदन्ति।।


शब्दार्थ स्वन-गर्जना से प्लवगा: मेंढक प्रबदा-जागे हुए; विहाय त्यागकर; निद्रा नींद को; चिरसन्निरुद्धाम बहुत समय से रोकी हुई: नादा स्वर वाले; नवनवीन: अम्लू-धारा जल की धारा से अभिहता-प्रताड़ित होकर (चोट खाकर); नदन्ति बोल।


सन्दर्भ :-प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वर्षा’ खण्ड से उदधृत है।


अनुवाद:- अनेक रूप, आकृति, वर्ण और स्वर वाले, मेघों की गर्जना से बहुत समय तक रुकी हुई नींद को त्यागकर जागे हुए मेंढक नई जल की धारा से चोट खाकर बोल रहे हैं अर्थात् शब्द कर रहे हैं।


2.

 मत्ता गजेन्द्राः मुदिता गवेन्द्रा: वनेषु विक्रान्ततरा मृगेन्द्राः।

रम्या नगेन्द्रा: निभृता नरेन्द्राः प्रक्रीडितो वारिधरैः सुरेन्द्रः।। 


शब्दार्थ :-  मत्ता- मस्त हो रहे हैं,गजेन्द्रा- हाथी, मुदिता- प्रसन्न हो रहे हैं, गवेन्द्रा-विजार/ सांड,वनेष-वनों में, विक्रान्ततरा - अधिक पराक्रमी, मगेन्द्रा: - शेर,रम्या- सुन्दर, नगेन्द्राः- पर्वत,निभूता - निश्चल या शान्त, नरेन्द्रा- राजा, प्रक्रीडितो- खेल रहे हैं, वारिधरी-बादलों से, सुरेन्द्रा-इन्द्रा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :-  हाथी मस्त हो रहे हैं, साँड (आवारा पशु) प्रसन्न हो रहे हैं, वनों में शेर अधिक पराक्रमी हो रहे हैं, पर्वत सुन्दर हैं, राजगण शान्त हो गए हैं और इन्द्र मेघों से खेल रहे हैं।


3.

 वर्ष प्रवेगा: विपुलाः पतन्ति प्रवान्ति वाता: समुदीर्णवेगा:।

प्रनष्टकूला: प्रवहन्ति शीघ्रं नद्यो जलं विप्रतिपन्नमार्गाः।।


शब्दार्थ  :- वर्ष प्रवेगा-वर्षा की झड़ी, विपुला- अधिक/ घनी, पतन्ति- पड़ रही हैं, प्रवान्ति- बह रही है,वाता-वायु समुदीर्णवेगा-अधिक वेग वाली (तेज),नष्टकला- नदियाँ जिन्होंने अपने किनारे तोड़ दिए हैं, प्रवहन्ति- बह रही है, शीध- तेजी से, नद्यो-नदिया, विप्रतिपन्नमार्गा-अपना मार्ग बदलकर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :- वर्षा की अधिक झड़ी पड़ रही है, तेज हवा बह रही है, किनारों को । तोड़कर, अपना रास्ता बदलकर नदियाँ तीव्रता से जल बहा रही हैं।


4. 


घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनमभ्युपैति।

नवैर्जलौघैर्धरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः।।


शब्दार्थ :- घनोपगूढं -बादलों से ढका हुआ, गगनं- आकाश, भास्कर: - सूर्य, दर्शनमभ्युपैति -दिखाई दे रहा है, जलौधै-जल की बाढ़ से, धरणी- पृथ्वी; वितृप्ता-तृप्त हो गई, तमः - अन्धकार, विलिप्ता- लिपी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद :- नभ मेघों से ढका है, इस कारण न तारे और न सूर्य दिखाई दे रहा है। धरा नई जल की बाढ़ से तृप्त हो गई है। अन्धकार से युक्त दिशाएँ चमक नहीं रही हैं।


5. 

महान्ति कूटानि महीधराणां धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।

महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रपातैर्मुक्ताकलापैरिव लम्बमानैः।।


शब्दार्थ- महान्ति -ऊँची, कूटानि - चोटियाँ, महीधारणां - पर्वतों की, धाराविधौतानि-जल की धाराओं से धुले, विभान्ति - शोभित हो रहे हैं, विपुलै-विशाल, प्रपातैः - झरनों से,  लम्बमानैः -लटकते हुए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


हेमन्तः

अनुवाद- पहाड़ों (पर्वतों) की ऊँची-ऊँची चोटियाँ (शिखर) लटकते हुए मोतियों क बड़े हारों के सदृश अर्थात् बड़े-बड़े प्रपातों (झरनों) से अधिक सुशोभित हो रही हैं।


6.


अत्यन्त-सुख सञ्चारा मध्याह्ने स्पर्शत: सुखाः।

दिवसाः सुभगादित्याः छायासलिलदुर्भगाः।


शब्दार्थ - मध्याह्न - दोपहर में, स्पर्शत: - स्पर्श से; सुखा - सुख देने वाले, दिवसा - दिन; सुभगा- सुन्दर; आदित्या.- सूर्य,  छाया- छाया, सलिल - जल (पानी), दुर्भगा- कष्ट देने वाले।


सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम् नामक पाठ के ‘हेमन्त’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद - (इस ऋतु में) दिन अधिक सुख देने वाले, इधर-उधर आने-जाने के योग्य हैं। दोपहर के समय (सूर्य की किरणों के स्पर्श से) दिन सुखदायी हैं, सूर्य के कारण सुख देने वाली शीतकाल के कारण दुःखदायी है, क्योंकि अधिक शीतलता के कारण छाया और जल प्रिय नहीं लगते।





7.


 खजूरपुष्पाकृतिभिः शिरोभिः पूर्णतण्डुलैः।

शोभन्ते किञ्चिदालम्बा: शालय: कनकप्रभाः।।


शब्दार्थ- खर्जर - खजूर (एक प्रकार का वृक्ष), पुष्पाकतिभिः -पुष्प की

आकृति के,समानशिरोभिः - धान की बालों वाले, पर्णतण्डलै- चावलों से भरी, शोभन्ते - शोभित हो रहे हैं, किञ्चिदालम्बा-  कुछ झुके हुए, शालयः -  धान,  कनकप्रभा- सुनहरी कान्ति वाले (सोने के समान चमक वाले)।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - खजूर के फूल के समान आकृति वाले, चावलों से पूर्ण बालों से कुछ झुके हुए, सोने के समान चमक वाले धान शोभित हो रहे हैं।


8. 


एते हि समुपासीना विहगा: जलचारिणः।-

नावगाहन्ति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम्॥


शब्दार्थ - एते- ये, समुपासीना-पास बैठे हुए, विहगा: -पक्षी; जलचारिण- जलचर / ननहीं,  अवगाहन्ति - प्रवेश कर रहे हैं, सलिलं - जल, अप्रगल्भा- कायर,  इव - समान (तरह), आवहम- युद्ध में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - जल के समीप बैठे जल में रहने वाले ये पक्षी जल में उसी

प्रकार प्रवेश नहीं कर रहे हैं, जिस प्रकार कायर (व्यक्ति) रणभूमि में प्रवेश नहीं करते।


9. 


      अवश्यायतमोनद्धा नीहारतमसावृताः।

      प्रसुप्ता इव लक्ष्यन्ते विपुष्पा: वनराजयः।।9


शब्दार्थ - अवश्यायतमोनद्धा - ओस के अन्धकार से बँधे हुए, नीहार - कोहरा/ तमसाधुन्ध; आव्रता-ढकी, प्रसप्ता - सोई हुई-सी, लक्ष्यन्ते-प्रतीत हो रही हैं, विपुष्पा- फूलों से रहित, वनराजयः  - वृक्षों की पंक्तियाँ।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  ओस के अन्धकार से बँधी, कुहरे की धुन्ध से ढकी, बिना फूलों – की वृक्षों की पंक्तियाँ सोई हुई-सी लग रही हैं।


वसन्तः 

10.

सुखानिलोऽयं सौमित्रे काल: प्रचुरमन्मथः।

गन्धवान् सुरभिर्मासो जातपुष्पफलद्रुमः॥



शब्दार्थ - सुखानिल-सुखद वायुवाला, सौमित्रे - हे लक्ष्मण, काल: - समय,  प्रचुरमन्मथा - अत्यधिक काम को उद्दीप्त करने वाला,  गन्धवान् - सुगन्ध से युक्त, सुरभिर्मासो - चैत्र मास,  जातः - उत्पन्न हुए, पुष्पं फूल,द्रुम-वृक्षा


सन्दर्भ - प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्यपुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘ऋतुवर्णनम्’ नामक पाठ के ‘वसन्तः’ खण्ड से उद्धृत है।।


अनुवाद -  हे लक्ष्मण! सुखद समीर वाला यह समय अति कामोद्दीपक है। सौरभयुक्त इस वसन्त माह में वृक्ष, फूल और फलों से युक्त हो रहे हैं।


11.

पश्य रूपाणि सौमित्रे वनानां पुष्पशालिनाम्।

सृजतां पुष्पवर्षाणि वर्ष तोयमुचामिव।।


शब्दार्थ - पश्य- देखो, रूपाणि - रूपों को, पुष्पशालिनाम - फूलों से शोभित, वनानां - वनों की, सृजतां - कर रहे हैं, पुष्पवर्षाणि- फूलों की वर्षा,  तोयमचामिव - बादलों के समान।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - हे लक्ष्मण! जिस प्रकार बादल वर्षा की सृष्टि करते हैं, उसी प्रकार फूल बरसाते हुए फलों से शोभायमान वनों के विविध रूपों को देखो।


12.

 प्रस्तरेषु च रम्येषु विविधा काननद्रुमाः।

वायुवेगप्रचलिताः पुष्पैरवकिरन्ति गाम्।।


शब्दार्थ - प्रस्तरेषु-पत्थरों पर, रम्येषु-सुन्दर, विविधा–अनेक प्रकार के,  काननदुमा:-जंगली वृक्ष, वायुवेगप्रचलिता:-हवा के वेग से हिलने के कारण, पुष्पैरवकिरन्ति-फूल बिखेर रहे हैं, गाम्-पृथ्वी को।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - वायु-वेग से हिलने के कारण अनेक प्रकार के जंगली वृक्ष सुन्दर पत्थरों एवं धरा पर पुष्प बिखेर रहे हैं।


13. 

अमी पवनविक्षिप्ता विनदन्तीव पादपाः।

षट्पदैरनुकूजद्भिः वनेषु मदगन्धिषु।।

शब्दार्थ-  अमी-ये, पवनविक्षिप्ता-हवा से हिलाए गए,  विनदन्तीव-बोल-से रहे हैं, पादपाः-वृक्ष,  षट्पदैः-भौरों से, अनुकूजदिभः-गूंजते हुए, वनेषु-वनों में।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- हवा के द्वारा हिलाए गए ये वृक्ष मोहक सुगन्ध वाले वनों में गूंजते हुए भौंरों, से बोल रहे हैं।



14.

 सुपुष्पितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान समन्ततः।

हाटकप्रतिसञ्छन्नान् नरान् पीताम्बरानिव।।


शब्दार्थ सुपुष्पितांस्तु - अच्छी तरह फूले हुओं को,  पश्य-देखो,  एतान्–इनको, कर्णिकारान-कनेर के वृक्षों को, समन्तत:-सब ओर से, हाटकप्रतिसञ्छन्नान्–सोने से ढके हुए, नरान् - मनुष्यों को, पीताम्बरानिव-पीताम्बर धारण किए हुए की तरह।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  हे लक्ष्मण! पीले पुष्पों से लदे हुए कनेर के वृक्षों को देखो। इन्हें देखने से ऐसा लगता है कि मानो मनुष्य स्वर्ण आभा वाले पीताम्बर को ओढ़कर बैठे हुए हैं।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न- घनानां स्वनैः के प्रबुद्धाः? |

उत्तर- घनानां स्वनैः प्लवगाः प्रबुद्धाः।

प्रश्न-वर्षौ कां विहाय प्लवगाः नदन्ति?

उत्तर वर्षौ निद्रां विहाय प्लवगा: नदन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले के मत्ता भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गजेन्द्राः मत्ता भवन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले गवेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले गवेन्द्राः मुदिता भवन्ति।

प्रश्न-वर्षाकाले नगेन्द्राः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर वर्षाकाले नगेन्द्राः रम्या भवन्ति।

प्रश्न-वर्षौ गगनं कीदृशं भवति?

उत्तर वर्षौ गगनं घनोपगूढम् अन्धकारपूर्णं च भवति।

प्रश्न-वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना केन कृता?

उत्तर वर्षाकाले पर्वत शिखराणां तुलना मुक्तया कृता।

प्रश्न-हेमन्तऋतौ दिवसाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर हेमन्तऋतौ दिवसाः अत्यन्तः सुखसञ्चाराः सुभगादित्या च भवन्ति।

हेमन्ते के शोभन्ते?

उत्तर हेमन्ते शालयः शोभन्ते।

प्रश्न-हेमन्ते जलचारिणः कस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति?

उत्तर- हेमन्ते जलचारिणः शीतस्य कारणात् जले न अवगाहन्ति।

हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः कथं प्रतीयन्ते?

उत्तर- हेमन्ते विपुष्पाः वनराजयः प्रसुप्ताः इव प्रतीयन्ते।

प्रश्न-कः कालः प्रचुरमन्मथः भवति?

उत्तर- वसन्तकालः प्रचुरमन्मथः भवति।

प्रश्न-कः मासः सुरभिर्मासः भवति?

उत्तर- चैत्रः मासः सुरभिर्मासः भवति।

प्रश्न-वसन्तकाले वृक्षाः कीदृशाः भवन्ति?

उत्तर- वसन्तकाले वृक्षाः पुष्पफलयुक्ता भवन्ति।

प्रश्न-काननद्रुमः कैः गाम् अवकिरन्ति?

उत्तर- काननद्रुमः पुष्पैः गाम् अवकिरन्ति।

प्रश्न-के गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति?

उत्तर- काननद्रुमाः गां पुष्पैः वसन्ते अवकिरन्ति।

प्रश्न-वसन्तौ कीदृशाः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव

प्रतीयन्ते?

उत्तर- वसन्तौ पुष्पिताः कर्णिकाराः स्वर्णयुक्ताः पीताम्बरा नरा इव

प्रतीयन्ते।

दूतवाक्यम कक्षा-12

दूतवाक्यम


गद्यांशों एवं श्लोकों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएँगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.काञ्चकीय: भो भो: प्रतीहाराधिकृताः! महाराजो योधन: समाज्ञापयति- अद्य सर्वैः पार्थिवैः सह मन्त्रयितुम् इच्छामि!

तदाहूयन्तां सर्वे राजान: इति। (परिक्रम्य अवलोक्य) अये! अयं महाराजो दुर्योधन; इत एवाभिवर्तते।

(ततः प्रविशति यथानिर्दिष्टो दुर्योधनः)

काञ्चुकीयः जयतु महाराज:! महाराजशासनात समानीतं सर्व राजमण्डलम्।।

दुर्योधनः सम्यक् कृतम्! प्रविश त्वम् अवरोधम्।

काञ्चकीय: यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्तः, पुनः प्रविश्य)

काञ्चुकीय: जयतु महाराजः। एष खलु पाण्डवस्कन्धावारात् दौत्येनागतः पुरुषोत्तम: नारायणः।

दुर्योधनः मा तावद् भोः बादरायण! किं किं कंसभृत्यो दामोदरस्तव नारायणः। स गोपालकस्तव पुरुषोत्तमः। ब्राहद्रथापहृतविजयकीर्तिभोगः तव पुरुषोत्तमः।

अहो! पार्थिवासन्नमाश्रितस्य भृत्यजनस्य समुदाचारः। क एष दूत: प्राप्तः।

काञ्चुकीयः प्रसीदतु महाराजः/दूतः प्राप्त: केशवः।


शब्दार्थ प्रतीहाराधिकृताः पहरेदारों, समाज्ञापयति आज्ञा देते हैं. अब आज पार्थिवः सह-राजाओं के साथ मन्त्रयितुम-

मन्त्रणा परिक्रम्य घमकर अवलोक्य देखकर जयतु जय हो. शासनात्-आज्ञा से, समानात बुला लिया गया है, सम्यक-

ठीक कृतम्-किया: अवरोधम् रनिवारा, प्रविश्य प्रवेश करके, पाण्डवरकन्याबारात्-पाण्डवों के शिविर से प्राप्तः आया है।


सन्दर्भ प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘दूतवाक्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है। ।


अनुवाद कांचकीय हे पहरेदारों महाराज दुर्योधन आज्ञा देते हैं, “मैं आज सभी राजाओं के साथ मन्त्रणा (विचार-विमर्श) करना चाहता

हैं, इसलिए सभी राजाओं को बुलाओ।”(घूमकर देखते हुए)”अरे! ये महाराज दुर्योधन तो इधर ही आ रहे हैं।” (तब जैसा कि निर्दिष्ट किया

गया, दुर्योधन प्रवेश करता है)

कांचुकीय महाराज की जय हो। महाराज की आज्ञा के अनुसार सम्पूर्ण राजमण्डल को बुला लिया गया है।

दुर्योधन अच्छा किया। तुम रनिवास में जाओ।

कांचुकीय जैसी आज्ञा महाराज। (निकलकर पुनः प्रवेश करता है) ।

कांचुकीय महाराज की जय हो। निश्चय ही पाण्डव शिविर से दूतरूप में पुरुषोत्तम नारायण (श्रीकृष्ण) पधारे हैं।

दुर्योधन हे बादरायण! ऐसा मत कहो। क्या कंस का सेवक दामोदर तेरा नारायण (भगवान) है? वह ग्वाला तेरा पुरुषोत्तम है! जरासन्ध

द्वारा छीन लिया गया विजय-यशवाला तेरा पुरुषोत्तम है! अरे! राजा के समीप रहने वाले सेवक का यही शिष्टाचार है? कहो, कौन-सा दूत आया है?

कांचुकीय महाराज प्रसन्न हो। केशव नामक दूत आया है।


2 दर्योधनः केशवः इति, एवमेष्टव्यम्! अयमेव समुदाचारः।।

भो भोः राजानः!

दौत्येनागतस्य केशवस्य किं युक्तम्। किमाहुर्भवन्तः ‘अर्घ्यप्रदानेन

पूजयितव्य: केशवः’ इति। न मे रोचते। ग्रहणे अत्र अस्य हितं पश्यामि।

ग्रहणमुपगते तु वासुदेवे, हृतनयना इव पाण्डवाः भवेयुः।।

गतिमतिरहितेषु पाण्डवेषु, क्षितिरखिलापि भवेन्ममासपत्ना।।

अपि च योऽत्र केशवस्य प्रत्युत्थास्यति स मया द्वादशसुवर्णभारेण

दण्ड्यः । तदप्रमत्ता भवन्तु भवन्तः। कोऽत्र भो


शब्दार्थ समुदाचार-शिष्टाचार; राजानः-राजाओं; किं-क्या;

युक्तम्-उचित; आहु-कहते हैं; भवन्त-आप; पूजयितव्यः-पूजा करनी

चाहिए; न-नहीं; से मुझे; रोचते-अच्छा लगता है; ग्रहणे-पकड़ने।

में; ग्रहणमुपगते-बन्दी बना लेने से; हृतनयन-नेत्रहीन; भवेयुः-हो

जाएँगे; गतिमतिरहिते-गति एवं मतिविहीन हो जाने पर

क्षितिरखिला-िसम्पूर्ण पृथ्वी; यो-जो; प्रत्युत्थास्यति- खड़ा होगा:

मय-मैं (मेरे द्वारा); द्वादशसुवर्णभारेण- बारह सुवर्ण मुद्राओं से;

दण्ड्यः – दण्डित करूँगा; तदप्रमत्ता-सावधान; भवन्तः-आप सब;

कोऽयहाँ कौन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन केशव! हाँ, यही उचित है। यही शिष्टाचार है।।

हे राजाओं! दूतरूप में आए केशव के लिए क्या उचित है?

आप लोगों का क्या कहना है? अर्घ्य अर्पित कर केशव को पूजना चाहिए! मझे यह नहीं भाता। यहाँ उसे पकड़ लेने (बन्दी बना लेने) में ही मुझे हित दिखता है। वासुदेव को बन्दी बना लेने से पाण्डव नेत्रहीन हो जाएँगे। पाण्डवों के गतिविहीन एवं मतिविहीन हो जाने पर मेरे लिए सम्पूर्ण पृथ्वी शत्रु-रहित हो जाएगी। और जो भी यहाँ केशव की ओर से खड़ा होगा, उसे मैं.बारह स्वर्ण मुद्राओं से दण्डित करूँगा। अतः आप सब सावधान रहें। अरे! यहाँ कौन है?


3, काञ्चुकीयः जयतु महाराजः।

दुर्योधनः बादरायण! आनीयतां स विहगवाहनमात्रविस्मितो दूतः।

काञ्चुकीयः यदाज्ञापयति महाराजः। (निष्क्रान्त:)

दुर्योधनः वयस्य कर्ण!

प्राप्तः किलाद्य वचनादिह पाण्डवानां ।

दौत्येक भृत्य इव कृष्णमति: स कृष्णः।

श्रोतुं सखे! त्वमपि सज्जय कर्ण कर्णौ

नारीमृदूनि वचनानि युधिष्ठिरस्य।।

वासुदेवः अद्य खलु धर्मराजवचनात् मित्रतया चाहवदर्पम्

अनुक्तग्राहिणं दुर्योधनं प्रति मयापि अनुचितदौत्य-

समयेऽनुष्ठितः।

दुष्टवादी गुणद्वेषी शठः स्वजननिर्दयः।

सुयोधनो हि मां दृष्ट्वा नैव कार्यं करिष्यति।।

भो बादरायण! अपि प्रवेष्टव्यम्?


शब्दार्थ आनीयता बुलाओ, विहगः-पक्षी; वयस्य-मित्र प्राप्त:-आया है; वचनात्-कहने से; इह-यहाँ; दौत्येक-दूत रूप में; भृत्य इव-सेवक के सदृश; कृष्णमति-कुटिल बुद्धि वाला; नारीमृदूनि-नारी के सदृश कोमल; वचनानि-वचन; युधिष्ठिरस्य युधिष्ठिर के खलु-निश्चय ही;

धर्मराजवचनात्-युधिष्ठिर के कहने से; मित्रतया मित्रता के कारण; अपि- क्या; दुष्टवादी-बुरे वचन बोलने वाला; गुणद्वेषी-गुणों से द्वेष रखने वाला; शठ-दुष्ट, स्वजननिर्दयः-स्वजनों के प्रति निर्दयी; मां-मुझको; दृष्ट्वा-देखकर; नैव-नहीं; कार्य-कार्य; करिष्यति-करेगा;

प्रवेष्टव्यम्-प्रवेश करें।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद कांचुकीय महाराज की जय हो। ।

दुर्योधन बादरायण! पक्षी के वाहन-मात्र से घमण्डी उस दूत को बुलाओ।

कांचुकीय महाराज की जैसी आज्ञा। (निकल गया)

दुर्योधन मित्र कर्णी

निश्चय ही पाण्डवों के कहने पर कुटिल बुद्धि वाला कृष्ण आज दूत रूप में सेवक सदृश यहाँ आया है। हे कर्ण! युधिष्ठिर के नारी के सदृश कोमल वचन सुनने के लिए तुम भी अपने कानों को तैयार कर लो।

वासदेव आज मैंने निश्चय ही युधिष्ठिर के कहने से मित्रता के कारण युद्ध का घमण्ड रखने वाले और कही बातों को न मानने वाले दुर्योधन के लिए अनुचित दूत का कार्य चुना है। बुरे वचन बोलने वाला, गुणों से द्वेष रखने वाला, दुष्ट और स्वजनों के प्रति निर्दयी दुर्योधन मुझे देखकर कार्य नहीं करेगा। हे बादरायण! आप

भी प्रवेश करें।


4 काञ्चुकीयः अथ किम् अथ किम्। प्रवेष्टुमर्हति पद्मनाभः।

वासुदेवः (प्रविश्य स्वगतम्) कथं कथं मां दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः

सर्वे क्षत्रियाः। (प्रकाशम) अललमं सम्भ्रमेण,

स्वैरमासतां भवन्तः।

दुर्योधनः कथं कथं केशवं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः सर्वे क्षत्रियाः।

अलम अलं सम्भ्रमेण। स्मरणीयः पर्वमाश्रावितो दण्डः।

ननु अहम् आज्ञप्ता।

भोः सुयोधन! किं भणसि।

दुर्योधनः (आसनात् पतित्वा आत्मगतम्) सुव्यक्तं प्राप्त एव

केशवः।

उत्साहेन मतिं कृत्वाप्यासीनोऽस्मि समाहितः।

केशवस्य प्रभावेण चलितोऽस्म्यासनादहम्।।


शब्दार्थ अथ किम अवश्य ही प्रवेष्टमर्हति-प्रवेश के अधिकारी हैं:

पद्मनाभः-श्रीकृष्णः प्रविश्य-प्रवेश करके कथं- क्यों मां-मुझको;

दृष्ट्वा -देखकर; सम्भ्रान्ताः-घबरा गए; उत्साहेन-उत्साह से; मति-

विचार (बुद्धि); कृत्व-करके, अस्मि-हूँ: केशवस्य-श्रीकृष्ण के;

प्रभावेण-प्रभाव से।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद कांचुकीय निश्चय ही, निश्चय ही। श्रीकृष्ण! आप प्रवेश के

अधिकारी हैं।

वासुदेव (प्रवेश करके मन-ही-मन में) क्यों, मुझे देखकर सभी क्षत्रिय क्यों घबराए हुए हैं? (प्रकट रूप में) घबराएँ नहीं, आप सब निश्चिन्त होकर बैठें।।

दुर्योधन क्या, क्या, सभी क्षत्रिय केशव को देखकर घबरा उठे हैं! मत घबराएँ। पूर्व में सुनाए गए दण्ड को स्मरण रखें। निःसन्देह, मैं आज्ञा देने वाला हूँ।

वासुदेव हे दुर्योधन! क्या कहते हो?


दुर्योधन (आसन से गिरकर स्वयं ही मन में) सुस्पष्ट है, केशव आ गया है। उत्साहपूर्वक मन में दृढ़ निश्चय करके मैं अत्यधिक सावधान बैठा हूँ, किन्तु केशव के प्रभाव से मैं आसन से विचलित हो गया हूँ।


5 अहो! बहुमायोऽयं दूतः। (प्रकाशम्) भो दूत! एतदासनमास्यताम्।

वासुदेवः आचार्य! आस्यताम्। गाङ्गेयप्रमुखा: राजानः! स्वैरम्

आसतां भवन्तः।

वयमपि उपविशामः। (उपविशति)


शब्दार्थ अहो! -अरे;बहुमायोऽयं -बहुत मायावी है,दूतः -दूत

(संदेशवाहक);प्रकाशम् -प्रकट रूप में एतदासनमास्यताम् -इस आसन पर बैठो,आस्यतां -बैठिए,स्वैरम् -आराम से;आसतां -बैठे।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद अरे! यह दूत बहुत मायावी है (प्रकट रूप में) हे दूत! इस आसन पर बैठो।

वासुदेव हे आचार्य! आप बैठिए। हे भीष्म आदि राजाओं! आप सब आराम से बैठिए। हम भी बैठते हैं। (बैठ जाते हैं।


6 दुर्योधन धर्मात्मजो वायुसुतश्च भीमो भ्रातार्जुनो मे त्रिदशेन्द्रसूनुः

यमौ च तावश्विसुतौ विनीतौ सर्वे सभृत्या: कुशलोपपन्ना।।


शब्दार्थ धर्मात्मजो -धर्म के पुत्र (युधिष्ठिर);वायुसुतः –वायु के पुत्र

(भीम);भ्राता -भाई,मे –मेरा;त्रिदशेन्द्रसूनुः -देवताओं के राजा इन्द्र का पुत्र (अर्जुन) यमौ -जुड़वाँ,तावश्विसुतौ -वे दोनों अश्विनीकुमारों के पुत्र (नकुल-सहदेव);सर्वे -सभी;सभृत्या – सेवकों सहित।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद धर्म के पुत्र (युधिष्ठिर) और वायुपुत्र भीम, मेरे भाई और इन्द्र के पुत्र अर्जुन, जुड़वाँ वे दोनों अश्विनी कुमारों के पुत्र नकुल और सहदेव सभी सेवकों सहित कुशल हैं।


7 वासुदेवः कुशलिन: सर्वे भवतो राज्ये शरीरे च कुशलमनामयं च

पृष्ट्वा विज्ञापयन्ति

अनुभूतं महदुःखं सम्पूर्णः समय: स च।।

अस्माकमपि धर्म्यं यद् दायाद्यं तद् विभज्यताम्।।।


शब्दार्थ कुशलिन: -कुशल,अनामयं -नीरोग:पृष्ट्वा -पूछकर;

विज्ञापयन्ति -सूचित करते हैं,अनुभूतं -अनुभव किया,महद्दुःखं – बड़ा

दुःख,अस्माकमपि -हमारा भी,यद् -जो दायाद्यं -उत्तराधिकार में प्राप्त

सम्पत्ति विभज्यताम -बाँट दो।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव सब कुशलतापूर्वक हैं। आपके राज्य की कुशलता और शरीर के स्वास्थ्य को पूछकर निवेदन करते हैं-

(हमने) अधिक कष्ट भोग लिया है। अब वह शर्त भी पूरी हो गई है। अतः धर्म के अनुसार जो भी देने योग्य हो, वह बाँट दीजिए।


8 दुर्योधनः कथं कथं। दायाद्यमिति। भो दूत! न जानाति भवान्

राजव्यवहारम्

राज्यं नाम नृपात्मजैस्सहृदयैर्जित्वा रिपून भुज्यते।

तल्लोके न तु याच्यते न च पुनर्दीनाय वा दीयते।।

काङ्क्षा चेन्नृपतित्वमाप्तुमचिरात् कुर्वन्तु ते साहसम्।

स्वैरं वा प्रविशन्तु शान्तमतिभिर्जुष्टं शमायाश्रमम्।।


शब्दार्थ कथं -कैसे, क्यों; भो दूत -अरे दूत;न -नहीं जानाति – जानते

हैं:भवान् -आप,नृपात्मजै: -राजकुमारों के द्वारा;जित्वा – जीतकर;

रिपून् -शत्रुओं को भुज्यते -भोगा जाता है:तल्लोके -वह संसार में ।

याच्यते -माँगा जाता है,दीनाय -निर्धन के लिए दीयते – दिया जाता है;

काङ्क्षा –चाह:कुर्वन्तु -करें;साहसम् -साहस जुष्टं – प्रसन्नतापूर्वक;

शमाय – शान्ति के लिए आश्रमम् – वानप्रस्थाश्रम।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन क्या-क्या। उत्तराधिकार में प्राप्त सम्पत्ति| अरे दूत! आप राजव्यवहार को नहीं जानते हैं।

सहृदय राजकुमारों के द्वारा राज्य तो शत्रुओं को जीतकर भोगा जाता है। वह न तो लोक (संसार) में माँगा जाता है तथा न ही किसी निर्धन व्यक्ति को प्रदान किया जाता है। यदि उन्हें (पाण्डवों को) राज पाने की चाह हो तो साहस करें, अन्यथा शान्ति हेतु शान्त चित्त वाले तपस्वियों से युक्त आश्रम में प्रवेश करें।


9 वासुदेवः भोः सुयोधन! अलं बन्धुजने परुषमभिधातुम्

कर्त्तव्यो भ्रातृषु स्नेहो विस्मर्तव्या गुणेतराः।

सम्बन्धो बन्धुभिः श्रेयान् लोकयोरुभयोरपि।।


शब्दार्थ भोः सुयोधन! -अरे दुर्योधन,अलं -बस करो;बन्धुजने –

भाइयों को परुषम् -कठोर,अभिधातुम् -कहना भ्रातृषु –भाइयों से;

स्नेह -प्रेम विस्मर्तव्या –भुला देना चाहिए;गुणेतराः -अवगुणों को;

सम्बन्धो –मेल-मिलाप रखना;बन्धुभिः -भाइयों से;श्रेयान् –

मंगलकारी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव अरे दुर्योधन! भाइयों को कठोर वचन कहना बन्द करो। भाइयों से स्नेह करना कर्त्तव्य है। उनके अवगुणों को भुला देना चाहिए। भाइयों से

मेल-मिलाप रखना दोनों ही लोकों में मंगलकारी होता है।


10 दुर्योधनः

देवात्मजैर्मनुष्याणां कथं वा बन्धुता भवेत्।

पिष्टपेषणमेतावत् पर्याप्तं छिद्यतां कथा।।


शब्दार्थ देवात्मजैः -देवपुत्रों के साथ कथं -कैसे;बन्धुता – भाईचारा;

पिष्टपेषणम् -बार-बार कहना:छिद्यतां -बन्द कीजिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन देवपुत्रों के साथ मनुष्यों का भाईचारा कैसे हो सकता है? बार-बार कहना पर्याप्त हो चुका, अब इस कथा को बन्द कीजिए।


12 वासुदेवः भोः सुयोधन! किं न जानासि अर्जुनस्य पराक्रमम्।

दुर्योधन: न जानामि।

वासुदेव: भोः श्रूयताम्, एकेनैव अर्जुनेन तदा विराटनगरे

भीष्मादयो निर्जिताः। अपि च चित्रसेनेन नभस्तलं

नीयमानस्त्वं फाल्गुनेनैव मोचितः। अत:-

दातुमर्हसि मद्वाक्याद् राज्यार्द्ध धृतराष्ट्रज।

अन्यथा सागरान्तां गां हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः॥


दर्योधनः-कथं कथं हरिष्यन्ति हि पाण्डवाः।

प्रहरति यदि युद्धे मारुतो भीमरूपी

प्रहरति यदि साक्षात्पार्थरूपेण शक्रः।

परुषवचनदक्ष! त्वद्ववचोभिर्न दास्ये

तृणमपि पितृभुक्ते वीर्यगुप्ते स्वराज्ये।।


शब्दार्थ किं-क्या;न -नहीं जानासि -जानते हो; श्रूयताम -सुनिए;

एकेनैव -अकेले ही;तदा -तब चित्रसेनेन -चित्रसेन से;मोचितः –

छुड़ाया गया था; दातुमर्हसि -दे देना चाहिए;मद्वाक्याद् -मेरे

कथन के अनुसार राज्याई -आधा राज्य धृतराष्ट्रज-धृतराष्ट्र के

पुत्र (दुर्योधन);सागरान्तां -समुद्र के अन्त तक की;गां -पृथ्वी;

हरिष्यन्ति -छीन लेंगे;पाण्डवाः -पाण्डव:प्रहरति -प्रहार करता है;

युद्ध -युद्ध में पार्थरूपेण – अर्जुन रूप में शक्र: -इन्द्रः |

परुषवचनदक्ष! -कटु वचन बोलने में दक्ष, (कृष्ण);त्वद्वचोभिः –

तुम्हारे कहने से;दास्ये -दूंगा;तृणमपि – तिनका भी;पितृभुक्ते –

पिता द्वारा भोगे गए;वीर्यगुप्ते -पराक्रम से संरक्षित।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद

वासुदेव-हे दुर्योधन! क्या अर्जुन के पराक्रम को नहीं जानते?

दुर्योधन-नहीं जानता।

वासुदेव-हे (दुर्योधन) सुनो! विराटनगर में अर्जुन ने अकेले ही भीष्म

आदि को जीता था तथा अर्जुन ने ही तुम्हें आकाश में ले जाते हुए चित्रसेन से छुड़ाया था।


हे धृतराष्ट्रकुमार! तुम्हें मेरे कथन के अनुसार राज्य का आधा भाग दे

देना चाहिए अन्यथा पाण्डव (निश्चय ही) समुद्र के अन्त तक की धरती तुमसे छीन लेंगे।

दुर्योधन कैसे, पाण्डव कैसे छीन लेंगे।

कटुवचन बोलने में दक्ष हे कृष्ण! यदि युद्ध में स्वयं वायु देव भी भीम रूप में प्रहार करें तथा साक्षात् इन्द्र भी अर्जुन रूप में प्रहार करें तो भी (मैं) तुम्हारे कहने से पिता द्वारा भोगे गए, पराक्रम से संरक्षित अपने राज्य का तिनका भी नहीं दूंगा।


13 वासुदेव: भोः कुरुकुलकलङ्कभूत!

दुर्योधन: भोः गोपालक!

वासुदेव: भोः सुयोधन ! ननु क्षिपसि माम।

दुर्योधनः आः अनात्मज्ञस्त्वम्। अहं कथयामि यद्

भवविधैः सह न भाषे।

वासुदेव: भोः शठ! त्वदर्थात् अयं कुरुवंशः अचिरान्नाशमेष्यति।

भो भोः राजानः! गच्छामस्तावत्।

दुर्योधनः कथं यास्यति किल केशवः। भोः दुःशासन!

दूतसमुदाचारमतिक्रान्त: केशव: बध्यताम्।

मातुल! बध्यतामयं केशव:। कथं पराङ्मुखः

पतति। भवतु अहमेव पाशैर्बध्नामि (उपसर्पति)।

वासुदेव: कथं बद्धकामो मां किल सुयोधनः। भवतु,

सुयोधनस्य सामर्थ्यं पश्यामि (विश्वरूपमास्थित:)।


शब्दार्थ कुरुकूलकलभता-हे कुरुवंश के कलंक;भो: गोपालक-हे ग्वाले; क्षिपसि-आक्षेप करते हो;अनात्मज्ञः -अपने से अनभिज्ञासह -साथ;न भाषे -नहीं बोलता;शठ -मूर्ख;बध्यताम -बाँध दो;मातुल -मामा; पराङ्मुखः -उल्टे मुँह।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद वासुदेव हे कुरुवंश के कलंक!

दुर्योधन हे ग्वाले!

वासुदेव हे दुर्योधन! मुझ पर आक्षेप करते हो।

दुर्योधन अरे, तू स्वयं से अनभिज्ञ है। मैं कह देता हूँ कि तुझ जैसों से मैं नहीं बोलता।

वासुदेव हे मूर्ख! तेरे कारण यह कुरुवंश शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। हे, हे राजाओं! हम जाते हैं।

दुर्योधन केशव भला कैसे चला जाएगा! हे दुःशासन! दूत की मर्यादा का उल्लंघन करने वाले केशव को बाँध दो। मामा! इस केशव को बाँध दो। (अरे आप) उल्टे मुँह क्यों गिर रहे हैं? अच्छा, इसे मैं ही बन्धन से बाँधता हूँ (समीप जाता है)।

वासुदेव क्या, दुर्योधन मुझे बाँधना चाहता है? अच्छा, देखू दुर्योधन की सामर्थ्य (विराटप धारण करते हैं)।


14 दुर्योधन:-भो दूत!

सृजसि यदि समन्ताद् देवमाया: स्वमायाः

प्रहरसि यदि वा त्वं दुर्निवारैस्सुरास्त्रैः।

हयगजवृषभाणां पातनाज्जातदो।

नरपतिगणमध्ये बध्यसे त्वं मयाद्य।।


आ: तिष्ठ इदानीम्। कथं न दृष्ट: केशव:? अहो ह्रस्वत्वं केशवस्य। आः तिष्ठ इदानीम कथं न दष्ट: केशव:! अहो दीर्घत्वं केशवस्य। कथं न दृष्टः केशवः! अयं केशवः। कथं सर्वत्र शालायां केशवा एव केशवा: दृश्यन्ते! किम् इदानीं करिष्ये! भवतु, दृष्टम्। भो राजानः! एकेन एक: केशवः बध्यताम्। कथं स्वयमेव पाशैर्बद्धाः पतन्ति राजानः। (निष्क्रान्ताः सर्वे)


शब्दार्थ सजसि -रच दो;समन्ताद -चारों ओर प्रहरसि -प्रहार करो;

हय -घोड़े,गजः -हाथियों वषभाणां -बैलों;पातनाज्जातदों – मारने से

उत्पन्न घमण्ड वाले,नरपतिगणमध्ये -राजाओं के मध्य;बध्यसे -बाँधूंगा;

आः -अरे;तिष्ठ -ठहर इदानीम -अब कथं -क्यों हस्वत्वं -सूक्ष्मता; ।

दीर्घत्वं -विशालता,शालायां -सभा में करिष्ये – करूँ पतन्ति -गिर रहे हैं; राजानः -राजागण:निष्क्रान्ताः सर्वे – सभी निकलते हैं।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद दुर्योधन अरे दूत!

यदि तुम चारों ओर अपनी देवमाया रच दो, यदि तुम अबाध दिव्यास्त्रों से प्रहार

करो, घोड़े, हाथियों एवं बैलों को मारने से उत्पन्न घमण्ड वाले, आज मैं (इन) राजाओं

के मध्य तुम्हें बाँधूंगा।

अरे! अब ठहर! क्यों नहीं दिख रहा केशव? अरे! केशव की सूक्ष्मता! अरे! अब ठहर। केशव क्यों नहीं दिख रहा? अरे! केशव की विशालता। क्यों नहीं दिख रहा केशव? यह है केशव! क्या इस सभा में सर्वत्र केशव-ही-केशव दिख रहा है? अब मैं।

क्या करूँ? अच्छा, समझा। हे राजाओं! (आप में से) प्रत्येक एक केशव को बाँधे। क्या बन्धन में बँधे राजागण स्वयं ही गिर रहे हैं! (सभी निकलते हैं)


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएंगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


पाण्डवदूतः कः आसीत्?

उत्तर पाण्डवदूतः श्रीकृष्णः आसीत्।

श्रीकृष्ण कस्य समीपे दौत्येन गतः?

अथवा श्रीकृष्ण: दूतरूपेण कुत्र गतः?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य समीपे दौत्येन गतः।

वासुदेवः कस्य दौत्येन कुत्र गतः? .

उत्तर वासुदेवः युधिष्ठिरस्य दौत्येन दुर्योधनस्य समीपे गतः।।

दुर्योधनः कर्णं किम् अवोचत्?

उत्तर दुर्योधनः कर्णम् अवोचत्-सखे कर्ण! त्वमपि युधिष्ठिरस्य नारीमृदूनि वचनानि श्रोतुं कर्णो सज्जया

पद्मनाभः कः आसीत्?

उत्तर पद्मनाभः श्रीकृष्णः आसीत्।

सर्वे क्षत्रियाः कं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः?

उत्तर सर्वे क्षत्रियाः श्रीकृष्णं दृष्ट्वा सम्भ्रान्ताः।

पूर्वम् श्रावितः कः स्मरणीय?

उत्तर पूर्वम् श्रावितः दण्डः स्मरणीय।

दुर्योधन: कैः सह मन्त्रयितुम इच्छामि?

उत्तर दुर्योधनः पार्थिवैः सह मन्त्रयितुम् इच्छामि।

कस्मात् दूतः आगतः?

उत्तर पाण्डवस्कन्धावारात् दूतः आगतः।

दुर्योधनः श्रीकृष्णं किम् अपृच्छत्?

उत्तर दुर्योधनः श्रीकृष्णं अपृच्छत् यत् तस्य भ्रातरः अपि कुशलिनः।

के महदुःखम् अनुभूतम्?

उत्तर पाण्डवाः महदुःखम् अनुभूतम्।

दीनाय किं न दीयते?

उत्तर दीनाय राज्यं न दीयते।

श्रीकृष्ण: दुर्योधनस्य किमपरं नाम वदति?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य अपरं नाम ‘सुयोधन’ इति वदति।।

केन विराटनगरे भीष्मादयः पराजिताः?

उत्तर अर्जुनेन विराटनगरे भीष्मादयः पराजिताः।

पाण्डवाः कां हरिष्यन्ति?

उत्तर पाण्डवाः गां हरिष्यन्ति।

दुर्योधनः पाण्डवान् किं न दास्यति? |

उत्तर दयोधनः पाण्डवान् तृणमपि न दास्याता

कः कुरुकुलकलङ्क भूतः?

उत्तर दुर्योधनः कुरुकुलकलङ्क भूतः।

दुर्योधनः गोपालकः कम् अकथयत्?

उत्तर दुर्योधनः गोपालकः श्रीकृष्णम् अकथयत्।

श्रीकृष्णः कस्य सामर्थ्यं पश्यति?

उत्तर श्रीकृष्णः दुर्योधनस्य सामर्थ्यं पश्यति।

श्रीकृष्णस्य कानि रूपाणि अभवन्?

उत्तर श्रीकृष्णस्य अनेकानि रूपाणि अभवन।

सर्वे राजानः कैः बद्धाः स्वयमेव पतन्ति?

उत्तर सर्वे राजानः पाशैः बद्धाः स्वयमेव पतन्ति।

दुर्योधनः कस्य पुत्रः आसीत्? –

उत्तर दुर्योधनः धृतराष्ट्रस्य पुत्रः आसीत्।


8-सुभाषितरत्नानि कक्षा-12

सुभाषितानि

गद्यांशों का सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से दो गद्यांश व दो श्लोक दिए जाएंगे, जिनमें से एक गद्यांश व एक श्लोक का सन्दर्भ

प्रश्नोत्तर केवल कला वर्ग के छात्रों/छात्राओं के लिए।

सहित हिन्दी में अनुवाद करना होगा. दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।


1.

भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती।

तस्या हि मधुरं काव्यं तस्मादपि सुभाषितम्।।


शब्दार्थ भाषासु-भाषाओं में, मुख्या-मुख्य, गीर्वाणभारती-देववाणी (संस्कृत); तस्या-उसका; तस्मादपि-उससे भी अधिक,सुभाषितम्-सुन्दर उक्ति।


सन्दर्भ प्रस्तुत श्लोक हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के ‘सुभाषितरत्नानि’ नामक पाठ से उद्धृत है।


अनुवाद (सभी) भाषाओं में देववाणी (संस्कृत) सर्वाधिक प्रधान, मधुर और दिव्य है। निश्चय ही उसका काव्य (साहित्य) मधुर है तथा उससे (काव्य से) भी अधिक मधुर उसके सुभाषित (सुन्दर वचन या सूक्तियों) हैं।


2.

सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम्।।


शब्दार्थ- सुखार्थी-सुख चाहने वाला, विद्या-विद्या, विद्यार्थी-विद्या प्राप्त करने वाला, त्यजेत्-छोड़ देनी चाहिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- सुख चाहने वाले (सुखार्थी) को विद्या कहाँ तथा विद्या चाहने वाले (विद्यार्थी) को सुख कहाँ! सुख की इच्छा रखने वाले को विद्या (पाने की चाह) त्याग देनी चाहिए और विद्या की इच्छा रखने वाले को सुख त्याग देना चाहिए।


3.

 जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।

स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।


शब्दार्थ- जल-बिन्दु-निपातेन-जल की बूंद गिरने से, क्रमश:-एक के बाद एक, पूर्यते-भर जाता है; घट:-घड़ा; हेतु:-कारण, सर्वविद्यानां- सभी विद्याओं का,धर्मस्य-धर्म का, धनस्य-धन का,च-और।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद - बूँद-बूँद जल गिरने से क्रमशः घड़ा भर जाता है। यही सभी विद्याओं, धर्म तथा धन का हेतु (कारण) है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि विद्या, धर्म एवं धन की प्राप्ति के लिए उद्यम के साथ-साथ धैर्य का होना भी आवश्यक है, क्योंकि इन तीनों का संचय धीरे-धीरे ही होता है।


4.

 काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।

व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।


शब्दार्थ- काव्यशास्त्र-विनोदेन-काव्य और शास्त्र की चर्चारूपी मनोरंजन से, काल:-समय, गच्छति-जाता है, व्यतीत होता है, धीमताम् -बुद्धिमानों का, व्यसनेन -बुरी बादत से, मूर्खाणां-मुखों का, निद्रया-नींद से, कलहेन -विवाद से, वा-अथवा।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  बुद्धिमान लोगों का समय काव्य एवं शास्त्रों (की चर्चा) के आनन्द में व्यतीत होता है तथा मूर्ख लोगों का समय बुरी आदतों में, सोने में एवं झगड़ा-झंझट में (व्यतीत होता है)।


5.

 न चौरहार्यं न च राजहार्य

न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि।

व्यये कृते वर्द्धत एव नित्यं

विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।


शब्दार्थ- चौरहार्य-चोर द्वारा चुराया जा सकता है, राजहार्य-राजा द्वारा छीना जा सकता है, भ्रातृभाज्यं- भाईयों द्वारा बाँटा जा सकता है, भारकारि- बोझ बनता है, व्यये-खर्च करने पर, वर्द्धते एव -बढ़ता है, नित्यं -प्रतिदिन।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- विद्यारूपी धन सभी धनों में प्रधान है। इसे न तो चोर चरा सकता है, न राजा छीन सकता है, न भाई बाँट सकता है और न तो यह बोझ ही बनता है। यहाँ कहने का तात्पर्य है कि अन्य सम्पदाओं की भाँति विद्यारूपी धन घटने वाला नहीं है। यह धन खर्च किए जाने पर और भी बढ़ता जाता है। ।

•विशेष (i) शास्त्र में अन्यत्र भी विद्या को श्रेष्ठ सिद्ध करते हुए कहा गया है-‘स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’ ।

(ii) इस दोहे में भी विद्या को इस प्रकार महिमामण्डित किया गया है

“सरस्वती के भण्डार की बड़ी अपूरब बात।

ज्यों खर्चे त्यों-त्यों बढ़े, बिन खर्चे घट जात।।”


6.

 परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्।

वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम्।।


शब्दार्थ परोक्षे-पीठ पीछे कार्यहन्तारं -कार्य को नष्ट करने वाले,प्रत्यक्षे-सामने प्रियवादिनम् -प्रिय बोलने वाले को वर्जयेत् -त्याग देनाचाहिए, तादृशम् -वैसे ही; विषकुम्भम् -विष के घड़े को; पयोमुखम् -मुख में या ऊपरी हिस्से में दूधवाले।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पीठ पीछे कार्य को नष्ट करने वाले तथा सम्मुख प्रिय (मीठा) बोलने वाले मित्र का उसी प्रकार त्याग कर देना चाहिए, जिस प्रकार मुख पर दूध लगे विष से भरे घड़े को छोड़ दिया जाता है।


7.

 उदेति सविता ताम्रस्ताम्र एवास्तमेति च।

सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।।


शब्दार्थ- उदेति -उदित होता है सविता -सूर्य, ताम्र: -लाल, एव -ही,  अस्तमेति -अस्त होता है, सम्पत्तौ -सुख में, विपत्तौ -दुःख में, एकरूपता – समरूप या एक-जैसा होना।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- महान् पुरुष सम्पत्ति (सुख) एवं विपत्ति (द:ख) में उसी प्रकार एक समान रहते हैं, जिस प्रकार सूर्य उदित होने के समय भी लाल रहता है और अस्त होने के समय भी। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि महान् अर्थात् ज्ञानी पुरुष को सुख-दुःख प्रभावित नहीं करते। न तो वह सुख में अत्यन्त आनन्दित ही होता है और न दु:ख में हतोत्साहित। ।


8.

 विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय।

खलस्य साधोः विपरीतमेतज्ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।


शब्दार्थ- विवादाय-वाद-विवाद के लिए,  मदाय -घमण्ड के लिए, परेषां -दूसरों को, परिपीडनाय-कष्ट पहुँचाने के लिए,खलस्य –दुष्ट की, साधो: -सज्जन की, विपरीतमेत -इसके विपरीत, ज्ञानाय-ज्ञान के लिए, दानाय-दान के लिए,रक्षणाय-रक्षा के लिए।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनवाद- दृष्ट व्यक्ति की विद्या वाद-विवाद (तर्क-वितर्क) के लिए सम्पत्ति घमण्ड के लिए एवं शक्ति दूसरों को कष्ट पहुँचाने के लिए होती है। इसके विपरीत सज्जन व्यक्ति की विद्या ज्ञान के लिए, सम्पत्ति दान के लिए एवं शक्ति रक्षा के लिए होती है।


9.

 सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।

वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः।।


शब्दार्थ- सहसा -बिना विचार किए,  विदधीत -करना चाहिए, क्रियाम् -कार्य को अविवेक/अज्ञान, परमापदां -घोर संकट, पदम् –स्थान, वृणुते -वरण करती हैं, विमृश्यकारिणं -विचारकर कार्य करने वाले व्यक्ति का, गुणलुब्धाः –गुणों की लोभी।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- बिना सोचे-विचारे (कोई भी) कार्य नहीं करना चाहिए। अज्ञान परम आपत्तियों (घोर संकट) का स्थान (आश्रय) है। सोच-विचारकर कार्य करने वाले (व्यक्ति) का गुणों की लोभी अर्थात् गुणों पर रीझने वाली सम्पत्तियाँ (लक्ष्मी) स्वयं वरण करती हैं। यहाँ कहने का अब यह है कि ठीक प्रकार से विचार कर किया गया कार्य ही सफलीभूत होता है, अति शीघ्रता से बिना विचारे किए गए कार्य का परिणाम सर्वदा अहितकर ही होता है।


10.

 वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।।

लोकोत्तराणां चेतांसि को न विज्ञातुमर्हति।।


शब्दार्थ- वज्रादपि -वज्र से भी,मृदूनि -कोमल, कुसुमादपि -फूल से भी;लोकोत्तराणाम् –अलौकिक व्यक्तियों के चेतांसि -चित्त को, विज्ञातुमर्हति -जान सकता है।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- असाधारण पुरुषों (अर्थात् महापुरुषों) के वज्र से भी कठोर तथा पुष्प से भी कोमल चित्त (हृदय) को (भला) कौन जान सकता है?


11.

 प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स: पुत्रो

यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम्।

तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं यद्

एतत्त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते।।


शब्दार्थ- प्रीणाति-प्रसन्न करता है; यः-जो, सुचरितैः -अच्छे आचरण से, तत्-वह; कलत्रम्-स्त्री,  मित्रम्-मित्र, आपदि-आपत्ति में, समक्रियम्-समान व्यवहार वाला, पुण्यकृतो-पुण्यवान् व्यक्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद-  अपने अच्छे आचरण (कर्म) से पिता को प्रसन्न रखने वाला पुत्र, (सदा) पति का हित (अर्थात् भला) चाहने वाली पत्नी तथा आपत्ति (दुःख) एवं सुख में एक जैसा व्यवहार करने वाला मित्र, इस संसार में इन तीनों की प्राप्ति पुण्यशाली व्यक्ति को ही होती है।


12.

 कामान् दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मी

कीर्तिं सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।

शुद्धां शान्तां मातरं मङ्गलानां

धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः॥


शब्दार्थ- कामान्-इच्छाओं को दुग्धे पूर्ण करती है,

विप्रकर्षत्यलक्ष्मीम् अलक्ष्मी को दूर करती है, सूते-जन्म देती है,  हिनस्ति-नष्ट करती है, मातर-माता, मङ्गलाना- मंगलों की, धेनुं-गाय, सूनताम-सत्य एवं प्रिय।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- धैर्यवानों (ज्ञानियों) ने सत्य एवं प्रिय (सुभाषित) वाणी को शुद्ध, शान्त एवं मंगलों की मातारूपी गाय की संज्ञा दी है, जो इच्छाओं को दुहती (अर्थात् पूर्ण करती) है, दरिद्रता को हरती है, कीर्ति (अर्थात् यश) को जन्म देती है एवं पाप का नाश करती है। इस प्रकार यहाँ सत्य और प्रिय (मधुर) वाणी को मानव की सिद्धियों को पूर्ण करने वाली गाय बताया गया है।


13.

व्यतिषजति पदार्थानान्तरः कोऽपि हेतुः

न खलु बहिरुपाधीन् प्रीतय: संश्रयन्ते।

विकसति हि पतङ्गस्योदये पुण्डरीकं

द्रवति च हिमरश्मावुद्गते: चन्द्रकान्तः।।


शब्दार्थ- व्यतिषजति-मिलाता है, आन्तर:-आन्तरिक, कोऽपि-कोई भी, हेतु:-कारण, बहिरुपाधीन्-बाह्य कारणों पर, संश्रयन्ते-आश्रित होता है, विकसति- खिलता है, पतङ्गस्योदय-सूर्य के उदय होने पर,

पुण्डरी- कमल, द्रवति-पिघलती है, हिमरश्मावदगते- चन्द्रमा के निकलने पर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- पदार्थों को मिलाने वाला कोई आन्तरिक कारण ही होता है। निश्चय ही प्रीति (प्रेम) बाह्य कारणों पर निर्भर नहीं करती: जैसे-कमल सूर्य के उदय होने पर ही खिलता है और चन्द्रकान्त-मणि चन्द्रमा के उदय होने पर ही द्रवित होती है।


14.

 निन्दन्तु नीतिनिपुणा: यदि वा स्तुवन्तु

लक्ष्मी माविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा ।

न्याय्यात् पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः।।


शब्दार्थ- निन्दत्-निन्दा करे, नीतिनिपणा-नीति में दक्ष की, स्तवन्त- स्तुति करे, यथेष्टम् - इच्छानुसार, अद्यै-आज ही, न्याय्यात्-न्यायोचित, पथ-मार्ग से प्रविचलन्-िडोलते हैं, पदम्-पगभर।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- नीति में दक्ष लोग निन्दा करें या स्तुति; चाहे लक्ष्मी आए या स्व-इच्छा से चली जाए; मृत्यु आज ही आए या फिर युगों के पश्चात्, धैर्यवान पुरुष न्याय-पथ से थोड़ा भी विचलित नहीं होते। ।

इस प्रकार यहाँ यह बताया गया है कि धीरज धारण करने वाले लोग कर्म-पथ पर अडिग होकर चलते रहते हैं जब तक उन्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।


15.

 ऋषयो राक्षसीमाहुः वाचमुन्मत्तदृप्तयोः।

सा योनि: सर्ववैराणां सा हि लोकस्य नितिः।।


शब्दार्थ- ऋषयः-ऋषियों ने, राक्षसीमाह-राक्षसी कहा है, वाचम्-वाणी,उन्मत्तदप्तयो-मतवाले और अहंकारी की,योनि-उत्पन्न करने वाली, सर्ववैराण-सभी प्रकार के बैरों को,लोकस्य-लोक की; निति-विपत्ति।


सन्दर्भ पूर्ववत्।


अनुवाद- ऋषियों ने उन्मत्त तथा अहंकारी (लोगों) की वाणी को राक्षसी वाणी कहा है, जो सभी प्रकार के वैरों को जन्म देने वाली एवं संसार की विपत्ति (का हेतु) होती है।


अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।


प्रश्न-सुखार्थिनः किं त्यजेत्?

उत्तर- सुखार्थिनः विद्यां त्यजेत्।

प्रश्न-विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी किं त्यजेत्?

अथवा विद्यार्थी किं त्यजेत्?

उत्तर- विद्याप्राप्यर्थं विद्यार्थी सुखं त्यजेत्।

प्रश्न-केन क्रमशः घटः पूर्यते?

उत्तर- जल-बिन्दु-निपातेन क्रमशः घटः पूर्यते।

प्रश्न-स्तोकं-स्तोकं कृत्वा केषां संचय भवति?

उत्तर- स्तोकं स्तोकं कृत्वा विद्या, धर्म, धनं च एतेषां त्रयाणां संचयं भवति।

प्रश्न-धीमतां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- धीमतां कालः काव्यशास्त्रविनोदेन गच्छति।

प्रश्न-मूर्खाणां कालः कथं गच्छति?

उत्तर- मूर्खाणां कालः व्यसनेन, निद्रया कलहेन वा गच्छति।

प्रश्न-विद्याधनं कथं सर्वधनप्रधानम् अस्ति?

उत्तर- विद्याधनं व्यये कृते वर्धते, अस्मात् कारणात् सर्वधनप्रधानम् अस्ति।

प्रश्न-सर्वधनप्रधानं किं धनम् अस्ति?

उत्तर- सर्वधनप्रधानं विद्याधनम् अस्ति।

प्रश्न- कीदृशं मित्रं त्यजेत्?

उत्तर- परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम् एतादृशं मित्रं त्यजेत्।।

प्रश्न-भानुः उदिते समये कीदृशं भवति?

उत्तर- भानुः उदिते समये ताम्रः भवति।

प्रश्न-खलस्य विद्या किमर्थं भवति?

उत्तर- खलस्य विद्या विवादाय भवति।

प्रश्न-सहसा किं न कुर्यात्?

उत्तर- सहसा कार्यं न कुर्यात्।

प्रश्न-अज्ञानं केषां पदम् अस्ति?

उत्तर- अज्ञानं परमापदां पदम् अस्ति।

प्रश्न-लोकोत्तराणां चेतांसि कीदृशानि भवन्ति?

उत्तर- लोकोत्तराणां चेतांसि वज्रादपि कठोराणि    कुसुमादपि च कोमलानि भवन्ति।

प्रश्न-सुपुत्रः कः भवति?

उत्तर-यः सुचरितैः पितरं प्रीणाति, सः सुपुत्रः भवति।

प्रश्न- सुकलत्रं का भवति?

उत्तर- या भर्तुरेव हितम् इच्छति सा सुकलत्रं भवति।

प्रश्न-पुण्डरीकं कदा विकसति?

उत्तर- पुण्डरीकं सूर्य उदिते विकसति।

प्रश्न-के न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति?

उत्तर - धीराः न्याय्यात् पथात् पदं न प्रविचलन्ति।

प्रश्न-ऋषय: केषां वाचं राक्षसीम् आहुः?

उत्तर- ऋषयः उन्मत्तानां वाचं राक्षसीम् आहुः।

प्रश्न-लोकस्य निर्ऋतिः कः?

उत्तर-लोकस्य निर्ऋतिः राक्षसीमाहुः अस्ति।


1- भोजस्ययौदार्यम कक्षा-12

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य दोनों) से एक-एक गद्यांश व श्लोक दिए जाएँगे, जिनका सन्दर्भ सहित हिन्दी में अनुवाद
करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं। प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य दोनों) से एक-एक गद्यांश व श्लोक दिए जाएँगे, जिनका सन्दर्भ सहित हिन्दी मेंअनुवाद करना होगा, दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।

1.

 ततः कदाचिद् द्वारपाल आगत्य महाराजं भोजं प्राह-‘देव, कौपीनावशेषो विद्वान् द्वारि वर्तते’ इति। राजा ‘प्रवेशय’ इति। ततः प्रविष्टः सः कविः भोजमालोक्य अद्य मे दारिद्रयनाशो भविष्यतीति मत्वा तुष्टो हर्षाणि मुमोच। राजा तमालोक्य प्राह-‘कवे! किं रोदिषि’ इति। ततः कविराह-राजन्! आकर्णय मद्गृहस्थितिम्।।

शब्दार्थ- कदाचिद् -कभी आगत्य-आकर भोज -भोज को कौपीनावशेषो -जिस पर लंगोटी मात्र शेष है अर्थात् दरिद्र; द्वारि-द्वार पर, भोजमालोक्य – भोज को देखकर, अद्य-आज, मत्वा -मानकर, तमालोक्य-उसको देखकर, रोदिषि,-रोते हो।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत’ के भोजस्यौदार्यम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद- तत्पश्चात् द्वारपाल ने आकर महाराज भोज से कहा, “देव! द्वार पर ऐसा विद्वान् खड़ा है, जिसके तन पर केवल लँगोटी ही शेष है।” राजा बोले, “प्रवेश कराओ।” तब उस कवि ने भोज को देखकर यह मानकर कि आज मेरी दरिद्रता दूर हो जाएगी, प्रसन्नता के आँसू बहाए। राजा ने उसे देखकर कहा, “कवि! रोते क्यों हो?” तब कवि ने कहा-राजन्! मेरे घर की स्थिति को सुनिए।

2..

अये लाजानच्चैः पथि वचनमाकर्ण्य गृहिणी।

शिशोः कर्णौ यत्नात् सुपिहितवती दीनवदना।।

मयि क्षीणोपाये यदकृतं दृशावश्रुबहुले।

तदन्तःशल्यं मे त्वमसि पुनरुद्धर्तुमुचितः।।

शब्दार्थ- लाजा -खील, पथि -रास्ते में, आकर्ण्य -सुनकर,गृहिणी-पत्नी, शिशोः -बच्चे के, यत्नात् –प्रयत्नपूर्वक, सुपिहितवती–बन्द कर देने वाली, दीनवदना -दीन मुख वाली, क्षीणोपाये-साधन विहीन,  यदकृतं- जो किया जा सके,  दृशावश्रुबहुले-आँखों में आंसू भरकर,  तदन्तःशल्यं-वह मेरे हृदय में काँटे के समान, त्वमसि -तुम हो।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद- मार्ग पर ऊँचे स्वर में ‘अरे, खील लो’ सुनकर दीन मुख वाली (मेरी) पत्नी ने बच्चों के कान सावधानीपूर्वक बन्द कर दिए और मुझ दरिद्र पर जो अश्रुपूर्ण दृष्टि डाली, वह मेरे हृदय में काँटे सदृश गड़ गई, जिसे निकालने में आप ही समर्थ हैं।

3.

 राजा शिव, शिव इति उदीरयन् प्रत्यक्षरं लक्षं दत्त्वा प्राह-त्वरितं गच्छ गेहम्, त्वद्गृहिणी खिन्ना वर्तते।’ अन्यदा भोजः श्रीमहेश्वरं नमितुं शिवालयमभ्यगच्छत्। तदा कोऽपि ब्राह्मण: राजानं शिवसन्निधौ प्राह-देव!

शब्दार्थ- इति-इस प्रकार; उदीरयन्-उच्चारण करते हुए: प्रत्यक्षरं- प्रत्येक अक्षर पर, लक्षं-लाख मुद्राएँ: दत्त्वा-देकर; प्राह-कहा; त्वरितं- शीघ्र; गच्छ- जाओ; गेहम्-घर; त्वदगृहिणी-तुम्हारीपत्नी; खिन्ना- दुःखी; वर्तते-है; शिवसन्निधौ-शिव के समीप।

अनुवाद-‘शिव, शिव’शिव’ कहते हुए प्रत्येक अक्षर लाख मुद्राएँ देकर राजा ने कहा, “शीघ्र घर जाओ। तुम्हारी पत्नी दु:खी है।” भोज अगले दिन श्री महेश्वर (भगवान शंकर) को नमन करने के लिए शिवालय गए। तब शिव के समीप राजा से किसी ब्राह्मण ने कहा- हे राजन्।


4.
 अर्द्ध दानववैरिणा गिरिजयाप्यर्द्ध शिवस्याहृतम्।
देवेत्थं जगतीतले पुरहराभावे समुन्मीलति।।
गङ्गासागरमम्बरं शशिकला नागाधिप: क्ष्मातलम्।
सर्वज्ञत्वमधीश्वरत्वमगमत् त्वां मां तु भिक्षाटनम्॥

शब्दार्थ -अर्द्ध-आधा; दानववैरिणा-दानव-वैरी अर्थात् विष्णःगिरिजया-पार्वती ने आहतम-हर लिया; इत्थं-इस प्रकार, जगतीतले-पृथ्वी पर; अभावे-कमी; शशिकला-चन्द्रकला, नागाधिपः-नागराज; त्वां-आपमें मां-मुझमें।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद-  शिव का अर्द्धभाग दानव-वैरी अर्थात विष्णु ने तथा अर्द्धभाग पार्वती ने हर लिया। इस प्रकार भू-तल पर शिव की कमी होने से गंगा सागर में, चन्द्रकला आकाश में तथा नागराज (शेषनाग) भू-तल में समा गया। सर्वज्ञता और । अधीश्वरता आपमें तथा भिक्षाटन मुझमें आ गया।

5.
 राजा तुष्टः तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ। अन्यदा राजा समुपस्थितां सीतां प्राह-‘देवि! प्रभातं वर्णय’ इति। सीता प्राह-
विरलविरला: स्थूलास्तारा: कलाविव सज्जनाः।।
मन इव मुनेः सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः।।
अपसरति च ध्वान्तं चित्तात्सतामिवं दुर्जनः।
व्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीरनुद्यमिनामिव।।

शब्दार्थ- विरलविरला:-बहुत कम; स्थूलास्तारा:-बड़े-बड़े तारे;कलाविव-कलयुग में; सज्जना:-सज्जन; इव-सदृश; मुने:- मुनि, ध्वान्तं-अन्धकार; चित्तात-चित्त से; सतां-सज्जनों के व्रजति-जा रही है, व्यतीत हो रही है; निशा-रात; क्षिप्रं-शीघ्र।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद- राजा ने सन्तुष्ट होकर उसे प्रत्येक अक्षर पर एक-एक लाख (रुपये) दिए। अन्य किसी दिन राजा ने समीप में स्थित सीता से कहा-‘देवि! प्रभात का वर्णन करो।’ सीता ने कहा-बड़े तारे गिने-चुने (बहुत कम) दिखाई दे रहे हैं, जैसे कलयुग में सज्जन। सारा आकाश मुनि के सदृश प्रसन्न (निर्मल) हो गया है। अन्धेरा मिटता जा रहा है, जैसे सज्जनों के चित्त से दुर्जन और रात्रि उद्यमहीनों की लक्ष्मी-सी तीव्रता से भागी जा रही है।

6.
 राजा तस्यै लक्षं दत्त्वा कालिदासं प्राह-‘सखे. त्वमपि प्रभातं वर्णय’ इति।
ततः कालिदासः प्राह
अभूत् प्राची पिङ्गा रसपतिरिव प्राप्य कनकं।
गतच्छायश्चन्द्रो बुधजन इव ग्राम्यसदसि।।
क्षणं क्षीणास्तारा: नृपतय इवानुद्यमपराः।
न दीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः।।
राजातितृष्टः तस्मै प्रत्क्षरं लक्षं ददौ|
शब्दार्थ- अभूत-हो गई, प्राची-पूर्व दिशा; पिङ्गा-पीली; प्राप्य-प्राप्त
करके; कनक-सुनहरी; चन्द्रः-चन्द्रमा; बुधजन-विद्वान्, ग्राम्यसदसि- अज्ञानियों की सभा में (गॅवारों की); क्षणं– क्षण भर में; क्षीणा-क्षीण हो गए; नृपतय इव-राजा के समान; न-नहीं; दीपा-दीपक; राजन्ते- चमक रहे हैं।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद - राजा ने उसे एक लाख (रुपये) देकर कालिदास से कहा-“मित्र तुम भी प्रभात का वर्णन करो।” तब कालिदास ने कहा-पूर्व दिशा सुवर्ण (सूर्य की। पहली किरण) को पाकर पारे-सी पीली (सुनहरी) हो गई है। चन्द्रमा वैसे ही कान्तिहीन हो गया है, जैसे अज्ञानियों (गँवारों) की सभा में विद्वान्। तारे उद्यमहीन राजाओं की भाँति क्षणभर में क्षीण हो गए हैं। निर्धनों (धनहीनों) के गुणों के सदृश दीपक भी नहीं चमक रहे हैं। कहने का अर्थ है-जिस प्रकार दरिद्रता व्यक्ति के गुणों को ढक लेती है उसी प्रकार सवेरा होने पर दीपक व्यर्थ हो जाता है। राजा ने सन्तुष्ट होकर उसको प्रत्येक शब्द पर लाख मुद्राएँ दीं।

केवल कला वर्ग के लिए
अति लघुउत्तरीय प्रश्न
प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

 प्रश्न- द्वारपालः राजा भोजं किं निवेदयत्?
उत्तर द्वारपालः राजा भोजं निवेदयत् यत् कौपीनावशेष:  विद्वान द्वारे तिष्ठति।
  प्रश्न-  भोजं दृष्ट्वा कविः किम् अचिन्तयत्?
उत्तर- भोजं दृष्ट्वा कविः अचिन्तयत् यत् अद्य मम दारिद्रस्य नाशः भविष्यति।
कविः कथम् अरोदीत?
उत्तर कवेः रोदनस्य कारणं तस्य दरिद्रता आसीत्।
भोजः कविं किम् अपृच्छत्?
उत्तर भोजः कविम् अपृच्छत्-‘कवे, किं रोदिषि’ इति।
   प्रश्न- कस्य भार्या स्वशिशोः कर्णौ सुपिहितवती?
उत्तर- कवेः भार्या स्वशिशोः कर्णौ सुपिहितवती।
  प्रश्न-  दीनवदना का आसीत्?
उत्तर- दीनवदना कवेः भार्या आसीत्।
  प्रश्न-  राजा किं कथयन् कवये लक्षम् अद्दा?
उत्तर राजा शिव-शिव इति कथयन् कवये लक्षम् मुद्राः अद्दात्।।
   प्रश्न-   भोजः कस्मै नमितुं शिवालयम् अगच्छत्?
उत्तर- भोजः श्रीमहेश्वराय नमितुं शिवालयम् अगच्छत्।
 प्रश्न- दानववैरी कः अस्ति?
उत्तर- दानववैरी विष्णुः अस्ति।
 प्रश्न-  शिवस्य अर्द्ध भागं कया आहरत?
उत्तर- शिवस्य अर्द्धं भागं गिरिजया आहरत्।
 प्रश्न- राजा भोज: प्रथम कवये किम् अददा?
उत्तर- राजा भोजः प्रथम कवये लक्षं मुद्राः अददात्।
   प्रश्न-  भोजः प्रभातवर्णनं श्रुत्वा सीतायै किम् अर्पयामास?
उत्तर- भोजः प्रभातवर्णनं श्रुत्वा सीतायै लक्षं मुद्राः अर्पयामास।
  प्रश्न- भोजः कालिदासं किं कर्तुं प्राह?
उत्तर- भोजः कालिदासं ‘प्रभातवर्णनं’ कर्तुं प्राह।
 प्रश्न- कस्य सभायां कविः प्रभातम् अवर्णय?
उत्तर- भोजस्य सभायां कविः प्रभातम् अवर्णयत्।
 प्रश्न- कस्या भार्या दुःखिनी आसीत्?
उत्तर- विदुषः भार्या दुःखिनी आसीत्।
प्रश्न- प्राची कीदृशी अभवत्?
उत्तर-प्राची पिङ्गा अभवत्।

प्रमोद कुमार सिंह(प्रवक्ता)
श्री शिवदान सिंह इण्टर कॉलेज
इगलास, अलीगढ़

2-संस्कृतभाषाय महत्वम कक्षा-12

 

संस्कृतभाषाय महत्वम

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य दोनों) से एक-एक गद्यांश व श्लोक दिए जाएँगे, जिनका सन्दर्भ

सहित हिन्दी में अनुवादकरना होगा,

प्रश्नोत्तर केवल कला वर्ग के छात्रों/छात्राओं के लिए।

दोनों के लिए 5-5 अंक निर्धारित हैं।

1.

धन्योऽयं भारतदेश: यत्र समुल्लसति जनमानसपावनी, भव्यभावोदभाविनी, शब्द-सन्दोह-प्रसविनी

सुरभारती। विद्यमानेष निखिलेष्वपि वाङ्मयेषु अस्याः वाङ्मयं सर्वश्रेष्ठं सुसम्पन्नं च वर्तते। इयमेव भाषा

संस्कृतनाम्नापि लोके प्रथिता अस्ति। अस्माकं रामायण- महाभारताद्यैतिहासिकग्रन्थाः, चत्वारो वेदाः, सर्वाः

उपनिषदः, अष्टादशपुराणानि, अन्यानि च महाकाव्यनाट्यादीनि अस्यामेव भाषायां लिखितानि सन्ति। इयमेव

भाषा सर्वासामार्यभाषाणां जननीति मन्यते भाषातत्त्वविदिभः। संस्कृतस्य गौरवं बहविधज्ञानाश्रयत्वं

व्यापकत्वं च न कस्यापि दृष्टेरविषयः। संस्कृतस्य गौरवमेव दृष्टिपथमानीय सम्यगुक्तमाचार्यप्रवरेण दण्डिना -

संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः।।

शब्दार्थ- यत्र-जहाँ; समुल्लसति-शोभित होती है, जनमानसपावनी-जनमानस को पवित्र करने वाली,

भव्यभावोद्भाविनी- सुन्दर भावों को उत्पन्न करने वाली, शब्द-सन्दोह-प्रसविनी-शब्दों के समूह को जन्म देने

वाली, वाङ्मयेषु-साहित्यों में, प्रथिता- प्रसिद्ध है; अस्माकं हमारा, हमारे; चत्वारः-चार,अष्टादशपुराणानि-

अठारह पुराण, अस्यामेव-इसके ही, इस ही; भाषायां-भाषा में, सन्ति हैं, सर्वासामार्यभाषाणा-सभी आर्य

भाषाओं की जननी-माता, बहुविधज्ञानाश्रयत्वं-अनेक प्रकार के ज्ञान का आश्रय होना, अन्वाख्याता–कहा है।

सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘संस्कृत के ‘संस्कृतभाषायाः महत्त्वम्’ नामक पाठ से उद्धृत है।

अनुवाद- यह भारत देश धन्य है, जहाँ मनुष्यों के चित्त को शुद्ध करने वाली, अच्छे भावों को उत्पन्न करने वाली,

शब्दों के समूह को जन्म देने वाली देववाणी सुशोभित है। विद्यमान (वर्तमान) सम्पूर्ण साहित्यों में इसका

साहित्य सर्वश्रेष्ठ और सुसम्पन्न है। यही भाषा संस्कृत नाम से भी संसार में प्रसिद्ध है। हमारे ‘रामायण’,

‘महाभारत’ आदि ऐतिहासिक ग्रन्थ, चारों वेद, समस्त उपनिषद्, अठारह पुराण तथा अन्य महाकाव्य, नाटक

आदि इसी भाषा में लिखे गए हैं। भाषा वैज्ञानिक इसी भाषा को समस्त आर्य-भाषाओं की जननी मानते हैं।

संस्कृत का गौरव, उसका विविध प्रकार के ज्ञान का आश्रय होना तथा इसकी व्यापकता किसी की दृष्टि का

अविषय (से छिपा) नहीं है। संस्कृत के गौरव को दृष्टि में रखकर आचार्य प्रवर दण्डी ने ठीक ही कहा है-संस्कृत

को महर्षियों ने ईश्वरीय वाणी कहा है।

2.

संस्कृतस्य साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम्। तस्य गद्ये पद्ये च लालित्यं, भावबोधसामर्थ्यम्, अद्वितीयश्रुतिमाधुर्यञ्च वर्तते। किं बहुना चरित्रनिर्माणार्थं यादृशीं सत्प्रेरणां संस्कृतवाङ्मयं ददाति न तादृशीं

किञ्चिदन्यत्। मूलभूतानां मानवीयगुणानां यादृशी विवेचना संस्कृतसाहित्ये वर्तते नान्यत्र तादृशी। दया, दानं,

शौचम्, औदार्यम्, अनसूया, क्षमा,अन्ये चानेके गुणा: अस्य साहित्यस्य अनुशीलनेन सज्जायन्ते।

शब्दार्थ- संस्कृतस्य-संस्कृत का, तस्य-उसके, गधे-गद्य में पद्य-पद्य में, श्रुतिमाधुर्यम्-सुनने में मधुर, किंबहुना-अधिक क्या कहें, यादृशी-जैसी, ददाति- देता है, देती है, तादृशी-वैसी, मानवीयगुणानां-मानवीय गुणों की,

नान्यत्र-अन्यत्र नहीं, शौचम्-पवित्रता, औदार्यम्-उदारता, अनसूया-ईर्ष्या न करना, अनुशीलनेन-अध्ययन से या

मनन से। ।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद- संस्कृत का साहित्य सरस तथा व्याकरण सुनिश्चित है। उसके गद्य एवं पद्य में लालित्य, भाव

अभिव्यक्ति की सामर्थ्य और अनुपम श्रुति-माधुर्य है। अधिक क्या कहें?चरित्र निर्माण की जैसी अच्छी प्रेरणा

संस्कृत साहित्य देता है,वैसी कोई अन्य साहित्य नहीं देता है। मूलभूत मानवीय गुणों की जैसी विवेचना

संस्कृत साहित्य में है, वैसी अन्यत्र नहीं है। दया,दान, पवित्रता, उदारता, ईर्ष्या न करना, क्षमा तथा अन्य अनेक

गुण इस साहित्य के अध्ययन से उत्पन्न होते हैं।

3.

संस्कृतसाहित्यस्य आदिकवि: वाल्मीकिः, महर्षिव्यास:,कविकुलगुरुः कालिदास: अन्ये च भास-

भारवि- भवभूत्यादयो महाकवयः स्वकीयैः ग्रन्थरत्नैः अद्यापि पाठकानां हृदि विराजन्ते। इयं भाषा अस्माभि:

मातृसमं सम्माननीया वन्दनीया च, यतो भारतमातु: स्वातन्त्र्यं, गौरवम्, अखण्डत्वं सांस्कृतिकमेकत्वञ्च

संस्कृतेनैव सुरक्षित शक्यन्ते। इयं संस्कृतभाषा सर्वासु भाषास प्राचीनतमा श्रेष्ठा चास्ति। तत: सुष्ठूक्तम्

‘भाषासु मुख्या मधुरा दिव्या गीर्वाणभारती’ इति।

शब्दार्थ- अन्ये च-और दूसरे, अद्यापि-आज भी, पाठकानां-पढ़ने वालों के हृदि-हृदय में, विराजन्ते-विराजमान हैं,

मातसमं-माता के समान, सांस्कृतिकमेकत्वञ्च-सांस्कृतिक एकता, सुरक्षितुं शक्यन्ते-सुरक्षित हो सकती है,

सुष्ठूक्तम्-ठीक कहा गया है, भाषासु- भाषाओं में, मुख्या-मुख्य; मधुरा-मधुर, गीर्वाणभारती-देववाणी

(संस्कृत)।

सन्दर्भ पूर्ववत्।

अनुवाद- संस्कृत साहित्य के आदिकवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, कविकुलगुरु कालिदास तथा अन्य कवि

भास, भारवि, भवभूति आदि महाकवि अपने ग्रन्थ-रत्नों के द्वारा आज भी पाठकों के हृदय में विराजमान हैं। यह

भाषा हमारे लिए माता के समान सम्माननीय तथा वन्दनीय है, क्योंकि भारतमाता की स्वतन्त्रता, गौरव,

अखण्डता तथा सांस्कृतिक एकता संस्कृत के द्वारा ही सुरक्षित हो सकती है। । यह संस्कृत भाषा समस्त

भाषाओं में सबसे प्राचीन एवं श्रेष्ठ है। अत: ठीक ही कहा गया है-“देववाणी (संस्कृत) सभी भाषाओं में मुख्य,

मधुर एवं दिव्य है।”

अति लघुउत्तरीय प्रश्न

प्रश्न-पत्र में संस्कृत के पाठों (गद्य व पद्य) से चार अति लघु उत्तरीय प्रश्न दिए जाएँगे, जिनमें से किन्हीं दो के

उत्तर संस्कृत में लिखने होंगे, प्रत्येक प्रश्न के लिए 4 अंक निर्धारित हैं।

प्रश्न- कः धन्यः अस्ति?

उत्तर- भारतदेश: धन्यः अस्ति।

प्रश्न-जनमानसपावनी का अस्ति?

उत्तर- जनमानसपावनी संस्कृत अस्ति।

प्रश्न-कस्याः वाङ्मयं सर्वश्रेष्ठं सुसम्पन्नं च वर्तते?

उत्तर- संस्कृतस्य वाङ्मयं सर्वश्रेष्ठं सुसम्पन्न च वर्तते।

प्रश्न-सुरभारती केन नाम्नापि लोके प्रथिता अस्ति?

उत्तर- सुरभारती संस्कृतनाम्नापि लोके प्रथिता अस्ति।

प्रश्न-रामायण-महाभारतादि ग्रन्थाः कस्यां भाषायां लिखिताः सन्ति?

उत्तर- रामायण-महाभारतादि ग्रन्थाः संस्कृत भाषायां लिखिताः सन्ति।

प्रश्न-व्यासः किं रचितवान्?

उत्तर- व्यासः महाभारतं रचितवान्।

प्रश्न-वेदाः कति सन्ति?

उत्तर- वेदाः चत्वारः सन्ति।


प्रश्न-संस्कृतभाषायां कति पुराणानि लिखितानि सन्ति?

उत्तर-संस्कृतभाषायां अष्टादशपुराणानि लिखितानि सन्ति।

प्रश्न-कासां जननी संस्कृत-भाषा अस्ति?

उत्तर- आर्य भाषाणां जननी संस्कृत भाषा अस्ति।

प्रश्न-संस्कृतस्य गौरवं दृष्ट्वा दण्डिना किम् उक्तम्?

उत्तर- दण्डिना उक्तम्-संस्कृतं नाम दैवी वागन्वाख्याता महर्षिभिः।-

प्रश्न-संस्कृतभाषायाः साहित्यं व्याकरणञ्च कीदृशम् अस्ति?

उत्तर- संस्कृतभाषायाः साहित्यं सरसं, व्याकरणञ्च सुनिश्चितम् अस्ति।।

प्रश्न-कस्य व्याकरणं सुनिश्चितम् अस्ति?

उत्तर- संस्कृतस्य व्याकरणं सुनिश्चितम् अस्ति।

प्रश्न-मानवीयगुणानां विवेचना कुत्र वर्तते?

उत्तर- मानवीयगुणानां विवेचना संस्कृतसाहित्ये वर्तते।

प्रश्न-संस्कृत साहित्यस्य अनुशीलनेन के गुणाः सञ्जायन्ते?

उत्तर- संस्कृत साहित्यस्य अनुशीलनेन दया, दानं, शौचं, औदार्यम्

कर्मो का फल

⭕ कर्मों के फल से ना बच पाओगे - चलना बहुत संभाल के ऐ मुसाफिर ⭕
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
एक सेठ जी बहुत ही दयालु थे ।
धर्म-कर्म में यकीन करते थे ।
उनके पास जो भी व्यक्ति उधार मांगने आता,
वे उसे मना नहीं करते थे ।

सेठ जी मुनीम को बुलाते और जो उधार मांगने वाला व्यक्ति होता उससे पूछते कि "भाई ! तुम उधार कब लौटाओगे ?
इस जन्म में या फिर अगले जन्म में ?"

🔷 जो लोग ईमानदार होते वो कहते - "सेठ जी !
हम तो इसी जन्म में आपका कर्ज़ चुकता कर देंगे ।"
और कुछ लोग जो ज्यादा चालक व बेईमान होते वे कहते - "सेठ जी !
हम आपका कर्ज़ अगले जन्म में उतारेंगे ।"

और अपनी चालाकी पर वे मन ही मन खुश होते कि "क्या मूर्ख सेठ है !
अगले जन्म में उधार वापसी की उम्मीद लगाए बैठा है ।"

ऐसे लोग मुनीम से पहले ही कह देते कि वो अपना कर्ज़ अगले जन्म में लौटाएंगे
और मुनीम भी कभी किसी से कुछ पूछता नहीं था ।
जो जैसा कह देता मुनीम वैसा ही बही में लिख लेता ।

🔷 एक दिन एक चोर भी सेठ जी के पास उधार मांगने पहुँचा ।
उसे भी मालूम था कि सेठ अगले जन्म तक के लिए रकम उधार दे देता है ।

हालांकि उसका मकसद उधार लेने से अधिक सेठ की तिजोरी को देखना था ।

चोर ने सेठ से कुछ रुपये उधार मांगे, सेठ ने मुनीम को बुलाकर उधार देने को कहा ।

मुनीम ने चोर से पूछा - "भाई !
इस जन्म में लौटाओगे या अगले जन्म में ?"

🔷 चोर ने कहा - "मुनीम जी ! मैं यह रकम अगले जन्म में लौटाऊँगा ।"

🔷 मुनीम ने तिजोरी खोलकर पैसे उसे दे दिए ।
चोर ने भी तिजोरी देख ली और तय कर लिया कि इस मूर्ख सेठ की तिजोरी आज रात में उड़ा दूँगा ।

वो रात में ही सेठ के घर पहुँच गया और वहीं भैंसों के तबेले में छिपकर सेठ के सोने का इन्तजार करने लगा ।

अचानक चोर ने सुना कि भैंसे आपस में बातें कर रही हैं और वह चोर भैंसों की भाषा ठीक से समझ पा रहा है ।

🔷 एक भैंस ने दूसरी से पूछा - "तुम तो आज ही आई हो न, बहन !"

उस भैंस ने जवाब दिया - “हाँ, आज ही सेठ के तबेले में आई हूँ, सेठ जी का पिछले जन्म का कर्ज़ उतारना है और तुम कब से यहाँ हो ?”

उस भैंस ने पलटकर पूछा तो पहले वाली भैंस ने बताया - "मुझे तो तीन साल हो गए हैं, बहन ! मैंने सेठ जी से कर्ज़ लिया था यह कहकर कि अगले जन्म में लौटाऊँगी ।

सेठ से उधार लेने के बाद जब मेरी मृत्यु हो गई तो मैं भैंस बन गई और सेठ के तबेले में चली आयी ।

अब दूध देकर उसका कर्ज़ उतार रही हूँ ।
जब तक कर्ज़ की रकम पूरी नहीं हो जाती तब तक यहीं रहना होगा ।”

🔷 चोर ने जब उन भैंसों की बातें सुनी तो होश उड़ गए और वहाँ बंधी भैंसों की ओर देखने लगा ।

वो समझ गया कि उधार चुकाना ही पड़ता है,
चाहे इस जन्म में या फिर अगले जन्म में उसे चुकाना ही होगा ।

वह उल्टे पाँव सेठ के घर की ओर भागा और जो कर्ज़ उसने लिया था उसे फटाफट मुनीम को लौटाकर रजिस्टर से अपना नाम कटवा लिया ।

🔶 हम सब इस दुनिया में इसलिए आते हैं,
क्योंकि हमें किसी से लेना होता है तो किसी का देना होता है ।

इस तरह से प्रत्येक को कुछ न कुछ लेने देने के हिसाब चुकाने होते हैं ।

इस कर्ज़ का हिसाब चुकता करने के लिए इस दुनिया में कोई बेटा बनकर आता है
तो कोई बेटी बनकर आती है,
कोई पिता बनकर आता है,
तो कोई माँ बनकर आती है,
कोई पति बनकर आता है,
तो कोई पत्नी बनकर आती है,
कोई प्रेमी बनकर आता है,
तो कोई प्रेमिका बनकर आती है,
कोई मित्र बनकर आता है,
तो कोई शत्रु बनकर आता है,
कोई पङोसी बनकर आता है तो कोई रिश्तेदार बनकर आता है ।

चाहे दुःख हो या सुख हिसाब तो सबको देना ही पड़ता हैं ।
ये प्रकृति का नियम है।....राधे राधे

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजज

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजी  अध्ययनों से पता चला है कि सफलता का सबसे अच्छा पूर्वानुमानकर्ता “दीर्घकालिक सोच” (Long-Term Thinking) है। जो ...