पुलवामा का बदला या नेपोलियन की नीति

   मैंने सोचा की 26 फरवरी मंगलवार को जो हुआ उसे होना चाहिए ही था क्योंकि 26/11 मुंबई की घटना,उरी और पुलवामा हमारे जनमानस में नेतृत्व के प्रति नकारात्मकता की भावना को पैदा करती है,जनमानस को बार-बार का ये दर्द स्वीकार नही।उरी की घटना के बाद भारतीय सेना के द्वारा एक सर्जिकल स्ट्राइक की गयी लेकिन आतंकवादी संगठनों का मनोबल बरकरार रहा जिसका मुख्य कारण पाकिस्तानी सरकार द्वारा इन संगठनों को संरक्षण दिया जा रहा था ।इसी लिए सेना के मनोबल और भारतीय जनमानस में सरकार की, अपनी तथा पार्टी की छवि के लिए यह कार्यवाही अत्यंत महत्वपूर्ण थी। लेकिन उसके दूसरे पक्ष पर भी गौर करना आवश्यक है कही ऐसा तो नही कि
   क्या नरेंद्र मोदी भी नेपोलियन की तरह जनता को युद्ध में झोंककर सत्ता में बने रहना चाहते हैं!
   देश को युद्ध में डालकर अपने समर्थन में भीड़ जुटाना एक पुरानी रची और मंझी हुई टेक्निक है. नेपोलियन बोनापार्ट की आर्थिक नीतियां जब फेल होने लगीं तो उसकी लोकप्रियता में कमीं आने लगी, जनता का एक बड़ा हिस्सा नेपोलियन के विरोध में आने लगा,       नेपोलियन ने इससे बचने का सबसे आसान तरीका निकाल लिया.. उसने इटली के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. जनता जनता ही होती है भूल गई कि नेपोलियन एक असफल शासक है उसकी आर्थिक नीतियों ने फ्रांस को यूरोप के शिखर से उतारकर जमीन पर ला दिया है.

      चूंकि युद्ध विदेशी धरती पर लड़े जा रहे थे अपने राष्ट्र की आन बान शान के लिए पूरी जनता नेपोलियन के समर्थन में आ गई. और भूल गई कि नेपोलियन ने देश में डेमोक्रेटिक वैल्यूज और इकनोमिक पॉलिसीज दोनों पर असफ़ल हुआ है.

     नेपोलियन जानता था कि जनता की भावनाओं का इस्तेमाल उन्हें युद्ध के गौरव दिखाकर किया जा सकता है. यही कारण था कि मिस्र में अपनी हार को भी उसने अखबारों और मीडिया के प्रोपगेंडा के थ्रू गुलाबी गुलाबी दिखाया. इनफार्मेशन और मीडिया पर कंट्रोल करके नेपोलियन ने युद्धों को ही फ्रांस के हर घर में परोस दिया. जनता की मजबूरी होती एक विदेशी देश से लड़ते समय अपने देश के तानाशाह का समर्थन करना.

     जब भी नेपोलियन की लोकप्रियता कम होती, लोग सवाल पूछना शुरू करते, तभी नेपोलियन किसी नए देश के खिलाफ युद्ध छेड़ देता. युद्ध को अपने शासन करने की वैद्यता के लिए प्रोपेगैंडा की तरह यूज करना नेपोलियन अच्छे से जानता था, इसके लिए नेपोलियन ने खुद दो अखबार एस्टेब्लिश किए the Courrier de और La France Vue de इन अखबारों का काम ही यही होता था कि युद्ध क्षेत्र में होने वाली खबरों से नेपोलियन की इमेज बनाई जाए.

    परिणाम यह हुआ कि कभी यूरोप में शिखर पर रहने वाला फ्रांस जहां से फ्रेंच रेवोल्यूशन की डेमोक्रेटिक वैल्यूज ने पूरे यूरोप में ही नहीं पूरी दुनिया में उपनिवेशवाद के खिलाफ तमाम देशों में आंदोलन चलाने के लिए प्रेरित किया. फ्रांस से सीखकर यूरोप और एशिया के देशों में डेमोक्रेसी के लिए आंदोलन होने लगे. उसी फ्रांस को “फ्रेंच रेवोल्यूशन” के दस वर्ष के बाद ही नेपोलियन की तानाशाही झेलनी पड़ी.

       जब पिछले दिनों मैं टीवी पर
" ये मोदी है....न भूलेगा,न छोड़ेगा",
“छुआरे की मौत मरेगा पाकिस्तान”,
टमाटर की मौत मरेगा पाकिस्तान”,
"प्यासा मरेगा पाकिस्तान",
"घर में घुस कर मारेगें, घुसोगे तो भी मारेगें", "पाकिस्तान के खिलाफ अभी नही तो कभी नही",
"अबकी रण ऐसा होगा,फिर कभी नही जैसा होगा"
" बदले हुए भारत का सबसे बड़ा बदल",
"मत रुको,आतंकिस्तान को और मारो",
"इमरान  ख़ान ने माँगी, भारत से रहम की भीख",

"भारत के पवनपुत्रों का पाकिस्तान में लंकादहन",
"ये पाकिस्तान एक एयर स्ट्राइक से नही मानेगा",
  "इतने बाजू इतने सर,गिन ले दुश्मन ध्यान से"
जैसी प्रोपगेंडा वाली खबरें देख रहा था ये आज भी चल रही है, टीवी चैनलों ने "वाररूम"  तक बना लिए है तब मुझे अनायास ही नेपोलियन के मीडिया पर कंट्रोल वाली बात याद आ गई. पूर्व से  ही मैं इस बात को लेकर आशंकित था की नरेंद्र मोदी 2019 में अपने शासन की वैद्यता के लिए युद्ध वाली परिस्थितियां पैदा कर सकते हैं.जिसमें पाकिस्तान द्वारा समर्थित आतंकवादी संगठनों ने आग में घी का काम किया।

    आज सर्जिकल स्ट्राइक की खबर पर जिस तरह देश की जनता बड़बड़ाए जा रही है और उसके आंकड़ों की कलाकारी मीडिया द्वारा की जा रही है. उससे यह तो साफ समझ में आता है कि रोटी के सवाल को गोलियों के गौरव से आसानी से दबाया जा सकता है और नरेंद्र मोदी इस बात को अच्छे तरह से जानते हैं.
     एक समय फ्रांस के लोगो ने नेपोलियन को भी महामानव की संज्ञा दी थी,जो आज मोदी जी को दी जा रही है।
  चलो जो भी हुआ,अच्छा हुआ,हम सब देश सरकारऔर पार्टी के साथ है।
  ये लेखक के व्यक्तिगत विचार है।

रावण और उसके विजेता

         भगवान ने रावण का अंत किया था और ज्यादातर लोग यही जानते हैं कि रावण सिर्फ श्रीराम से ही हारा था, लेकिन ये सच नहीं है। रावण श्रीराम से पहले भी 4 लोगों से हार चुका था। राम भगवान से पहले रावण शिवजी, राजा बलि, बालि और सहस्त्रबाहु अर्जुन से भी पराजित हो चुका था। यहां जानिए इन चारों से रावण कब और कैसे हारा था...

इन लाेगाें से हर चुका था रावण

1.बालि से रावण की हार

एक बार रावण बालि से युद्ध करने के लिए पहुंच गया था। बालि उस समय पूजा कर रहा था। रावण बार-बार बालि को ललकार रहा था।

 

जिससे बालि की पूजा में बाधा उत्पन्न हो रही थी। जब रावण नहीं माना तो बालि ने उसे अपनी बाजू में दबा कर चार समुद्रों की परिक्रमा की थी। 

बालि बहुत शक्तिशाली था और इतनी तेज गति से चलता था कि रोज सुबह-सुबह ही चारों समुद्रों की परिक्रमा कर लेता था।

इस प्रकार परिक्रमा करने के बाद सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता था। जब तक बालि ने परिक्रमा की और सूर्य को अर्घ्य अर्पित किया तब तक रावण को अपने बाजू में दबाकर ही रखा था। 

रावण ने बहुत प्रयास किया, लेकिन वह बालि की पकड़ से आजाद नहीं हो पाया। पूजा के बाद बालि ने रावण को छोड़ दिया था। इसके बाद रावण ने बालि से मित्रता कर ली थी।

2.सहस्त्रबाहु अर्जुन से रावण की हार

सहस्त्रबाहु अर्जुन एक क्षत्रिय राजा था जिसके एक हजार हाथ थे और इसी वजह से उसे सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहते थे।

 

एक बार जब रावण अपनी सेना लेकर सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंचा तो सहस्त्रबाहु ने अपने हजार हाथों से नर्मदा नदी के बहाव को रोक दिया था। 

सहस्त्रबाहु ने नर्मदा के पानी के बहाव को अपने हाथों से रोक दिया और थोड़ी देर बाद पानी छोड़ दिया, जिससे रावण पूरी सेना के साथ ही नर्मदा में बह गया था। 

इस पराजय के बाद एक बार फिर रावण सहस्त्रबाहु से युद्ध करने पहुंच गया था, तब सहस्त्रबाहु ने उसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था।

जब यह बात रावण के दादा महर्षि पुलस्त्य को पता चली तो उन्होने सहस्त्रबाहु अर्जुन से कहकर रावण को आजाद कराया।

3.राजा बलि के महल में रावण की हार

दैत्यराज बलि पाताल लोक के राजा थे। एक बार रावण राजा बलि से युद्ध करने के लिए पाताल लोक में उनके महल तक पहुंच गया था।

 

वहां पहुंचकर रावण ने बलि को युद्ध के लिए ललकारा, उस समय बलि के महल में खेल रहे बच्चों ने ही रावण को पकड़कर घोड़ों के साथ अस्तबल में बांध दिया था। 

इस प्रकार राजा बलि के महल में रावण की हार हुई। इसके बाद बड़ी मुश्किल से रावण वहां से भागने में कामयाब रहा था।

4.शिवजी से रावण की हार

रावण को अपनी शक्ति पर बहुत घमंड था। इस घमंड के नशे में वह शिवजी को हराने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंच गया था।

 

रावण ने शिवजी को युद्ध के लिए ललकारा, लेकिन महादेव ध्यान में लीन थे। रावण कैलाश पर्वत को उठाने लगा। 

तब शिवजी ने पैर के अंगूठे से ही कैलाश का भार बढ़ा दिया, इस भार को रावण उठा नहीं सका और उसका हाथ पर्वत के नीचे दब गया। 

इस हार के बाद रावण ने शिवजी को अपना गुरु बनाया था और उनकी उपासना करने लगा था।

शिष्य की श्रद्धा

(((((((((( शिष्य की श्रद्धा ))))))))))
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काफी समय पहले की बात है कि एक मन्दिर के बाहर बैठ कर एक भिखारी भीख माँगा करता था । ( वह एक बहुत बड़े महात्मा जी का शिष्य था जो कि एक पूर्ण संत थे ) उसकी उम्र कोई साठ को पार कर चुकी थी ।
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आने जाने वाले लोग उसके आगे रक्खे हुए पात्र में कुछ न कुछ डाल जाते थे । लोग कुछ भी डाल दें , उसने कभी आँख खोल कर भी न देखा था कि किसने क्या डाला ।
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उसकी इसी आदत का फायदा उसके आस पास बैठे अन्य भिखारी तथा उनके बच्चे उठा लेते थे । वे उसके पात्र में से थोड़ी थोड़ी देर बाद हाथ साफ़ कर जाते थे ।
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कई उसे कहते भी थे कि , सोया रहेगा तो तेरा सब कुछ चोरी जाता रहेगा। वह भी इस कान से सुन कर उधर से निकाल देता था। किसी को क्या पता था कि वह प्रभु के प्यार में रंगा हुआ था। हर वक्त गुरु की याद उसे अपने में डुबाये रखती थी।
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एक दिन ध्यान की अवस्था में ही उसे पता लगा कि उसकी अपनी उम्र नब्बे तक पहुंच जायेगी। यह जानकर वह बहुत उदास हो गया। जीवन इतनी कठिनाइयों से गुज़र रहा था पहले ही और ऊपर से इतनी लम्बी अपनी उम्र की जानकारी - वह सोच सोच कर परेशान रहने लग गया।
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एक दिन उसे अपने गुरु की उम्र का ख्याल आया। उसे मालूम था कि गुरुदेव की उम्र पचास के आसपास थी। पर ध्यान में उसकी जानकारी में आया कि गुरुदेव तो बस दो बरस ही और रहेंगे।
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गुरुदेव की पूरी उम्र की जानकारी के बाद वह और भी उदास हो गया। बार बार आँखों से बूंदे टपकने लग जाती थीं। पर उसके अपने बस में तो नही था न कुछ भी। कर भी क्या सकता था, सिवाए आंसू बहाने के।
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एक दिन सुबह कोई पति पत्नी मन्दिर में आये। वे दोनों भी उसी गुरु के शिष्य थे जिसका शिष्य वह भिखारी था। वे तो नही जानते थे भिखारी को , पर भिखारी को मालूम था कि दोनों पति पत्नी भी उन्ही गुरु जी के शिष्य थे।
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दोनों पति पत्नी लाइन में बैठे भिखारियों के पात्रों में कुछ न कुछ डालते हुए पास पहुंच गये। भिखारी ने दोनों हाथ जोड़ कर उन्हें ऐसे ही प्रणाम किया जैसे कोई घर में आये हुए अपने गुरु भाईओं को करता है।
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भिखारी के प्रेम पूर्वक किये गये प्रणाम से वे दोनों प्रभावित हुए बिना न रह सके। भिखारी ने उन दोनों के भीतर बैठे हुए अपने गुरुदेव को प्रणाम किया था इस बात को वे जान न पाए।
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उन्होंने यही समझा कि भिखारी ने उनसे कुछ अधिक की आस लगाई होगी जो इतने प्यार से नमस्कार किया है। पति ने भिखारी की तरफ देखा और बहुत प्यार से पुछा, कुछ कहना है या कुछ और अधिक चाहिए ?
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भिखारी ने अपने पात्र में से एक सिक्का निकाला और उनकी तरफ बढ़ाते हुए बोला , जब गुरुदेव के दर्शन को जायो तो मेरी तरफ से ये सिक्का उनके चरणों में भेंट स्वरूप रख देना ।
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पति पत्नी ने एक दुसरे की तरफ देखा , उसकी श्रद्धा को देखा, पर एक सिक्का, वो भी गुरु के चरणों में ! पति सोचने लगा क्या कहूँगा, कि एक सिक्का !  कभी एक सिक्का गुरु को भेंट में तो शायद किसी ने नही दिया होगा , कभी नही देखा।
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पति भिखारी की श्रद्धा को देखे तो कभी सिक्के को देखे। कुछ सोचते हुए पति बोला , आप इस सिक्के को अपने पास रक्खो , हम वैसे ही आपकी तरफ से उनके चरणों में रख देंगे ।
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नही आप इसी को रखना उनके चरणों में । भिखारी ने बहुत ही नम्रता पूर्वक और दोनों हाथ जोड़ते हुए कहा। उसकी आँखों से झर झर आंसू भी निकलने लग गये।
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भिखारी ने वहीं से एक कागज़ के टुकड़े को उठा कर सिक्का उसी में लपेट कर दे दिया । जब पति पत्नी चलने को तैयार हो गये तो भिखारी ने पुछा , वहाँ अब भंडारा कब होगा ?
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भंडारा तो कल है , कल गुरुदेव का जन्म दिवस है न। भिखारी की आँखे चमक उठीं। लग रहा था कि वह भी पहुंचेगा , गुरुदेव के जन्म दिवस के अवसर पर।
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दोनों पति पत्नी उसके दिए हुए सिक्के को लेकर चले गये। अगले दिन जन्म दिवस ( गुरुदेव का ) के उपलक्ष में आश्रम में भंडारा था। वह भिखारी भी सुबह सवेरे ही आश्रम पहुंच गया।
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भंडारे के उपलक्ष में बहुत शिष्य आ रहे थे। पर भिखारी की हिम्मत न हो रही थी कि वह भी भीतर चला जाए। वह वहीं एक तरफ खड़ा हो गया कि शायद गेट पर खड़ा सेवादार उसे भी मौका दे भीतर जाने के लिए। पर सेवादार उसे बार बार वहाँ से चले जाने को कह रहा था।
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दोपहर भी निकल गयी, पर उसे भीतर न जाने दिया गया। भिखारी वहाँ गेट से हट कर थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ की छावं में खड़ा हो गया।
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वहीं गेट पर एक कार में से उतर कर दोनों पति पत्नी भीतर चले गये। एक तो भिखारी की हिम्मत न हुई कि उन्हें जा कर अपने सिक्के की याद दिलाते हुए कह दे कि मेरी भेंट भूल न जाना। और दूसरा वे दोनों शायद जल्दी में भी थे इस लिए जल्दी से भीतर चले गये।
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और भिखारी बेचारा, एक गरीबी , एक तंग हाली और फटे हुए कपड़े उसे बेबस किये हुए थे कि वह अंदर न जा सके।
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दूसरी तरफ दोनों पति पत्नी गुरुदेव के सम्मुख हुए, बहुत भेंटे और उपहार थे उनके पास, गुरुदेव के चरणों में रखे।
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पत्नी ने कान में कुछ कहा तो पति को याद आ गया उस भिखारी की दी हुई भेंट। उसने कागज़ के टुकड़े में लिपटे हुए सिक्के को जेब में से बाहर निकाला, और अपना हाथ गुरु के चरणों की तरफ बढ़ाया ही था तो गुरुदेव आसन से उठ खड़े हुए ,
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गुरुदेव ने अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाकर सिक्का अपने हाथ में ले लिया, उस भेंट को गुरुदेव ने अपने मस्तक से लगाया और पुछा, ये भेंट देने वाला कहाँ है, वो खुद क्यों नही आया ?
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गुरुदेव ने अपनी आँखों को बंद कर लिया, थोड़ी ही देर में आँख खोली और कहा, वो बाहर ही बैठा है, जायो उसे भीतर ले आयो।
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पति बाहर गया, उसने इधर उधर देखा। उसे वहीं पेड़ की छांव में बैठा हुआ वह भिखारी नज़र आ गया।
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पति भिखारी के पास गया और उसे बताया कि गुरुदेव ने उसकी भेंट को स्वीकार किया है और भीतर भी बुलाया है।
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भिखारी की आँखे चमक उठीं। वह उसी के साथ भीतर गया, गुरुदेव को प्रणाम किया और उसने गुरुदेव को अपनी भेंट स्वीकार करने के लिए धन्यवाद दिया।
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गुरुदेव ने भी उसका हाल जाना और कहा प्रभु के घर से कुछ चाहिए तो कह दो आज मिल जायेगा।
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भिखारी ने दोनों हाथ जोड़े और बोला - एक भेंट और लाया हूँ आपके लिए , प्रभु के घर से यही चाहता हूँ कि वह भेंट भी स्वीकार हो जाये।
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हाँ होगी, लायो कहाँ है ? वह तो खाली हाथ था, उसके पास तो कुछ भी नजर न आ रहा था भेंट देने को, सभी हैरान होकर देखने लग गये कि क्या भेंट होगी !
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हे गुरुदेव, मैंने तो भीख मांग कर ही गुज़ारा करना है, मैं तो इस समाज पर बोझ हूँ। इस समाज को मेरी तो कोई जरूरत ही नही है। पर हे मेरे गुरुदेव , समाज को आपकी सख्त जरूरत है, आप रहोगे, अनेकों को अपने घर वापिस ले जायोगे।
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इसी लिए मेरे गुरुदेव, मैं अपनी बची हुई उम्र आपको भेंट स्वरूप दे रहा हूँ। कृपया इसे कबूल करें।" इतना कहते ही वह भिखारी गुरुदेव के चरणों पर झुका और फिर वापिस न उठा। कभी नही उठा।
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वहाँ कोहराम मच गया कि ये क्या हो गया, कैसे हो गया ? सभी प्रश्न वाचक नजरों से गुरुदेव की तरफ देखने लग गये ।
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एक ने कहा,  हमने भी कई बार कईओं से कहा होगा कि भाई मेरी उम्र आपको लग जाए , पर हमारी तो कभी नही लगी। पर ये क्या, ये कैसे हो गया ?
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गुरुदेव ने कहा, इसकी बात सिर्फ इस लिए सुन ली गयी क्योंकि इसके माथे का टीका चमक रहा था। आपकी इस लिए नही सुनी गयी क्योंकि माथे पर लगे टीके में चमक न थी।
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सभी ने उसके माथे की तरफ देखा, वहाँ तो कोई टीका न लगा था। गुरुदेव सबके मन की उलझन को समझ गये और बोले  टीका ऊपर नही, भीतर के माथे पर लगा होता है.

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दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजज

दीर्घकालिक सोच: सफलता की कुंजी  अध्ययनों से पता चला है कि सफलता का सबसे अच्छा पूर्वानुमानकर्ता “दीर्घकालिक सोच” (Long-Term Thinking) है। जो ...